llजात पांत पूछे नहीं कोईll

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यह ईश्वरावतार की भूमि है, ऐसी भारत भूमि हमें प्राप्त हुई। कहा जाता है, ईसाई धर्म दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है। ईसाई देश दुनिया में सबसे धनवान हैं। दुनिया का नेतृत्व कर रहे हैं, दुनिया की सारी गतिविधियों को प्रभावित करते हैं। तो जिसके पास पैसा है, वह तो बड़ा हो जाता है, सुंदर हो जाता है। ये सभी बातें आपको मालूम हैं। किन्तु काफी लंबे समय तक कोई काले रंग का आदमी संत की उपाधि प्राप्त नहीं कर सका था। अमरीका को स्थापित हुए सवा दो सौ साल से भी अधिक हो गए। ईसा मसीह को २००० वर्ष हो गए, किन्तु कैसा धर्म है कि काले लोग संत नहीं बन पाते हैं, अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, वहां काले रंग वाले को भी संत की उपाधि दी गई। यहां तो जब कहा गया कि विद्याध्ययन ब्राह्मण ही करेगा, ब्राह्मणों को ही संन्यास लेने का अधिकार होगा, ऐसा कहा शंकराचार्य जी ने। धर्म को निश्चित रूप से उनका योगदान अनुपम है, लेकिन इस बात पर उनके अनुयायियों ने ही विरोध कर दिया। इस बात का विरोध विद्वान मंडन मिश्र ने कर दिया, जो बाद में सुरेश्वराचार्य के रूप में जाने गए, सृंगेरी मठ के प्रथम शंकरचार्य हुए. कहा यह गलत है, जिसे जेनऊ का अधिकार है, उसे वेदाध्ययन करने का अधिकार है, संन्यास लेने का भी अधिकार है। तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, तीनों संन्यासी बनने लगे। दशनाम की परंपरा है, संन्यासी में भी दो विभाग हैं एक तो दंड वाले लोग और दूसरे दशनाम हैं। जो दंडी नहीं हैं। बिना दंड के हैं, जैसे महामंडलेश्वर इत्यादि। यह सनातन धर्म है, यहां ऐसे गुरु हैं, जिन्हें शंकराचार्य कहा जाता है। कुछ वर्ष पहले दिल्ली में विशाल मंदिर अक्षरधाम बना, बड़े-बड़े नेता आए, राष्ट्रपति आये और संभवतः आडवाणी जी ने कहा कि यह देश का एक बड़ा पर्यटन स्थल होगा। यह बात बिल्कुल वैसी ही है जैसे कोई किसी दूल्हे को कहे कि तुम्हारी नाक टेढ़ी है, तू बड़ा कुरूप लगता है, तो दूल्हे के संग बाराती दमदार होंगे, तो बिना मारे नहीं छोड़ेंगे। दूल्हा विष्णु है, उसकी नाक टेढ़ी होती है क्या? यदि मैं दूल्हा होता और ऐसे कोई मुझे बोलता, तो शादी होती न होती, जेल भले चले जाता, लेकिन बिना मारे नहीं छोड़ता। नेताओं ने मंदिर को कहा कि देश का बड़ा भारी पर्यटन स्थल बन गया। किन्तु वो शंकराचार्य कैसे थे, जिन्होंने चार मठों की स्थापना की, जिन्हें दुनिया सबसे बड़ा मठ मानती है। विशाल बगीचा लगा देने से, खूब सजा देने से या आलीशान भवन बना देने से मठ नहीं बनते। जहां सत्य चिंतन हो, जहां संयम, नियम सिखलाया जाए और शास्त्रों का अध्ययन कराया जाए, उसे मठ कहते हैं। मठ में केवल मंदिर से नहीं चलेगा, मठ में केवल गोशाला से नहीं चलेगा। मठ का अपना स्वरूप है, विद्यालय वहां न हो तो कोई बात नहीं, वहां जो बड़े