सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।

द्वादश महाभागवत ( शिष्य )

अनन्तानन्दाचार्य

अनन्तानन्द पद परसि कै लोक पाल से ते भए । ।

योगानन्द गयेश करमचन्द अल्हपैहारी ।

सारी रामदास श्री रंग अवधि गुण महिमा भारी । ।

तिनके नरहरि उदित मुदित महामंगल तन , रघवर यदवर गाय विमल कीरति संच्यौ धन । ।

हरि भक्ति सिन्दु वेला रच्यो पाणिपद्म जा शिर दए ।

अनन्तानन्द पद परसि कै लोकपाल सेते भए । ।

( भक्तमाल श्री नाभाजी कृत ) श्री स्वामी अनन्तानन्दाचार्य के श्रीचरण – कमलों का स्पर्श करके अर्थात् उनके शिष्य , सेवक एवं शरणागत बनकर वे लोकपालों के समान भक्ति एवं भक्तजनों का पालन करने वाले हुए । जिनमें प्रधान ये हैं – श्रीयोगानन्द जी , श्री अल्ह जी , श्रीपयोहारी जी , श्रीरामदास जी , और श्रीरंग जी । ये सभी परम प्रतापी एवं उत्तम गुणों की सीमा हुए । उनके शिष्य के रूप में परम प्रसन्न श्रीनरहरि का उदय हुआ । ये निरन्तर भक्ति की वर्षा करने वाले मेघ के समान मंगलमय शरीर धारण करने वाले हुए । श्री अनन्तानन्दाचार्य जी ने एवं उनके शिष्य प्रशिष्यों ने श्रीरामचन्द्र जी एवं श्रीकृष्ण जी का निर्मल यश गान करके पवित्र कीर्तिरूपी धन का संग्रह किया । श्रीअनन्तानन्दाचार्य जी भगवद्भक्तिरूपी समुद्र की मर्यादा थे । श्रीहरिभक्ति सिन्ध वेला ‘ नामक ग्रन्थ की रचना की । पदमजा श्रीजानकी जी ने आपके सिर पर अपनाउसके सिर पर अपना श्रेष्ठ भक्त हो गया । की गोचारण लीला से वरद हस्त – कमल रखकर आशीर्वाद दिया और आपने जिसके सिर पाणि – पद्म रखा , वह हरिभक्तिसिन्धु की मर्यादा अर्थात् श्रेष्ठ भक्त होगा । श्रीमदभागवत में यह कथा प्रसिद्ध है कि – श्रीकृष्ण की गोचारणही मोहित हो स्वयं ब्रह्मा को मर्त्यलोक पर आना पड़ा था । सरवार प्रदेश में अयो निकट ‘ हेशपूर ‘ नामक ग्राम में पं . विश्वनाथ मणि त्रिपाठी नामक घना धनाढ्य तपस्वी बाहह्मण – बालक ने तेरह वर्ष की अवस्था में कठोर तपस्या से सरस्वती को साक्षात्कार किया तथा वरदान में उनकी अनुपम रूपराशि पर मोहित होकर मार प्रसंग की याचना कर बैठा । जिस रूपराशि से मोहित होने के कारण ब्रह्मा को अपना मोहग्रस्त शरीर त्यागना पड़ा था , उसी दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी सरस्वती उन्हें यह वरदान ” तुम्हें लौहयुवक न्याय से एक क्षण के लिए वरूँगी तथा ब्रह्म से एक पुत्र को उत्पन्न कर अन्तर्हित हो जाऊँगी और तुम मेरे वियोग में प्राण त्याग करोगे ” देकर अन्तर्हित हो गयीं । कुछ दिनों के बाद साऊँग्रामवासी पं . विशालदेव शुक्ल के घर कन्यारूप में भगवती का अवतार हुआ तथा सयानी होने पर पं . विश्वनाथमणि त्रिपाठी के साथ विवाह सुसम्पन्न हुआ । विक्रम संवत् १३६३ के । कार्तिक पूर्णिमा , दिन शनिवार , कृतिका नक्षत्र में नदी में स्नान करते समय धारा में | प्रसव हुआ तथा पुत्र को वनदेवियों को सौपकर स्वयं अन्तर्हित हो गयी । पं . विश्वनाथ विरह में विक्षिप्त रहने लगे । साथ ही कुछ ही वर्षों के बाद पुत्र को एक गोप – स्त्री को सौपकर स्वर्ग सिधार गए । गोप – दम्पत्ती के संरक्षण में पालित शिश ‘ छुन्नू ‘ पाँच साल की अवस्था में ही गोचारण करने जाया करता था । एक दिन वन प्रदेश में मोहक वंशीध्वनि का अनुसरण करता हुआ , वहाँ पहुँचा , जहाँ एक मनोहर श्याम शिशु वंशी बजाकर अपनी श्यामा गायों को चरा रहा था । परिचय के क्रम में । इसने अपना नाम ‘ संवरू ‘ बताया । इस प्रकार बालक छन्न की बाल लीलाएँ साक्षात् । परब्रह्म के साथ होती रही । लीला के क्रम में कलि में द्वापर की अवतारणा नित्यप्रात । होती रही । एक शाम छन्नू संवरू के घर जाने का हठ करने लगा । इस बालक को क्या मालूम कि व्यापक परमेश्वर का सारा ब्रह्माण्ड ही घर है । अस्त संवरू उस । लेकर गोवर्धन पर्वत पहुँचा । उसके स्वागत में वहाँ विभिन्न लीलाओं तथा कथा का । आयोजन किया था । श्रीमद्भागवत की कथा श्रवण करते हए ब्रह्मा के मोहप्रसंग में । छन् अचानक ही मूर्च्छित हो गया तथा लीला नागर अपनी लीलाओं को समेट कर । अन्तर्हित हो गए । होश आने पर छन्नू ने स्वयं को एक बीहड़ जंगल में पाया । अब भा । उसकी चेतना संवरू के प्रति आकृष्ट थी । यहीं यमुना के किनारे पं . श्याम किशोर जीसे उसकी भेंट हुई । पण्डित जी ने पुत्रवत् स्नेह करते हुए छन्नू को उपनयन संस्कार के बाद वेद – वेदांग पढ़ाकर महान् विद्वान् बना दिया । छत्रू ने पण्डित जी द्वारा प्रस्तुत विवाह – प्रस्ताव को शिष्टता पूर्वक अस्वीकार कर दिया । तथा भगवच्चर्चा में लीन रहने लगे । पं . श्याम किशोर जी भी शिष्य की प्रतिमा एवं भक्ति से प्रसन्न थे । इसी बीच तुगलन्दराज के सेनापति द्वारा चढ़ाई किए जाने पर आप दोनों गुरु – शिष्य अयोध्या होते हुए काशी आकर विद्वन्मण्डली में सप्रतिष्ठित हो गए । पं . छन्नूलाल जी विश्वनाथ मन्दिर के निकट ब्रह्मपुरी मुहल्ले में रहते थे ।

