हमारे यहां कहा जाता है कि प्रेम का उत्पादन भी धन से ही होता है। श्रेष्ठ कर्म भी धन से होते हैं। गीता में भगवान ने कहा, चार तरह से लोग मेरा भजन करते हैं। कुछ लोग कठिनाई दूर करने के लिए। कुछ लोग समृद्ध के लिए। कुछ लोग ज्ञान की प्राप्ति के लिए और कुछ लोग जो सब जान गए हैं, वे भी भजन करते हैं। उनकी योग्यता क्या होनी चाहिए, उनका धर्मात्मा होना जरूरी है। धर्म की सामग्री जिसके पास नहीं है, उसका क्षेत्र ईश्वर तक नहीं जा पाएगा। दुनिया में कई लोग मजाक उड़ाते हैं कि देखिए, दुख हो गया, तो चिल्ला रहे हैं, किन्तु दुनिया में करोड़ों दुखी ऐसे भी हैं, जिनके मुंह से एक बार भी नहीं निकलता है कि हे ईश्वर मेरा दुख दूर करो। वह तभी निकलेगा, जब धर्म की प्रतिष्ठा होगी।
जैसे पैसे से पैसा कमाया जाता है, बड़ी रकम होगी, तभी न फैक्टरी खुलेगी, बड़ी रकम होगी, तभी तो ठेका मिलेगा, वैसे ही धर्म से धर्म कमाया जाता है। आज धर्म कमाने वालों की कमी होने लगी है। साधु भी अब यही सोचने लगे हैं कि शिष्य बस लिफाफा दे दें, फिर जो मन में आए करें।
एक शिष्य ने अपने गुरु से कहा, ‘वह अमीर तो आपकी निंदा कर रहा था। जबकि आप उसे कितना मानते हैं।’
गुरु ने कहा, ‘अरे ऐसी निंदा का क्या? वह समय-समय पर हमें धन भेज देता है, गाड़ी भेजता हूं तो उस पर लकड़ी लादकर भेज देता है, हमें और क्या? निंदा करना है, तो करो।’
वस्तुत: यह तो भोग हो गया। महात्मा भी भोग में लग गए हैं। लेकिन किसी को यदि यह आकांक्षा हो कि यश हो, प्रेम भी बढ़े, तो धार्मिक होना पड़ेगा। जैसे लोग समय-समय पर शरीर की जांच करवाते हैं, ठीक उसी तरह से धन बढऩे पर यह टेस्ट करना चाहिए कि धन का उपयोग, विनियोग कहा हो रहा है, अगर सही हो रहा है, तो समझना चाहिए कि धन हमें देवता बनाने के लिए आया है।
पैसे का उपयोग सही होना चाहिए और मुझे पता है यह कैसे होता है। मैं पूछता हूं, बिड़ला ज्यादा धनवान हैं या हम। बिड़ला जी को धर्म का क ख ग नहीं आता, किन्तु मैं धर्म का मास्टर हूं। प्रयोग भी करता हूं। आप मंदिर बना लो, लेकिन आप लोगों को नहीं कह सकते कि मंदिर आओ। मैं ही लोगों को कहूंगा कि लक्ष्मी नारायण जी का मंदिर है, जाओ, वह नहीं कह सकेंगे। मेरा धर्म बड़ा धर्म है, उनको छोटा है। मुझे एक रुपया मिलता है, तो धर्म में सवा रुपया खर्च करके पचीस पैसा कर्ज में रहता हूं। दुनिया का कौन धनी ऐसा करता होगा? अभी भी मुझ पर कर्ज है। हमारी बराबरी अमीर करेंगे क्या? दो-दो रुपए जोडऩे वाले, जगह-जगह से दो रुपए बचाने वालों से मेरी क्या तुलना?
धन आने में कोई दिक्कत नहीं है, धन का विनियोग सही होना चाहिए। धन केवल पत्नी पर खर्च करने के लिए नहीं है, माता-पिता में भी लगे। माता-पिता की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
दुनिया में जितने लोग हैं, सब हिन्दू धर्म के आंशिक अनुवाई हैं। हम उस धर्म के अनुवाई हैं, जिससे कोई बच नहीं सकता। हमारा धर्म बनावटी नहीं है, नैसर्गिक है। मैं आपको उदाहरण देता हूं, आप कहीं जा रहे हैं, एक दुर्घटना हुई, किसी को चोट लगी, वह सडक़ पर पड़ा तड़प रहा है, खून से लथपथ। तब क्या आपको कुछ-कुछ होता है, यही दया है। हमें यह नैसर्गिक शक्ति मिली हुई है। कोई तड़प रहा है, तो हमारे मन में आता है कि ओह, इसका दुख दूर हो जाता। भले हम डॉक्टर न हों, सर्जरी नहीं कर सकते हों, लेकिन लगता है कि काश! तड़पने वाले का दुख-दर्द दूर हो जाता।
धर्म नैसर्गिक शक्ति का नाम है। धर्म नहीं होता, तो बूढ़े, बुजुर्गों को कौन संभालता? धर्म नहीं होता, शादी-विवाह, भाईचारा कहां से होता? पश्चिम में क्या है? काम पूरा किया और वस्त्रहीन होकर समुद्र किनारे लेट गए, ऐसे दुनिया चलेगी क्या? धर्म करना जरूरी है। धर्म चर्चा जरूरी है।
अभी जो सुख हम ले रहे हैं, यह ऐतिहासिक क्षण है, धर्म चिंतन का क्षण है। कल पता नहीं, हममें से कौन रहेगा, कौन नहीं रहेगा। यह भी देखिए, अभी इसी समय कई लोग गिट्टी डाल रहे हैं। हम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के श्रेष्ठ भाव का चिंतन कर रहे हैं। उधर, हमारे सामने मजदूर काम कर रहे हैं, वे भी अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, लेकिन उनका जीवन उतना श्रेष्ठ नहीं है। हालांकि वे भी धार्मिक हैं, वे निर्माण कर रहे हैं। उन्हें ईश्वर भक्त कहने में कोई हर्ज नहीं है।
विष्णु पुराण के एक श्लोक का भाव मैं आपको सुनाता हूं। अगर कोई अपने कत्र्तव्य का सही तरीके से पालन करता है, तो वह भगवद् सेवा कर रहा है। वह डंके की चोट पर कहे कि मैं किसी पुजारी से कम नहीं हूं, उसे सद्गति मिलेगी ही मिलेगी। उसकी मानवता पूर्ण विकसित होगी ही होगी, क्योंकि वह भी धर्म का पालन कर रहा है।