संत होते हैं, उनके पास बैठकर जिज्ञासाएं शांत होती हैं, जिन्हें देखकर ही शांति मिलती है, भक्ति भाव उत्पन्न होता है, ऐसा हो, तभी मठ बनता है। जहां अध्यात्म शास्त्र के जिज्ञासुओं को रखा जाए, धर्म शास्त्र पढ़ाया-सिखाया जाए, भोजन कराया जाए, वह मठ है। मधुसूदन सरस्वती के माध्यम से मैं बताना चाहूंगा कि यदि कोई भगवान की भक्ति करता है, तो सारे वेदों के वाक्य उस भक्त के जीवन में उतरते हैं, ईश्वर कृपा से अंत:करण की पवित्रता संपादित होती है, दिव्य भाव उनके हृदय में उतरते हैं, उनका साक्षात्कार उतरता है। जीवन धन्य हो जाता है। मैं ध्यान दिलाना चाह रहा हूं कि अगर भारत में भी यह होता कि काले रंग वाले को ईश्वर प्रेम का अधिकार नहीं होगा, तो तमाम पंडित लोग जो काले हैं, वे छंट जाते हैं, क्षत्रिय छंट जाते। किन्तु ब्राह्मणत्व का सम्बंध रंग से नहीं है, आचार-आकृति से नहीं है। रंग का भेद उस पश्चिम में है, जहां छुआछूत को मिटाओ की पढ़ाई कराई जाती है, जहां भारत को छुआछूत वाला देश माना जाता है, जहां भारत को पिछड़ा हुआ बताया जाता है। उसी भारत में स्वामी रामानंदाचार्य जी ने साफ कहा की जात पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई। सर्वे प्रपत्ते: अधिकारिणो मता:। अर्थात ज्ञान, कर्मयोग आदि से रहित व्यक्ति भी यदि शरण में आ जाए, तो ईश्वर उसे अंगीकार करते हैं। इस भक्ति में कोई विशिष्ट अर्हता या पात्रता नहीं होती। तुलसीदास ने लिखा है कि भरत जी निषादराज से वैसे ही मिल रहे हैं, जैसे लक्ष्मण जी से मिलते थे। ऐसा द्वापर या कलयुग में नहीं, उस समय हुआ, ईसाई धर्म का अता-पता नहीं था। निषादराज पवित्र हैं, भक्ति के परम पावन रूप ने उन्हें इतना पावन बना दिया, दिप्तीमय बना दिया कि उनमें कहीं कोई दुराभाव नहीं रहा। निषादराज का रंग कुछ भी हो सकता है। कितना भी आदमी सुंदर हो गोरा हो, धूप में रहेगा तो सांवला हो जाएगा, यज्ञशाला में रहेगा, तो सांवला हो जाएगा। गोरे होने का क्या महत्व है? यह तो केवल शरीर का मामला है। स्वामी जी ने इस मामले को बहुत परिष्कृत किया। रामानुजाचार्य जी भक्ति के बड़े आचार्य माने जाते हैं, लेकिन वहां भी शुद्रों को भक्ति करने से रोका गया। शुद्र को शास्त्र पढऩे का अधिकार नहीं दिया गया। किन्तु रामानंदाचार्य जी ने शुद्रों को भी भक्ति का मार्ग दिखा दिया। दूसरे संप्रदायों को भी देखिए। वल्लभाचार्य जी की सभी गद्दियों पर उनके परिवार के लोग ही विराजमान हैं। उनके परिवार के लोग ही गद्दी पर जमे हैं। दूसरी जाति वालों से पैसे तो लेते हैं, लेकिन गद्दी पर उनके बच्चे ही बैठते हैं। उनकी गद्दी पर दूसरा कोई ब्राह्मण, उनकी ही बिरादरी के ब्राह्मण भी नहीं बैठ सकते। गद्दी पर वंश चल रहा है। कहीं किसी को सिद्धी नहीं हो, तो गोद ले लेते हैं, किन्तु गद्दी छोड़ते नहीं। निम्बाकाचार्य संप्रदाय की तो एक ही गद्दी है, वृन्दावन में होनी चाहिए थी, किन्तु उनके उत्तराधिकारी गद्दी