बाल्यावस्था में प्राप्त भगवान् की अहेतुकी कृपा से भावी भगवत्कृपा पर छन्नू का विश्वास दृढ़ था । महाशिवरात्रि का रात्रि – जागरण प्राचीनकाल से प्रचलित है । इसी रात्रि को विलक्षण शंख – ध्वनि को सुनकर छन्नूलाल की रही – सही भावनाएँ भी नष्ट हो गयीं । सात्त्विक वृत्तियों का उद्रेक हुआ और वे शंख – ध्वनि के उद्गम – स्थल पंचगंगा घाट पर स्थित श्री रामानन्दाचार्य जी के श्रीमठ पर पहुँच गए । आचार्य श्री का दर्शन होने पर उनकी आज्ञा से काशी के प्रकाण्ड विद्वान् छत्रूलाल भक्तिपूर्वक आश्रम की सफाई के साथ ही हृदय की भी सफाई करने लगे । भक्तिपूर्वक एक साल की निरवच्छिन्न सेवा से प्रसन्न होकर आचार्य श्री ने इन्हें गुरुदीक्षा प्रदान कर कृतार्थ किया । यही से पं . छन्नूलाल ‘ अनन्तानन्द ‘ के नाम से प्रसिद्ध हुए । अब वे अधिक तत्परता के साथ गुरु तथा आश्रम की सेवा करते हुए गुरु प्रसाद से बिना किसी साधन के ही जीवन मुक्त हो गए । एक बार दोपहरी में आकाश – मार्ग से सिद्धसन्त आश्रम पर पधारे । श्री अनन्तानन्द जी ने उन सिद्धों का स्वागत उसी ढंग से किया । अधर में ही आसन देकर , पैर धोकर उन्हें अधर में ही बैठाया । स्वामी जी के इस कृत्य ने सिद्धों को चमत्कृत कर दिया । जब कोई प्रतिष्ठित या सिद्धसन्त स्वामी जी के दर्शनार्थ आते दर्शन में बिलम्ब होता तो आप सत्संग के सुशीतल जल से उनका मार्गश्रम दूर किया करते थे । आप गुरु जी के मनोभावों के अनुकूल बर्ताव करते थे , आश्रम में आगन्तुकों के मनोभावों को बिना बताये ही आप जान जाया करते थे । ऐसी अन्तर्यामिता दूसरों के लिए अगम्य थी । काशी के पण्डितों को परास्त पर पाण्डित्याभिमान से परिपूर्ण एक काश्मीरी मीमांसक स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने आया , किन्तु इनके निरभिमानी स्वभाव से पराभूत होकर इनके चरणों का दास हो गया । स्वामी रामानन्दाचार्य जी नित्य पायस सेवन किया करते थे । एक दिन दध । न मिलने के कारण अनन्तानन्द जी बहुत परेशान थे । इसी बीच उनके बालसखा श्रीकृष्ण संवरू रूप में ही उन्हें दूध दे गए । उससे निर्मित पायस में दिव्य स्वाद अनुभव आचार्य जी ने किया तथा मर्म जानकर अनन्तानन्द जी पर बहुत प्रसन्न हा ब्रह्मा की तृष्णा ने ही उन्हें अनन्तानन्द के रूप में कर्मजाल में डाल दिया था । उनका लालसा पूर्ण हुई । परब्रह्म ही उन्हें गुरुरूप में प्राप्त हुए । गुरूपदेश से उन्हें उन सभी अवस्थाओं का ज्ञान हो गया , जिनका ज्ञान केवल शिवजी को था । साथ ही उनके द्वारा लोकोपकार हुआ । जिस प्रभु ने उन्हें बचपन में खेलाया , वे ही युवावस्था में । गुरुरूप से प्राप्त हुआ । फिर सिद्धि उनकी दासी क्यों न बने ? एक बार गुरुजी की आज्ञा से कबीर के लिए जड़ी हेतु उन्हें गंगा पार जाना । पड़ा , जहाँ किरातवेश में षडक्षर मंत्रराज तारकब्रह्म के परमनिष्ठ जापक श्री स्वामिकार्तिकेय । जी ने दर्शन देकर दिव्यौषिधयों का ज्ञान कराया । श्रीरामानन्दाचार्य जी की दिग्विजय । यात्रा में भी अनन्तानन्द जी ने अनेक चमत्कारपूर्ण कौतूहल दर्शाये हैं । एक बार समुद्र में स्नान करते समय पैर फिसल जाने के कारण अथाह जल में वे बह गये , जहाँ साक्षात् लक्ष्मी जी ने उनकी रक्षा की तथा अविरल भक्ति , तीव्रतम वैराग्य एवं सम्यग् ज्ञान का वरदान देकर तिरोहित हो गयी । इस घटना की चर्चा उन्होंने स्वरचित ‘ श्री हरिभक्तिसिंधुवेला ‘ नामक ग्रन्थ में की है । दक्षिण भारत में साम्प्रदायिक उपद्रवों की शान्ति भी स्वामी जी के शान्तिप्रद विचारों का ही परिणाम था । कबीर और रैदास के कारण उपद्रव मचाने वाले दक्षिणी द्विजों के दुराग्रहों को दमन करने के लिए स्वामी अनन्तानन्द जी ने धर्म चलाया था । स्वामी जी ने गागरौनगढ़ और विजयनगर के राजसिंहासनों पर त्याग और अनुराग को प्रतिष्ठित किया । स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य जी के सांकेतवासी होने पर आपको वैष्णवाचार्य के पीठ पर अभिषिक्त किया गया । किन्तु गुरुविरह को सहन न कर सकने के कारण एक वर्ष के बाद ही अपने वरिष्ठशिष्य पयोहारी कृष्णदास जी को आचार्य पीठ पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं स्वच्छन्द परिभ्रमण हेतु चल पड़े । इस बीच आपने । श्रीजामवन्त जी का भी दर्शन किया । आपने एक जैनी को वैष्णव दीक्षा दी , जो श्रीरंग । के नाम से प्रसिद्ध हुआ । आपने शरणागत अल्ह , गजेश और पयोहारी को भी दीक्षा । दी । तत्पश्चात् परिभ्रमण करते हुए स्वामी श्री अनन्तानन्द जी काशी पंचगंगा घाट पर । स्थित श्रीमठ में आये तथा गुरुपादपीठ का दर्शन करते हए ११३ वर्ष की आयु म योगाग्नि में अपने शरीर का अन्त कर साकेत गमन किए । उनमें स्थित ब्रह्मा । चतुर्मुख ब्रह्मा में लीन हो गया । ८२

सुखानन्दाचार्य

भक्ति दस भए हरण भुज सुखानन्द पारस परस । ।

सुख सागर की छाप राग गौर रुचि न्यारी ।

पदरचना गुरु मंत्र मनो आगम अनुहारी । ।

निशिदिन प्रेम प्रवाह द्रवत भधर ज्यों निर्झर ।

हरिगुरु कथा अपार भाल राजत लीला भर । ।

भक्ति दान भए हरण भुज सुखानंद पारस परस । ।

( श्री नाभा स्वामी ) उज्जैन के समीपस्थ ग्राम किरीटपुर के निवासी पं . त्रिपुरारि भट्ट की धर्मपत्नी जाम्बुवती संतान – हीन होने के कारण सास से तिरस्कृत होकर अपनी मायके काशी आ गयी तथा यहीं रहती हुयी अपनी कठोर साधना से भगवान् शंकर को प्रसन्न कर उनके समान पुत्र प्राप्ति का वर प्राप्त किया । तदनन्तर वह पतिगृह आ गयी थी और सद्गृहस्थ के धर्मों का विधिवत् पालन करती हुई वैशाख शुक्ल नवमी तिथि को प्रसव पीड़ा के बिना ही पुत्र – रत्न को जन्म दिया । जन्म से ही बालक में अलौकिक गुणों का दर्शन विज्ञों को होता था । बालक के मस्तक पर द्वितीया की चन्द्राकृति बनी हुयी थी । जिससे कभी – कभी दिव्य प्रकाश प्रसारित होता था , बालक का नाम चन्द्रहरि ‘ रखा गया । बालक की आँखें सदा धर्म उन्मीलित ही रहती थीं । ऐसा हो भी क्यों नहीं ? प्रकृति में वह सामर्थ्य ही नहीं थी , जो बालक के पूर्ण उन्मीलित नेत्र ज्योति को सहन कर सके । महाकालेश्वर से इसका रहस्य जानकर एक सिद्ध माली श्रीनाभा स्वामी रचित भक्तमाल के आधार पर . ने उनके माता – पिता को इसका रहस्य बताया , पर वे अभिप्राय न समझो बालक के साथ घटित अलौकिक घटनाओं से सभी लोग प्रभावित थे । धीरे बालक चलने – फिरने लगा । एक दिन समीपस्थ विष्णु मन्दिर में जाते ही लगने के कारण चन्द्रहरि गिर पड़े , तो एक अपरिचित बालक ने उन्हें गोद में लिया । इसी दिन आपने पूर्ण उन्मीलित नेत्र से उस बालक को देखा । सदाशिव पूर्ण स्फुट नेत्र – ज्योति को सहन करने वाला कोई साधारण बालक नहीं था , अपित स्वयं भगवान् राम ही थे । एक दैवज्ञ ने इनके मस्तक को देखकर इन्हें १२ वर्ष तक नदी स्नान , कुंआ में झांकना , देखना आदि कार्यों से वर्जित किया था । अत : ये कहीं आते – जाते नहीं थे । मानों इन्होंने बचपन में ही सारी इच्छाओं को वश में कर लिया था । आठ वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार के बाद उनको पाठशाला भेजा गया । उन्होंने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से गुरु को चकित कर दिया । सभी विद्याओं का ज्ञान उनको जन्मजात ही था । शास्त्रार्थ में अपने दादा को परास्त करने वाले पण्डित रंगराज दीक्षित को बारह साल की अवस्था में ही परास्त कर दिया । इनकी विजय के उपलक्ष में सभी लोग उत्सव मना रहे थे , किन्तु उन्हें यह विजय रास नहीं आयी । सुविस्तृत जलपूर्ण कठौता में खाली ताम्रपात्र को तैरता हुआ देखकर , जो जल भरने से धीरे – धीरे डूबा जा रहा था , इन्होंने स्वयं को मायाजाल से फँसता हुआ महसूस किया । यहीं पर जल में वे अपना प्रतिबिम्ब पूर्णस्फुटनेत्र से देखकर स्तब्य रह गए । आज उन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया था । वे हठपूर्वक माता – पिता से आज्ञा लेकर काशी के लिए चल पड़े । एक पंचोली इनकी रक्षा हेतु अव्यक्त रूप से नियुक्त था । रास्ते में एक रमणी , जो योग माया थी , ने आपको पथभ्रष्ट करने की कोशिश की । किन्तु यथासमय पंचोली द्वारा पंचामृत और तुलसी पाकर आप रक्षित हुए और यहीं आपने महाप्रसाद का महत्त्व जाना । ठाकुर के प्रति सहज अनुराग का उद्रेक हुआ । तत्पश्चात् भगवद्भजन करते हुए , अनेक सिद्ध सन्तों का दर्शन – सत्संग करते । हुए कई दिन की दुःसाध्य यात्रा के बाद आप प्रयाग पहुँच गए । संगम पर काशी के । एक सिद्ध संन्यासी रमाभारती विराज रहे थे । कुमार चन्द्रहरि की तेजस्वी मुखाकृति । से आकृष्ट होकर उन्होंने कुमार को एकाक्षरी विद्या तथा अष्टांगयोग सिखाया । संन्यासी । महात्मा के साथ ही आप काशी आ गए । गंगा – किनारे घूमते हुए आपकी भेट सिद्ध सन्त रोली से हुयी । आपकी साधना तथा तेजस्विता से सभी प्रभावित हुए । उन्हीं की । सलाह पर आप नीचीबाग के एक पुराने मकान में रहकर साधना करने लगे , जो लम्बे समय से बन्द पड़ा था । सुनसान भवन में तपःरततरुणयोगी की प्रशंसा कर दर्शनार्थियों और भक्तों की भीड़ लगने लगी । पंचोली द्वारा सूचना प्राप्त कर की माता जी भी आयीं तथा पुत्र के विवेकपूर्ण सान्त्वना वचन से संतुष्ट होकर वह वापस हो गयी । माता अपनी तपस्या के फल से कृततत्य हो गयी । कछ दिन बाद जनता का आवागमन बन्द कर आप एकान्त वास करने लगे । इस बीच कुछ विचित्र घटनाओं से एक दिन चिन्तित होकर बैठे थे कि महर्षि अजीक ने दर्शन देकर पंचगंगाघाट के श्रीवैष्णवाचार्य जगदगुरु रामानन्दाचार्य के शिष्य बनने की प्रेरणा दी ।