ले गए राजस्थान, अपनी जन्मभूमि। हमारे श्रीमठ में पांच किलोमीटर के दायरे में रामानंद जी का क्षेत्र था। औरंगजेब में तुड़वा दिया, कब्जा हो गया, अभी मठ का बहुत छोटा-सा हिस्सा बचा था, अरविंद भाई मफतलाल समूह व रामानंद संप्रदाय के अन्य महंतों, भक्तों, विद्वानों ने श्रीमठ को संभाला। कभी आप वहां जाओगे, तो देखोगे, वह कोई बड़ी जगह नहीं है, किन्तु वह रामानंद जी का मूल स्थान है, वहीं से हम लोग राम भक्ति की गर्जना करते हैं, तो हर जगह सम्मान मिलता है। यदि मैं बोलूं कि मेरा जहां जन्म हुआ था, वहीं श्रीमठ को ले चलता हूं, तो यहां जो रामानंदी महंत हैं, वो तो बहुत नाराज हो जाएंगे। बोलेंगे कि हम आपको दंडवत इसलिए नहीं कर रहे थे कि आप श्रीमठ को अपनी जन्मभूमि ले जाओ, दंडवत इसलिए कर रहे थे कि आप श्रीमठ में झाड़ू लगाते हो।

बिहार में मेरे एक बड़े भक्त हैं। बात बड़ी जोरदार करते हैं। होटल के मालिक हैं। खूब धार्मिक हैं, शायद ही कोई आदमी हो, जो अपनी आमदनी का चौथा भाग धर्म पर खर्च करता हो। वे करते हैं। चौथा भाग राजनीति में, चौथा भाग परिवार में और चौथा भाग व्यापार में खर्च करते हैं। राजा आदमी हैं। उन्होंने मुझे बुलाया, मैं गया। यज्ञ मंडप में उन्होंने मुझे किसी कार्य से बुलाया, कहा, ‘चलिए,’ मैं दंड छोडक़र चल पड़ा, तो उन्होंने कहा, ‘ओह, दंड क्यों छोड़ रहे हैं, इसी को तो हम नमस्कार करते हैं, बाकी आप रामनरेशाचार्य जी तो पहले भी थे। ये दंड स्वामी जी हैं, राम जी हैं, इनको नमस्कार है, इन्हें साथ ले चलिए।’ कितनी बड़ी ज्ञान की बात उन्होंने की। मैंने दंड थाम लिया। तो ऐसा है हमारा संप्रदाय। न कोई परिवारवाद, न क्षेत्रवाद, न जातिवाद, हमने वेदों की नब्ज पकड़ ली है।
जब राम जी और भरत जी निषादराज को, कोल, भिल्लों को गले लगा सकते हैं, तो रामानंदाचार्य जी रविदास को क्यों नहीं अपना सकते? आज भी लोग शुद्रों, दलितों को मुख्यमंत्री बनाने में हिचकते हैं, किन्तु रामानंद जी ने धन्ना जाट को भी ऊंचाई पर पहुंचाया, जिनको लिखना भी नहीं आता था। जो वेद मंत्र नहीं जानते थे, धर्म नहीं जानते थे, शास्त्र नहीं जानते थे, रामायण नहीं जानते थे, लेकिन राम जी को जानते थे।
हमारी भूमि शांति की भूमि है, अमरीका की भूमि नहीं है, पता नहीं आप लोग क्या देखने जाते हो अमरीका? इस मामले में काठियावाडिय़ों की प्रशंसा करनी चाहिए, वे वहां से हीरा लाने तो जाते हैं, लेकिन वहां की रोटी भी नहीं खाते, वश चले तो जल भी अपना ले जाएं, लेकिन यह संभव नहीं है। कल मैंने एक काठियावाड़ी से पूछा, आप वहां क्या करते हो? उन्होंने उत्तर दिया, ‘हम अपना भोजन बनाते हैं, यहीं से बाजारा, आटा, दाल ले जाते हैं। वहां से हीरा लेकर आते हैं, पैसा कमाते हैं।’