आप संन्यासी महात्मा श्रीरमाभारती के साथ श्रीमठ में आचार्य श्री के दर्शन हेतु गए । गंगा – स्नान के बाद विन्दुमाधव का दर्शन कर आचार्य श्री का दर्शन किया तथा पूर्ण शरणागति के साथ गुरुदीक्षा की याचना की । चन्द्रहरि में शिष्यत्व की योग्यता देखकर आचार्य श्री ने उन्हें वैष्णवी दीक्षा दे दी । यहीं से आप ‘ सुखानन्द ‘ के नाम से प्रख्यात हुए । आचार्यश्री की आज्ञा पाकर आप रमाभारती जी के साथ चित्रकूट के लिए प्रस्थित हुए । महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के पास बहती हुई नदी की स्वच्छ धारा पर एक अलौकिक शिशु प्रकट हुआ तथा सुखानन्द जी को सांकेतिक भाषा में कुछ निर्देश देकर अन्तर्हित हो गया । यहाँ से चलकर आप प्रयाग होते हुए चित्रकूट पहुँचे । चित्रकूट में कुछ दिन रहकर भारती जी काशी वापस आ गए और स्वामी सुखानन्द जी रामशय्या पर रहकर भजन – सत्संग करने लगे । एक दिन तेजस्वी गौरांग दिगम्बर सन्त इनकी कुटिया पर आये और स्वामी जी को साथ लेकर घूमते हुए कामदगिरि गए । पहाड़ी पर चढ़ते हुए एक जगह आप दोनों कुछ क्षण के लिए रुके किन्तु वहाँ से आप आगे न बढ़ सके । आपका शरीर स्तब्ध हो चुका था और आप वहीं लुढ़क गए । प्रात : एक मौनी सन्त ने आपको उठाने की बहुत चेष्टा की पर आप न उठ सके । उसी समय एक तेजस्वी सन्त ने आकर आपके कान में कुछ कहा तो आप उठे और सन्तों की सहायता से अपनी कुटिया पर पहुंचे । कुटिया पर सन्तों के साथ स्वामी जी का अपूर्व सत्संग हुआ । आनन्दातिरेक ने ‘ सुखानन्द ‘ नाम को सार्थक कर दिया । एक यक्षदम्पती , जो लोमशमुनि के शाप से पक्षी बनकर चित्रकूट में रह रहे थे , उनका उद्धार भी आपने किया तथा वैष्णवी दीक्षा के लिए काशी भेज दिया । स्वामी रामानन्द जी से दीक्षा प्राप्त कर वे पुन : चित्रकूट लौटे और स्वामी जी की सेवा करते हुए भजन करने लगे । यहीं आपने एक बगदादी यवन को दिव्यज्ञान के पास आया । उस समय न हो गया । स्वामी जी कराया । घूमते – घूमते एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण स्वामी जी के पास आया । स्वामी जी रामधुन में मस्त थे । वह ब्राह्मण भी उसी धुन में मस्त हो गया । के पर्व परिचित तपस्वी बाबा भी आये और उस अलौकिक दृश्य को देखकर रम गए । प्रेम – आनन्द का अद्भुत प्रवाह प्रवाहित होने लगा । इसी तरह स गयी , पर उनका ध्यान तब भंग हुआ , जब एक गौरांग बालक ने इन्हें आकर किया । ध्यान भंग होने पर बालक की अनुपम रूपराशि में ही तीनों सिद्ध खो । बालक यह कहकर कि ” तुम हनुमान धारा पर कभी मत जाना , तुम वहाँ बचन सकते ” अन्तर्हित हो गया । उस बालक के जाने पर स्वामी जी सन्तों के साथ सहर करने लगे । किन्तु दूसरे ही दिन से उनकी दिनचर्या में परिवर्तन हो गया । वे मुहूर्त में ही स्नानादि से निवृत्त हो , अपनी गुफा में बैठकर भजन करने लगते . कि से मिलते – जुलते नहीं । इस प्रकार तेरह साल की साधना के बाद वे बाहर निकले । इन दिनों क्या कुछ घटनाएँ उनके साथ घटित हुईं , इस विषय में किसी को जात नहीं । तत्पश्चात् आप स्वच्छन्द , परिभ्रमण के लिए निकल पड़े । जन – सामान्य को अपने दर्शन और सत्संग से कृतार्थ करते रहे । स्वामी जी की भक्तमण्डली कोल किरातों की थी । आपकी सेवा में एक ब्राह्मण रहता था । जो आपके सत्संगभाव से । ज्ञानी हो गया था । एक दिन अचानक स्वामी जी गोदावरी की गुप्त गुफा में प्रवेश कर गए । उन्हें खोजने हेतु एक व्यक्ति मशाल लेकर भीतर गया , किन्तु मशक – दंश से पीड़ित होकर बाहर आ गया और रुग्ण रहने लगा । मरणासन्न होने पर उसने स्वामी जी का ध्यान किया । स्वामी जी ने उपस्थित होकर अपने स्पर्श से उसे नीरोग कर दिया और उसकी प्रार्थना पर पुनः रामशय्या पर आकर रहने लगे । यक्षदम्पती ने आकर स्वामी जी के दर्शन किए । उनकी प्रार्थना पर आप विपुल देवांगनाओं को दर्शन देने हेतु अनन्त कोटि पधारे । यक्ष दम्पती के सत्सङ्ग से उन्हें अध्यात्म – विद्या का ज्ञान हो गया था । उन्हें अपने उपदेशामृत से कृतार्थ कर आनन्दातिरेक में शरीर की सुधि को बिसारे हुए वापस हो रहे थे , तो रास्ता भटक कर वर्जित स्थान हनुमान धारा पहुँच गए । वहाँ मारुतिनन्दन हनुमान् जी ने इन्हें विराटरूप में दर्शन दिया जिसे देखकर आप भयभीत हुए । आपने गुरुदेव का ध्यान किया तो जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य जी ने आपको दर्शन दिया तथा उन्हीं की आज्ञा से योगाचार्य जी ने आपको दर्शन दिया तथा उन्हीं की आज्ञा से योगाग्नि के द्वारा आपने अपने शरीर का त्याग कर साकेतलोक के लिए प्रस्थान कर गये ।

महाभागवत स्वामी श्रीसुरसुरानन्दाचार्य

महिमा महाप्रसाद की सुरसुरानन्द सांची करी । ।

वा चलत बरा वाक छल पाये ।

देखा देखि शिष्य तिनहु पीछे ते खाये । ।

तिन पर स्वामी खिझेबमन करिविन विश्वासी ।

तिन तैसे प्रत्येक भमि पर कीनी रासी । । ।

सुरसुरी सुबह पुनि उदगलै पुहुप रेण तुलसी हरी ।

महिमा महाप्रसाद की सुरासुरानन्द सांची करी । ।

महासती सत उपमा त्यों संत्त सुरी को रह्यो ।

अति उदार दम्पत्ति सुमेह तजि बन गो गवने ।

अचरज भो तहँ एक संत सुनि जिनि हो बिमने ।

बैठे हुते एकान्त आइ असुरन दुख दीन्ह्यो ।

सुमिरे सारंगपाणि रूप नरहरि को कीन्ह्यो । ।

सुरसुरानन्द जी घरनी को सतराख्यो नरसिंह ज्यो ।

महासती सत उपमा सन्त सुरसरी को रह्यो । ।

( श्री नाभा स्वामी ) परम भागवत , ब्रह्मापुत्र नारद मुनि को एक बार विवाह करने की अत्युत्कट इच्छा जागृत हुयी । किन्तु भक्तवत्सल भगवान् ने उस समय उनकी इच्छा को पूर्णन होने दिया । इसी इच्छा की पूर्ति हेतु भगवत्प्रेरणा से कलियुग में उन्हें मर्त्यलोक मे आना पड़ा । लखनऊ के पास ‘ पैखम ग्राम के निवासी पं . सुरेश्वर शर्मा परमज्ञानी धर्मनिष्ठ , गोब्राह्मणसेवी , सरल प्रकृति के ब्राह्मण थे । उनकी धर्मपत्नी भी हर तरह से उनकी अनुगामिनी थी । भला परमभागवत नारदमुनि को मर्त्यलोक में इससे सुन्दर घर – परिवार अन्य कौन मिला । वैशाख कृष्ण , नवमी , गुरुवार वसन्त ऋतु की मंगल बेला में पं . सरेश्वर शर्मा की पत्नी ‘ सरला ‘ के गर्भ से पुत्र रूप में महाभागवत नारद मुनि का प्राकट्य हुआ । जैसा कि उल्लेख है जातः सुरसुरानन्दो नारदो मुनिसत्तमः । वैशाखसितपक्षस्य नवम्यां स वृषे गुरौ । । ( अं . सं . १३२ । २९ ) जन्म में ही इनके साथ आश्चर्य जनक घटनाएँ होने लगीं । जन्म के समय साधारण बच्चों जैसा क्रन्दन न हुआ , अपित संगीत की सुमधुर रागिणी उच्चरित हुयी । सभी लोग निहाल हो गए । बच्चे का नाम सायण रखा गया । काल – चक्र के आठ वर्षों की अवधि को पूरा किया । इस बीच बालक के प्रत्येक जन्म – दिवस पर उसके मातुल के रूप में एक दिव्य विभूति आकर बालक को आशीर्वाद दिया करती थी । उपनयन संस्कार में भी बिना बुलाये ही वह दिव्य विभूति प्रकट होकर अपने अमोघ आशीष से बालक को कृतार्थ कर गयी । उपनयन के बाद बालक सायण लगातार गायत्री का अनुष्ठान करने लगा । इस काल में राम धुनि भी होने लगती , जिसे आबाल – वृद्ध प्रभावित थे । जब मंत्रों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी तो वेद माता गायत्री के प्रताप से बालक को समस्त श्रुतियों का ज्ञान स्वयं ही हो गया । इनकी तपस्विता से प्रभावित होकर एक विप्र कन्या इन पर आसक्त थी , जिससे इनके अनुष्ठान में कुछ व्यवधान होने लगा , किन्तु ठीक समय वही दिव्य विभूति , जो साक्षात् भगवान लक्ष्मीनारायण ही थे , ने इन्हें सचेत किया और उनकी ही आज्ञा से वे काशी आ गए । विप्र कन्या भी इनकी अनुगामिनी होकर काशी आ गयी । गंगा – स्नानार्थ वे पंचगंगाघाट पर पधारे , जहाँ श्रीमठ में स्वामी रामानन्दाचार्य जी का सदुपदेश हो रहा था । एक सत्संग प्रेमी को इससे सुन्दर खुराक और कहाँ प्राप्त होगी ? अत : उनका मन श्रीमठ में रम गया और वहीं वे भक्ति – भजन करने लगे । आचार्य श्री की अनुकम्पा से सायण का मोह भंग हुआ था चर्चित दिव्य – विभूति का रहस्य भी ज्ञात हुआ । विप्र कन्या ‘ सुरसुरी ‘ भी यहाँ आ चुकी थी । अत : आचार्य ने शरणागत सायण और सुरसुरी को दीक्षा दी । यहाँ से सायण स्वरसारानन्द ( सुरसुरानन्द ) के नाम से विख्यात हुए । आचार्य श्री की आज्ञा औवे सरसरी के साथ धूमधाम से विवाह – संस्कार सम्पन्न किए । कुछ काल तक घर हने के बाद माता – पिता से आज्ञा लेकर वे सपत्नी भजन हेत अरण्य – वास के लिए चले गए । वहाँ साधना – क्रम में अनेक प्रकार से उनकी परीक्षा ली गयी , किन्तु श्रीमति सुरसुरानन्द सभी प्रकार से सफल रहे । एक रात्रि कोई यवन सरसरी के सौन्दर्य से आकृष्ट हो उसका अपहरण करने आया , किन्तु ठीक समय पर व्याघ्ररूपधारी भगवान ने यवन को मारकर उसकी रक्षा की इसके बाद सुरसुरी , जो स्वयं भगवान् की योगमाया थी , अपने तथा सुरसुरानन्द के मर्त्यलोक आगमन का रहस्य बताकर वैकुण्ठ धाम चली गयी । सुरसुरानन्द भक्ति – सत्संगति का प्रसाद बाँटते हुए परिभ्रमण करने लगे । इनकी भक्ति – विरक्ति से प्रभावित होकर अनेक सद्गृहस्थ तथा सन्त – महात्मा इनके शिष्य हो गए । जिनमें रहस्यानन्द , कुमारानन्द , चिद्घनानन्द , रसिकेन्द्रदास आदि विरक्त शिष्य प्रसिद्ध हैं । स्वामी सुरसुरानन्द जी अपनी सरल प्रकृति से सभी इच्छाओं का पालन करते थे । एक बार एक पाखण्डी वैष्णव मांस युक्त बरा में तुलसीदल रखकर स्वामी जी को अर्पित किया ।

स्वामी जी ने उसे महाप्रसाद के रूप में ग्रहण किया उनके भाव अलग – अलग थे । स्वामी जी ने बरा का रहस्य खोलकर शिष्यों को वमन कराया तो मांस युक्त बरा निकला , किन्तु स्वामी जी ने तुलसी और पुष्प का वमन किया । इस प्रकार महाप्रसाद का महत्त्व प्रतिपादित कर आगे बढ़े । रास्ते में एक मृतक को जिला कर अनेक प्रकार से भक्ति और सत्संग का सदुपदेश देते हुए आप श्रीमठ ( काशी ) आ पहुँचे । गुरु चरणों का दर्शन – पूजन किया और आश्रम में रहकर भक्ति – रसामृत का पान करने लगे । गुरु के सदुपदेश से इनके समग्र संशय छिन्न – भिन्न हो गए , गरु चरण का अमोघ अभय वरदान तथा आज्ञा प्राप्त कर आप तिरूपति पधारे । वहाँ उस समय मुसलमानों का बोल – बाला था । गान्धर्व वसुन्धरा , ने पुष्पदन्ताचार्य के शाप से फातिमा नाम से यवन कुल में जन्म लिया । उसे श्री विग्रह में ही गति पाना था । उसकी भक्ति से आकृष्ट होकर श्रीरंग जी का विग्रह मंदिर से लुप्त हो गया था । श्री वेंकटेश की सत्प्रेरणा से प्राप्त आकर्षणी विद्या के द्वारा आपने पुन : मन्दिर में श्री रंग के विग्रह को पधराया और वहीं आकर फातिमा श्री विग्रह में विलीन हुयी । यहाँ के मुसलमान शासक ने स्वामी जी से अत्यन्त प्रभावित होकर सभी उपद्रवों को बन्द करवा दिया और स्वच्छन्द रूप से पूजा – पाठ की छूट दे दी । स्वामी जी भगवदाराधन में आत्म – विभोर हो जाते थे , उस समय स्वयं भगवान् को इनकी रक्षा करनी पड़ती थी । भगवदाज्ञा से आपने पांचरात्र की १०८ संहिताओं को प्राप्त कर लोक कल्याणार्थ प्रस्तुत किया । तत्पश्चात् काशी आकर गुरु दर्शन किये व श्रीमठ में ही कुछ काल रहकर गुरु आज्ञा से वैदिकधर्म के प्रचार एवं अधर्म के उच्छेद हेतु पंजाब चले गए । पंजाब में वैदिकधर्म की स्थापना करने के बाद अपने अन्तिम समय में आप श्री अयोध्या आए । सरयू के तट पर सानुज भगवान् श्री राम के दर्शन प्राप्त हुए । भगवान अविरल और अविचल भक्ति का वरदान देकर अन्तर्हित हो गए । भगवान् के अन्तर्हित हो जाने पर सुरसुरानन्द जी विकल हो रात्रि भर सरयू तट पर लोटते रहे । निरन्तर अश्रुधारा प्रवाहित रही । सुबह होने पर एक राजहंस आया और स्वामी जी से गुरु – दीक्षा प्राप्त की । उसी राजहंस के पीठ पर सवार होकर स्वामी सुरसुरानन्द जी साकेत लोक के लिए महाप्रयाण कर गये ।