आप लोग मुझे इतनी देर से सुन रहे हो, वहां अमरीका के लोग दो घंटा पोप को नहीं सुनते। यहां गरीबों को लालच देकर ईसाई बनाते हैं, यहां हम लोग दक्षिणा लेकर चेला बनाते हैं। दोनों में अंतर है। अभी मैंने दीक्षा दी बहुत से लोगों को, इतना सामान आया कि एक कमरे में अलग से व्यवस्था करनी पड़ रही है। मैं बतलाना नहीं चाह रहा हूं कि कहीं इनकम टैक्स का छापा नहीं पड़ जाए। भले आदमी, जो टॉफी खाकर चेला बनेगा, उसकी टॉफी गल जाएगी, तो उसका शिष्यत्व भी पिघल जाएगा। जगद्गुरु रामानंदाचार्य ने यहां जो प्रयोग किया, इसीलिए यह श्रेष्ठ भूमि है। सनातन धर्म सबको प्रेरित करने वाला धर्म है। यह सर्वश्रेष्ठ धर्म है। क्या रूप है? ईसा मसीह सलीब पर ऐसे लटके हैं, देखकर ही कष्ट होता है।
धन्य हैं, हम लोगों को मनुष्य जीवन मिला और भारत वर्ष का मनुष्य जीवन मिला। दैविक सनातन धर्म का मनुष्य जीवन मिला। वैदिक सनातन धर्म केवल ब्राह्मणों का नहीं है, केवल भारत वालों का नहीं है, किसी भी प्रकार का भेदभाव का नहीं है, सनातन धर्म सम्पूर्ण मानवता का धर्म है। भगवान ने अनादि वेदों को स्मरण किया, उन्हें दुनिया को दिया। केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों को नहीं, सबको दिया। जैसे चंद्रमा को दिया, वायु को दिया। बाद में कई लोगों ने वेदों को तोड़-तोडक़र अपनी पोथी बना ली, ग्रन्थ बना लिए, सब वेदों से लेने को अभिशप्त हैं। किन्तु दुनिया में जितने भी बल्ब बनेंगे, सूर्य से कमजोर ही होंगे। वायु का प्रबंध होगा, तो वह प्रबंध वायु देव के प्रबंध के आकार का नहीं होगा। जो कमरे बनेंगे, उनकी तुलना महा-आकाश से नहीं होगी। बर्तन में रखे पानी की समुद्र से तुलना होगी क्या? समुद्र की तुलना तो समुद्र से ही होगी, आकाश की तुलना तो आकाश से ही होगी। राम जी की तुलना राम जी से होगी और किसी से नहीं। रामानंदाचार्य की तुलना और किसी आचार्य से नहीं होगी, स्वयं रामानंदाचार्य जी से ही होगी। गगन से किसकी उपमा की जाए, गगन के सिवा गगन से और कोई उपमा के लायक नहीं है। सागर से किसकी तुलना की जाए, सागर से। अपनी पानी की टंकी की तुलना सागर से करेंगे क्या?
संतों ने अपने मन को ही कहा, रे मन मूरख। तो हम दूसरे को क्यों कहेंगे, अपने मन को कहेंगे। रामानंदाचार्य ने अदभुत काम किया, मानव जीवन के लिए सनातन धर्म के लिए, किन्तु यह कोई उनका अपना काम नहीं है। पुराने अभिप्रायों से उन्होंने समझा और उसका कृयान्वयन किया। सनातन धर्म में कोई नई बात नहीं कही जाती है, कहा जाता है कि अभिप्राय समझकर इन्होंने व्याख्या की, इसीलिए सभी प्रवर्तक हैं, व्याख्याकार हैं। रामानंदाचार्य जी सभी के हैं। कौन आदमी होगा, जो सत्य को नहीं मानेगा, अहिंसा को नहीं मानेगा, ब्रह्मचर्य को नहीं मानेगा। वेदों ने बड़ी बड़ी बातें कीं। केवल अपने यहां की बात नहीं है। अमरीका के राष्ट्रपति ने वाटरगेट कांड में झूठ बोला, तो अमरीकियों ने ही कहा यह आदमी वाइट हाउस में नहीं रहेगा। अर्थात वहां भी सत्यम वद को महत्व दिया गया। सत्य को ही महत्व देना होगा. हम लोगों को वेदों के आधार पर जीवन मिला है। मनुष्य जीवन जब वेदों के मार्ग पर चले, तभी सच्चा जीवन है।