नरहर्यानन्दाचार्य

नपट नरहर्यानन्द को कर दाता दुर्गा भई ।

घर पर लकड़ी नाहिं शक्ति को सदन उजाएँ । ।

शक्ति भक्त सो बोलि दिनहिं प्रति बरहीं डारें ।

लगी परोसिनि हबस भवानी भय सो मारें । ।

बदले की बेगारि मूडि वाके शिर डाएँ ।

भरत प्रसंग ज्यों कालिका लडू देखि तन में तई । ।

निपट नरहर्यानन्द को कर दाता दुर्गा भई । ।

भगवद् दर्शन में बाधा डालने के कारण एक बार सनत्सुजातीय को जय विजय पर क्रोध आ गया और उन्हें शाप दे बैठे । यही क्रोध आपको कई बार मर्त्य लोक पर ले आया । पहली बार आप महाभागवत प्रह्लाद के रूप में आए और दूसरी बार मिश्रकुल में जन्म लेकर आप नरहर्यानन्द के नाम से प्रख्यात हुए । वृन्दावन के पास एक महेश्वर मिश्र रहा करते थे । देवी के मन्दिर पर धरना देकर आपने देवी का साक्षात्कार किया और उनके अलौकिक सौन्दर्य पर मोहित होकर वरदान में उन्हें पत्नी रूप में माँग लिया । बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना । इसी अद्भुत संयोग से वैशाख , कृष्ण पक्ष तृतीया तिथि को वृन्दावन के कोलिकुंज में बच्चे को जन्म देकर देवी अदृश्य हो गयी । नरवेशधारी देवों से पालित बालक का यथा समय उपनयन संस्कार किया गया । तत्पश्चात वह अपनी इच्छा से समित्पाणि होकर जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के शरण में आया , आचार्य श्री से दीक्षित होकर दैवीबुद्धिसम्पन्न बालक नरहर्यानन्द ने एक माह वेदाध्ययन से श्रुति सिद्धान्त का जाल कर लिया । गुरुकृपा से अन्य दर्शन व विद्याओं का भी उसे ज्ञान हो गया । कार्तिकमासीय आकाश दीपकोत्सव के अवसर पर आप गंगा । स्नान कर रहे थे । घाट पर ही एक लम्बा बाँस गाड़ा हुआ था । एक विप्र बालक उस बाँस पर चढ़कर नीचे देखा तो भय वशात् हाथ से बाँस छूट गया और का बालक गिरने लगा । ऋषिकुमार ने अपनी योग – शक्ति से बालक को त्रिशंक की अघर में ही लटका दिया और एक टोकरी में दैवीय – शक्ति को अभिमंत्रित बालक को उसी में बैठाकर किनारे लगा दिया । इस घटना से आपके गुरुचरणक गुरुभाइयों में आपके प्रति आत्मयीता का भाव और बढ़ गया । दीनता , निष्कपटता सत्यता सर्वाधारता , अनन्यता आदि गुणों ने तो आप में विश्रान्ति ही प्राप्त की थी । भजन – सत्संग करते हुए कुछ समय आपने श्रीमठ में बिताया । पनः पर आज्ञा से अदम्य उत्साह व सहानुभूति के साथ आप चित्रकूट के लिए प्रस्थित कम गंगा तट पर धीरे – धीरे घूमते हुए आप जब प्रयाग पहुंचे तो चातुर्मास्य व्रतका समय आ गया था , अत : आपने वहीं एक दुर्गामन्दिर के पास पीपल वृक्ष के नीचे डेरा जमा दिया । श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के समय नित्य वर्षा होने के कारण सूखी लकड़ी केन मिलने के कारण भगवान् के लिए भोग न बना पाये थे । भक्त भगवान् को भूखा कैसे सुला सकता था । अत : वह पास स्थित देवी मन्दिर का खम्भा उखाडने लगे । भक्त के अनुराग से विभोर होकर देवी ने कहा कि तुम्हारे बिस्तर पर प्रतिदिन एक बोझ लकड़ी पहुँचा दूंगी , तुम मेरा सदन मत उजाड़ो । अस्तु , आप वापस हो गए । बिस्तर पर सूखी लकड़ी आ चुकी थी । इस कृत्य से प्रभावित होकर एक वैश्य भी देवी का सदन उजाड़ने गया । पर देवी ने उस पर आक्रमण कर दिया और ऋषि कुमार हेत प्रतिदिन एक बोझ सूखी लकड़ी पहुँचाने का वचन लेकर उसे छोड़ा । इस प्रकार के चमत्कार सुनकर दूर – दूर से भक्त उनके दर्शन हेतु आने लगे । नित्य प्रति सत्संग कथा होती थी । दुर्गा नवरात्र के अवसर पर देवीमन्दिर में भैंसों और बकरों की बलि पड़ती । थी । किन्तु वैष्णव भक्त नजदीक था , अत : देवी ने कुमारी कन्या के रूप में ऋषि कुमार से गुरु दीक्षा लेकर चमत्कार पूर्ण ढंग से बलि को रोक दिया । दीपावली के दिन आप राघवेन्द्र सरकार के चारों ओर दीप जलाकर बीच में ध्यान मग्न हो गए । इसी बीच एक जुआरी जुआ खेलने हेतु एक दीप चुराने आया । ज्यों ही उसने दीप में । हाथ लगाया , एक नागिन ने उसके हाथों को बांध लिया । अन्त में भगवान से बहुविध प्रार्थना करने पर वह नागिन – पाश से मुक्त हुआ और उसने हमेशा के लिए जुआ बलना छोड़ दिया । इसी प्रकार ऋषिकुमार सत्संग के द्वारा वैष्णवधर्म के प्रचार प्रसार के साथ ही सामाजिक बुराइयों का भी उन्मूलन किया करते थे । आपकी कथा के अवसर पर यदि मेघ बरसने लगता था , तो जहाँ तक श्रोता उपस्थित होते थे , वहाँ एक बंद भी वर्षा नहीं होती थी । चातर्मास्य समाप्त होने पर आप वहाँ से चलकर घूमते हुए चित्रकट पहुँच गए । चित्रकूट के कण – कण में सहज अनुराग से युगल मूर्ति की दिव्य झांकी की अनुभूति होती थी । चित्रकूट में घूमते हुए आप मधुरस्वर का अनुकरण करते हुए एक गुफा में प्रवेश कर गए ।

वहाँ एक दिव्य सन्त ने उनका स्वागत किया । आप उसी गुफा में रहकर भजन , सत्संग करने लगे । दिव्य स्वाद से युक्त कन्दमूल फल वहीं प्राप्त हो जाया करते थे । एक दिन तुलसी लेने हेतु आप वाटिका में गये । वहाँ आपको अनायास ही समाधि लग गयी । बहुत वर्षों के बाद एक योगिनी मण्डल ने आकर आपको समाधि से जगाया । सभी सन्त महात्मा आप की ओजस्विता और साधना से प्रभावित थे । एक दिन तुलसी खोजते हुए आप एक सुन्दर वाटिका में पहुँचे । एक बालिका ने उन्हें तुलसी दल उतारने से मना किया और कहा कि इस वाटिका की स्वामिनी महामाता अनसूया हैं और उन्हीं की आज्ञा से कोई तुलसी ले सकता है । माता से मिलने की जिज्ञासा होने पर वह कन्या स्वामी जी को अनेक गुफाओं को पार कराती हयी , एक सुरम्य स्थान पर छोड़ दी तथा यह कहकर कि ” माता ये ही दर्शन देंगी ” वापस आ गयी । वहाँ पर स्वामी जी को क्रमश : दो तेंदुए , दो कबूतर और मोर दिखायी दिए . पर माता के दर्शन न हो सके । समय बीतता गया । शाम से रात्रि हो गयी । स्वामी जी थककर सो गए तो महर्षि अत्रि के साथ माता अनसूया ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया और बताया कि कलियुग में साक्षात् दर्शन का सहसा नियम नहीं है , अतएव मैंने तुम्हें तेन्दुआ , मयूर और कपोतदम्पती के रूप में दर्शन दिया था । उन्होंने वहीं रहकर भजन करने की आज्ञा दी । अपनी गुफा से आसन लेकर आते समय बीहड़ में अपने इष्ट श्रीसीताराम का दर्शन किया और एक मुनि ने उन्हें सचेत किया तथा माता अनसूया के आश्रम पर पहुंचाया । माता जी के आश्रम में स्वामी जी ने समाधि में बिना आहार ५ वर्ष ३ माह व्यतीत कर दिए । जब तन्द्रा भंग हुई तो एक किरात तथा तुलसी वाटिका की कन्या उनकी सेवा में रत थे । जो साक्षात् उनके इष्ट ही थे । स्नानादि से निवृत्त होने पर स्वस्थ होकर आप आसन पर बैठे ही थे कि किरात वटु के रूप में लक्ष्मण जी कन्द – मूल – फल लेकर उपस्थित हो । गए । स्वामी जी ने भोग लगाकर प्रसाद खाया तथा किरात वटु के जाने के बाद सो गये । स्वप्न में अनुज के साथ श्रीसीताराम ने दर्शन दिया , किन्तु नींद टूटने पर कुछ भी नहीं था । विरहावस्था में रोते – रोते बेहोश हो गए तो माता अनसूया ने आकर सचेत करके पूर्ववत् साधना करने को कहा । माता जी की अनुकम्पा से दत्तात्रेय जी का दर्शन प्राप्त कर सदुपदेश प्राप्त किया । एक दिन महेश्वर ने दर्शन देकर कहा कि महर्षि वाल्मीकि का अवतार हो चुका है । वे सात वर्ष की अवस्था में हरिपुर में अनाथ – सा रह रहे हैं । अत : वहाँ जाकर उनको सम्भालो , स्वामी जी हरिपुर आ गए और बालक को प्राप्त कर उपनयन संस्कार करवाए तथा उनका नामकरण तुलसीदास के रूप में हुआ । बालक को वेद – वेदांग तथा रामचरित का ज्ञान कराकर पंचगंगा घाट पर स्थित गुरु – आश्रम श्रीमठ में आए , गुरु का दर्शन – पूजन किया । बालक तुलसीदास को एक महापण्डित को सौंपकर आप चित्रकूट में माता के आश्रम पर आ गए और यहीं पर भजन करते हुए योगाग्नि के द्वारा पंच भौतिक शरीर का त्याग कर साकेत गमन कर गए ।

स्वामी श्रीयोगानन्दाचार्य

योग सुपथ उद्धार हित योगानन्द कपिल भए । ।

श्री गुरु पद रज सेड़ सकल शास्त्रन मथि लीन्हें ।

विजय नगर मॅह जाइ चरक कहँ विजय जु कीन्हे । ।

श्री रंग मँह जाइ वाद करि वर बर जीत्यो ।

चित्रकूट ब्रज अवध अनंदहिं बहु दिन बीत्यो । ।

योग सुपथ उद्धार हित योगानन्द कपिल भये । । – श्री नाभा स्वामी सिद्ध क्षेत्र में तपस्वी ब्राह्मण पं . मणिशंकर शर्मा जी ने तपस्या से सूर्यनारायण को प्रसन्न कर पत्र प्राप्ति का वरदान प्राप्त किया था । जिसके फलस्वरूप उनकी पत्नी के गर्भ में विक्रम संवत् १४५७ के वैशाख कृष्ण पक्ष सप्तमी तिथि , दिन बुधवार को महाभागवत कपिलदेव जी एक तेजस्वी पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए वैशाखकृष्णसप्तम्यां मूले परिधसंयुते । । बुधे कर्केऽथ कपिलो योगानन्दो भविष्यति । । ( . सं . १३२ । ३८ ) बालक में परम वैष्णवता तथा विद्वत्ता के लक्षण जन्म से ही परिलक्षित होते थे । वह दीपक की ज्योति को सदा ही निरखता रहता था । दीपक बुझने पर तब तक रोता ही रहता जब तक दीपक जल न जाए । बहुत ही धूमधाम से बालक कानामकरण संस्कार हुआ । इस तेजस्वी बालक का नाम ' यज्ञेशदत्त ' रखा गया । यज्ञेशदत्त जब चार वर्ष का था तो एक सन्त घर पधारे । आप उनसे सीत प्रसाद माँग कर खाने लगे । जिसे देखकर भगवत् प्रियता का अनुमान सहज ही होता था । नौ वर्ष की अवस्था में आपका उपनयन संस्कार हुआ तथा विद्याभ्यास के लिए बांसवाडा में पं . श्रीनाथ जी के पास भेज दिया गया । गुरु को सेवा से प्रसन्न कर आपने अल्पकाल में ही चारों संहिताओं तथा व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर लिया । तत्पश्चात् आप काशी आकर शास्त्री नारायण भट्ट की सेवा करते हुए न्याय , वेदान्त , साहित्य का अध्ययन करने लगे । इनकी तेजस्विता व विद्वत्ता से प्रभावित होकर एक ब्राह्मण , जो मरणासन्न थे , ने अपनी पौत्री रामगंगा ' का हाथ इन्हें पकड़ा कर स्वर्ग गमन किया । काशी में ही कम्बियों को बुलाकर आपने शादी की तथा यहीं रहकर अध्ययन करते हुए सर्वशास्त्र – निष्णात तथा प्रसिद्ध वैज्ञानिक के रूप में प्रतिष्ठापित हुए । इनकी अभिरुचि योग विद्या में भी थी । आप परमयोगी भी थे । काशी में आप ' योगिराज पण्डित के रूप में प्रसिद्ध थे । आपकी पत्नी धर्म परायणा , पतिव्रता तथा सर्वतोभावेन पति अनुगामिनी थी । पति को बहुत प्यारी भी थी । एक बार रुग्ण होकर वह मरणासन्न हो गयी , तो योगिराज ने योगबल से उसकी रक्षा की । किन्तु काल भी घात लगाए बैठा रहा । एक दिन आप गंगा पार जाकर सत्संग में रम गए और इधर आपकी धर्मपत्नी काल कवलित हो गयी । वापस आने पर आपने अन्त्येष्टि क्रिया की । श्राद्ध में अपना सर्वस्व दान कर विरक्त दीक्षा लेने हेतु श्रीरामानन्दाचार्य जी के आश्रम श्रीमठ पहुंचे । आचार्य श्री की आज्ञा हुई , “ सौ घड़ी तक एक पांव से खड़े रहो , पांव हिलने न पावै । " आपने श्रद्धावनत होकर आज्ञा का पालन किया । परीक्षा सफल हुई । आचार्य श्री की आज्ञा से स्वामी अनन्तानन्दाचार्य जी ने आपको वैष्णवी दीक्षा देकर सर्वथा सार्थक योगानन्द ' नाम रखा ।
गुरु – कृपा से प्रस्थानत्रयी तथा सांख्यादि का ज्ञान आपको सहज ही प्राप्त हो गया था । आचार्यश्री की दिग्विजय यात्रा में स्तुति करते हुए ठाकुर जी को सिर पर धारण कर उल्टे पांव चलने में आप जैसा योगी ही समर्थ हो सकता था । ठाकुर जी की सेवा आपके ही जिम्मे रहती थी । आपकी योग – गाथा की ख्याति भक्तों व गुरु भाइयों में चर्चित थी । दक्षिणयात्रा में बालाजी मन्दिर में द्वार पालों द्वारा दर्शन हेतु रोके जाने पर योगबल से मन्दिर के गर्भ तक जाना आपके लिए सुलभ था । वैष्णव – शैव विद्रोह की शमन – शक्ति आप में विद्यमान थी । अत : आचार्यचरण की आज्ञा से आपकुछ दिन वहीं ठहर गए । एक दिन एक लिंगायत से आपका शास्त्रार्थ छिड़ गया । मध्यस्थ कोई था नहीं , अत : आपने देवताओं को अधर में बैठाकर मध्यस्थ बनाया तथा लिंगायत को शास्त्रार्थ में पराजित किया । कुछ दिनों तक यहाँ धर्म – प्रचार करने के बाद आप द्वारावती आ गए । नीड़पाद में एक पोखरे पर वटवृक्ष के नीचे आपका वास होता था । आप योगासिद्धि से सभी भक्तों की सत्कामनाओं को पूर्ण किया करते थे । वहाँ की रानी ' सूर्यबाला ' को आपके आशीर्वाद से पुत्र प्राप्ति हुई । एक दिन पक्षियों की टोली के रूप में सिद्ध – मण्डल आया । स्वामी जी ने सरसों छीट कर उन सिद्धों की शक्ति को स्तम्भित कर दिया तथा जल छीट कर उन्हें यथा – स्वरूप में कर दिया । अत : सिद्धों को प्रसाद – सेवन कराकर सप्रेम विदा किया । आप जिस रास्ते से गुजरते थे , उस रास्ते करुणा वरुणालय भगवान् श्रीराम की अविरल भक्ति धारा – प्रवाहित होती थी । इस प्रकार रामभक्ति का प्रचार तथा भक्तों का कल्याण करते हुए सुदामापुरी होकर श्री द्वारिकापुरी आ गए । द्वारिका से एक भक्त के आग्रह पर आप मद्रास आ गए । श्रीरंग मन्दिर में भण्डारा का आयोजन था । सभी सन्त मोक्ष साधन पर विचार कर रहे थे । स्वामी जी पधारे । द्वितीय रामानुजाचार्य वरावर मुनि के साथ कुछ विवाद हो गया । उस विवाद में आपने अपनी योग्यता से उनके भ्रम को दूर कर रामभक्ति की ध्वजा फहरा दी । मुनि जी से विदा होकर आप कुरुक्षेत्र आ गए । सूर्यग्रहण के अवसर पर अपार भीड़ लगी थी । बहत – से सन्त महात्मा पधारे थे । सभी एक बागीचे में थे । स्वामी जी भी वहीं पधारे । दिल्ली से एक शाहजी भी आये थे । वे भी भक्ति पूर्वक कलमा का पाठ कर रहे थे । आँखों में आँसू और दिल में अपार भक्ति का सागर लहरा रहा था । स्वामी जी उनकी स्थिति देखकर मुग्ध हो गए । ग्रहण समाप्ति के बाद उनके साथ सत्संग में अपार आनन्द की अनुभूति स्वामी जी को हुई । तदनन्तर वहीं श्रीभाष्य तथा गीता का स्वाध्याय करते हुए कुछ दिन व्यतीत किए । वहाँ से घमते हए आप श्री वन्दावन आकर रामघाट पर भजन करने लगे । वहाँ श्रीराधिका जी स्वयं ग्वालिन के रूप में उन्हें दूध दे जाया करती थीं । एक रात श्री राधाजी ने स्वप्न में दूध का रहस्य बताकर आज्ञा दी कि यह स्थान छोड़ दें तथा ब्रज में भ्रमण करें । प्रात : काल ही स्वामी जी मस्त हाथी की तरह ब्रजधूर से शरीर को रंजित कर ब्रज में घूमने लगे । आपने अनेक दिव्य झांकियों के दर्शन से आनन्द की पराकाष्ठा प्राप्त की । जिसे लेखबद्ध करना असम्भव है क्योंकि वह अनुभवगम्य है । इस प्रकार स्वामी जी कई वर्षों तक श्रीवृन्दावन धाम में घूमते रहे । एक दिन श्री जी ने दर्शन दे इन्हें आचार्य श्री के आगमन की सूचना दी तथा आचार्य श्री जी के जाने के बाद भी कुछ दिन यहीं वास करने की इच्छा जाहिर की । दूसरे दिन आचार्य श्री स्वामी जी ने आचार्यचरण के दर्शन किए तथा गुरुभाइयों से मिले । तीन दिन के बाद आचार्यचरण चले गए और आप गुरुआज्ञा से कुछ दिन के लिए ठहर गए । श्री जी की आज्ञा प्राप्त कर आप मस्त होकर चित्रकूट को चल पड़े । रास्ते भर आपको अपने शरीर की सुध न रही । रूप परिवर्तित कर श्री जी हर प्रकार से आप की रक्षा करती रहीं । चित्रकूट पहुँचकर मन्दाकिनी में स्नानादि से निवृत्त होकर कन्या रूप में श्री जी द्वारा प्रदत्त दुग्धपान करने पर आपकी चेतना वापस आयी । वहाँ से उठकर आप एक वन में पहुँचे । वहाँ लक्ष्मण तथा सीता सहित श्रीराघवेन्द्र सरकार का दर्शन प्राप्त हुआ । श्री जी पास बुलाकर स्नेह से उनका समाचार पूछने लगी । तथा चित्रकूट रहने का आदेश देकर दिव्य झांकी समाप्त हो गयी । प्रभु के विरह से आप अधीर हो गये । अंग – अंग में आराध्य के विरह की चिनगारियाँ फूट गयी । इस स्थिति में पुनः दिव्य – झांकी प्रकट हुयीं । श्रीद्वारा प्रदत्त फल खाकर आप मन्दाकिनी में हाथ धोने गए । इधर दिव्य झांकी लुप्त हुयी । बेचारे हाथ मलते रह गए । रात्रि में स्वप्न हुआ ' श्री अवध धाम चलो । ' वहीं दर्शन होंगे । अस्तु आप अवध के लिए प्रस्थान कर दिए । अवध में सरयूतट पर भ्रमण करते हुए सभी देवताओं के मित्र भगवान श्रीराम का दर्शन हुआ । श्रीधाम में कुछ दिन विचरने के बाद आप श्रीकाशी आ गए । परमाचार्य श्रीसाकेत वासी हो चुके थे । आपकी विक्षिप्तावस्था पर सभी लोग चकित थे । कुछ दिन वहाँ रहने पर आपकी अवस्था कुछ ठीक हुई तो अनन्तानन्दाचार्य जी की आज्ञा से आप पीपा महाराज के साथ गुजरात में धर्म प्रचार हेतु चले गए । वहाँ से आप गंगासागर की ओर प्रस्थान कर गए और वहीं परमतत्व का ध्यान करते हए गोलोक को गमन कर गए ।

महाभागवत श्रीभावानन्द

श्री रामानन्दाचार्य पद अनुगामी मिथिलाधिपति । ।

परमतीव्र वैराग्य त्यागि तिय यति वपु लीन्ह्यो ।

पुनि गुरु आयसु मानि जाय गृह सु कीन्ह्यो । ।

त्रय “ कुमार " हरिभक्ति मुक्ति कन्या एक जायो ।

पुनि गुरु पद महँ जाइ योग जप धर्म कमायो । ।

अनुभानन्दहिं शिष्य करि कीन्ह तिन्हैं वैष्णवाधिपति ।

श्रीरामानन्दाचार्य पद अनुगामी मिथिलाधिपति । ।

– श्री नाभा स्वामी विदेहराज पूर्वजन्म में राजा प्रज्ञानदेव थे । उनकी धर्मपत्नी सुमति देवी , पुत्रवधू शीलवती एवं पुत्र मोहन्ध कुंवर थे । कर्मविपाक के कारण अगले जन्म में मिथिलाधिपति जनक हुए , जो महर्षि याज्ञवल्क्य के सत्संग से विदेह , मुक्त , अद्वितीय ब्रह्मनिष्ठ हुए । किन्तु उनकी पत्नी , पुत्रवधू तथा पुत्र जन्म – मरण के चक्र में फँस गये यद्यपि उन्हें पूर्वजन्म का ज्ञान बना रहा । राजा जनक के पूर्वजन्म का सुविस्तृत कर्मानुबन्ध बना रहा । परमपद प्राप्त राजा को कलियुग में पुनः मर्त्यलोक पर आना पड़ा । मिथिला प्रान्त के बहुवई नामक ग्राम के निवासी हरिनाथ मिश्र जी तीर्थाटन करते हुए पंढरपुर ( महाराष्ट्र ) पहुँचे और वहीं अपनी गृहस्थी बसा लिए । उनके पुत्र थे – रघुनाथ मिश्र जो विद्वत्ता व रामभक्ति के लिए विख्यात थे । युवावस्था के अन्तिमचरण में भगवान विट्ठल की असीम अनुकम्पा से वैशाख , कृष्ण , सोमवार को मूलनक्षत्र में विदेहराज्य में रघुनाथ मिश्र की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया । पत्नी के प्रेमाग्रह पर अपनी पैतृक ' मिश्र ' उपाधि का परित्याग कर श्वसुर कुल के पन्त उपाधि युक्त ' विट्ठल पन्त ' उसका नाम पड़ा । प्रज्ञानदेव की पत्नी सुमति देवी ने भी एक विप्रकुल में रुक्मिणी नाम से जन्म लिया । सयानी होने पर जन्म – जन्मान्तर के सहचर – सहचरी का धूमधाम के साथ विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ । दोनों को एक दूसरे के प्रति अटूट अनुराग था । पत्नी धर्मपरायणा , सुशीला , पतिव्रता थी । उनके पतिव्रत ने भिक्षार्थ आए योगी के बिलम्ब – जनित क्रोध से रसोई घर को जलाने के प्रयास को विफल करके , योग पर पतिव्रता का ध्वज लहरा दिया था । ऐसी पत्नी के लिए पति का अनुराग सहज ही तो होगा । विट्ठल जी भी जल में कमल की भांति सांसारिक वासनाओं का अतिक्रमण कर भक्ति – पूर्वक रहा करते थे । पत्नी उनकी साधना में बाधा नहीं , सहयोगिनी थी । तथापि पति के सहज वैराग्य की ओट में उन्हें विरक्त – दीक्षा लेने की अनुमति कभी न दे सकीं । एक दिन विट्ठल पंत के यहाँ भगवत्प्रेरणा से नागदम्पती पधारे । आध्यात्मिक वार्ता के बाद उन्हें घर छोड़ने पर विवश कर दिया । नये मकान में एक रात्रि व्यतीत करने के बाद प्रात : पूरा घर सुवर्ण – मुद्राओं तथा अन्नादि आवश्यक सामग्रियों से भरा पाया । उन्हें आश्चर्य तो हुआ , किन्तु विरक्त – भाव के कारण हर्ष नहीं । उसी समय नागदम्पती ने उपस्थित होकर उन्हें बताया कि यह सारा धन श्री राघवेन्द्र सरकार के दूत रख गए हैं । आप पर सांसारिक वासनाओं का कुछ भी प्रभाव नहीं है । इस धन से आप साधु , ब्राह्मण , दरिद्रनारायण आदि की सेवा कर लोकोपकार करें । यही भगवदिच्छा है । दूसरे दिन से सेवाव्रत प्रारंभ हो गया । बाहर से आते कुछ दीखता नहीं , पर घर से सदा ही परिपूर्ण रहा करते थे । ग्रामवासी प्रसन्न थे । किन्तु सांसारिक क्लेश के कारण उनके सगे – सम्बन्धी जल – भुन गए । रहस्य जानने के लिए जो भी घर में जाए , वह दृष्टिहीन हो जाए । वहाँ से उसे कुछ न दिखायी दे ।

अभ्यागतों की टोली में अच्छे – अच्छे सन्त भी आया करते थे । एक दिन गुदड़ी में लिपटे ' निराहारी बाबा ' कहलाने वाले दिव्यसन्त पधारे । दर्शन मात्र से पातकियों के पापों को दूर करने वाले उस अलौकिक सन्त के मुखमण्डल पर विराजित अमित तेज चतुर्दिक फैल रहा था । तीन दिनों तक पन्तजी का आतिथ्य ग्रहण करने के बाद बाबा जी ने कहा – " काशी में साक्षात् परब्रह्म श्रीराम ने अवतार लिया है । मैं उनका दर्शन करने काशी जाऊँगा । " बाबा की इस वाणी को सुनकर परम विरक्त भक्त की चेतना जाग उठी । जीवात्मा परमात्मा से मिलने के लए व्यग्र हो उठी । जब जीवात्मा का प्रेम परमात्मा परक हो जाता है , जीव – ब्रह्म की एकता के अन्यसाधन अनायास प्राप्त हो जाते हैं । पत्नी से अनुमति लेकर बाबा जी के साथ हो लिए । रास्ते में बाबा के साथ श्याम – गौर वटु को चलते देखकर पन्त जी ने बाबा के वेश में विश्वामित्र जी को पहचान लिया । बाबा ने भी पन्त जी के पूर्वजन्म का स्मरण करा दिया , जिसे जानकर पन्त जी मूर्छित हो गए । बाबा के प्रयास से होश होने पर उन्होंने परब्रह्म की अनुपमछबि का दर्शन किया । पन्त जी उस छबि पर मुग्ध हो गए । उसी समय बाबा जी के साथ ही वह दर्शन भी अन्तर्हित हो गया । इस समय आप काशी के नजदीक पहुँच चुके थे । पर आप प्रियदर्शन के विरह में पागल हो काशी जाने की बात भूल चुके थे । ध्यान में मात्र वह अनुपम छबि ही बसी थी । अस्तु वहीं पर दो सुन्दर बालकों ने उन्हें काशी जाने की बात बताकर उन्हें काशी पंचगंगा घाट पर पहुँचाया तथा आँखों से ओझल हो गए । अब पन्त जी ने समझा कि वे दोनों कौन थे । पन्त जी के पास पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं था । उसी समय श्रीमठ में जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी ने मेघगर्जना के समान गंभीर शंख फूंका , जिसे सुनकर आपका अन्तर्चक्षु खुल गया । गुफा के द्वार पर जाकर भगवान् को साष्टांग प्रणाम करते ही कृपा प्राप्त हो गयी । आचार्य श्री ने उन्हें वैष्णवी दीक्षा देकर कृतार्थ किया । पंढरपुर ( आलिंदी ) के विट्ठल पन्त अब ' भवानन्द ' हो गए थे । जिनके हृदय पटल पर सदैव राघवेन्द्र सरकार का दर्शन प्राप्त होता था । इस स्थिति में मोक्ष की इच्छा का भी ज्ञान कर आपने भक्ति के आदर्शरूप को स्थापित किया ।

महाभागवत श्रीपीपा

पीपा प्रताप जग वासना, नाहर को उपदेश दियौ । ।

प्रथम भवानी भक्त मुक्ति मांगन को धायौ ।

सत्य कह्यौ तिहिं शक्ति सुदृढ़ हरि बतायो । ।

श्री रामानन्द पद पाय भयौ अति भक्ति की सीवाँ ।

गुण असंख्य निर्मोल संत धरि राखत ग्रीवाँ । ।

परसि प्रणाली सरस भई, सकल विश्व मंगल कियौ ।

पीपा प्रताप जग वासना, नाहर को उपदेश दियौ । ।

श्री नाभादास परम भागवत मनु जी व शतरूपा ने भगवान् को प्रसन्न कर पुत्ररूप में प्राप्त किया तथा वात्सल्यरस का पान किया । कलिकाल में मनु जी भक्त और भगवान् की सेवा हेतु पुनः मानव शरीर धारण किए । राजस्थान में गागरौनगढ़ के राजा चौहान ने पुत्र के लिए भगवती की बहुत आराधना की । भगवती की असीम अनुकम्पा से संवत् १४१७ चैत्र पूर्णिमा के दिन उनकी पत्नी ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिनका नाम 'पीपाप्रताप' रखा गया । बचपन से ही महाभक्त होने के लक्षण बालक में विद्यमान थे । बढ़ती हुई अवस्था के साथ बालक ने विद्वानों के सान्निध्य में धर्म तथा राजनीति की शिक्षा प्राप्त की । पिताश्री के गोलोकगमन करने के बाद आप संवत् १४४२ में राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए । पिता के समान ही आप का प्रजा के प्रति पुत्रवत् स्नेह था । साधु-ब्राह्मणों की सेवावृत्ति आपको परम्परा से ही प्राप्त थी । देवी की आराधना आपके राज्य में घर-घर में होती थी । आप स्वर्य देवी के महान् उपासक थे । आप हमेशा देवी के भजन-पूजन में मस्त रहते थे । एक दिन वैष्णव-सन्तों की जमात वहाँ आयी । सन्तों की ख्याति सुनकर पीपामहाराज रात्रि में वेश बदल कर दर्शन करने गए । दण्डवत् प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त किया । तीर्थ-प्रसाद ग्रहण किया, वापस महल में आकर सो गए । स्वप्न में एक सर्प ने कहा कि आज तुमने वैष्णवसन्त के दर्शन किए हैं, अन्यथा मैं तुम्हें मार ही डालता । सुबह उठकर आपने देवी से अभय वरदान की माँग की । देवी के पास तो वह सामर्थ्य थी नहीं कि वह भक्त को मुक्त कर सके वह तो सिर्फ सांसारिक कामना की ही पूर्ति कर सकती थी । अतः उसकी प्रेरणा से राज-पाट को मंत्रियों पर सौंपकर काशी में पंचगंगाघाट पर स्थित श्रीमठ में आ गए । स्वामी रामानन्दाचार्य जी के दर्शन को बढ़े तो पुजारी ने यह कहकर रोक दिया कि 'हमें राजाओं से क्या काम?' धीर-गम्भीरमति महाराज पीपा ने अपने साथ का समस्त ऐश्वर्य बांट दिया । सारे राज-चिह्न छोड़ दिए । एकमात्र धोती पहनकर पुनः शरणागति की भिक्षा माँगी तो आचार्य श्री ने कहला भेजा कि 'कुआं में गिर जाओ । ' आप सहर्ष कुँआ की ओर बढ़े । शरीरासक्ति से निवृत्त जानकर आचार्य श्री ने आपको रोका तथा मंत्रदीक्षा देकर कृतार्थ किया । आचार्य श्री के आशीर्वाद से आप में अलौकिक परिवर्तन आया । वासनाएँ स्वतः दूर हो गयीं । पुनः आप गुरु-आज्ञा से अपनी राजधानी आ गए और राजमहल में श्री सीताराम सरकार को पधराकर निष्ठापूर्वक सन्तों व ब्राह्मणों की सेवा करते हुए एक वर्ष तक राज्य सम्भाला । तत् पश्चात् गागरौनगढ़ में आचार्य श्री पधारे । चातुर्मास्य उत्सव अनेक शिष्य-प्रशिष्यों के साथ वहीं सम्पन्न कर चलने लगे तो पीपा महाराज भी सिंहासन पर भतीजे को बैठाकर साथ हो लिए । इस समय आपकी अवस्था सैंतीस वर्ष की थी । अपनी पन्द्रह वर्षीया छोटी रानी भी सभी वासनाओं को छोड़कर 'सीतासहचरी' के नाम से वैष्णवदीक्षा लेकर साथ हो ली थी ।

वैष्णव जमात के साथ राजा-रानी को विदा करते हुए सभी नगरवासियों ने देखा कि रानी के शरीर पर पड़ी कमरी की अलफी रेशम की हो गयी है । यह चमत्कार ही था । जमात के साथ आप द्वारिका पुरी आ गए । कुछ दिन के बाद जमात तो आगे बढ़ गयी पर गुरु आज्ञा से आप वहीं रहकर भजन-सत्संग तथा साधु-सेवा करने लगे । एक दिन आपकी प्रभु- दर्शन की उत्कट अभिलाषा हुई । मन्दिर की ओर विक्षिप्त से दौड़े । किसी ने मजाक में कह दिया कि प्रभु तो समुद्र में रहते हैं । क्या था, आप कूद ही तो पड़े । आपकी सहचरी छाया के समान साथ थी । इधर जनता में दुःख तथा अनेक प्रकार की चर्चायें व्याप्त थीं, उधर सपत्नीक आपके सम्मान में रुक्मिणी के साथ-साथ भगवान् श्रीकृष्ण दिव्य द्वारिका के मुख्य द्वार पर खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे थे । सात दिनों का दिव्यद्वारिका का आनन्द लेकर भगवदाज्ञा से आप समुद्र पर चलते हुए, जनता को आश्चर्य में डालते हुए, अपनी भक्ति को पुष्ट करते हुए पुनः अपने स्थान पर वापस आए । दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ पड़ी । सभी को दिव्य द्वारिका की कथा आपने सुनायी तथा भगवत्प्रदत्त शंख-चक्र से अंकित किया । वहीं एक राममन्दिर की स्थापना हुई । भीड़ होने के कारण वहाँ भजन में बाधा उत्पन्न हो रही थी, अतः एक दिन बहुत सबेरे आप दोनों वहाँ से चल पड़े । छः दिन तक चलकर एक जंगल में पड़ाव डाला । वहाँ कुछ पठानों ने सीतासहचरी का हरण करना चाहा, किन्तु श्रीनृसिंह भगवान् ने प्रकट होकर रक्षा की । आगे बढ़कर आपने एक सिंह का, हिंसावृत्ति छुड़ाकर, उद्धार किया । अब आप श्रीधर भक्त के घर आये । गरीबी के कारण लहँगा बेचकर तथा स्वयं उपवास करके भी साधु-सेवा के भाव को श्री दम्पती में देखकर आपने साधु-सेवा करने का निश्चय किया । तथा वहाँ अन्न, वस्त्र इकट्ठा करके कई दिनों तक साधु- ब्राह्मणों व गरीबों की सेवा करते रहे । पीपाजी की महिमा सुनकर टोड़े का राजा 'सूर्यसेनमल' दीक्षा लेने आया । पीपा महाराज की आज्ञा से अपनी सारी सम्पत्ति तथा रानियों को स्वामी जी के चरणों में अर्पित कर दिया तथा गुरु आज्ञा से अनासक्तिभावेन राजकार्य देखने लगा । एक बार राजदरबार में एक स्त्री के साथ समान रूप-रंग वाले दो युवक आए । दोनों स्त्री को अपनी-अपनी पत्नी बता रहे थे । स्त्री भी अपने पति को पहचानने में असमर्थ थी । पीपा महाराज ने युक्ति से पुरुषवेशधारी प्रेत को बोतल में बन्द कर दिया तथा स्त्री अपने पति के साथ गयी । इधर आप झगड़े का निपटारा कर रहे थे, उधर कुटिया पर सन्तों का समागम हुआ । कुटिया में अन्न के नाम पर कुछ भी नहीं था । सीतासहचरी ने एक बनिया से यह कहकर अन्न लायी कि मैं रात्रि में तुम्हारी अंकशायिनी बनूँगी । इस प्रकार उसने साधु सेवा की । रात्रि में पीपा महाराज ने स्वयं उसे कन्धे पर बैठाकर बनिया के घर पहुँचाया । वैष्णव दर्शन तथा घर के अन्न से साधु-सेवा के कारण बनिया की बुद्धि सात्त्विक हो चुकी थी । वह सीतासहचरी तथा पीपाजी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा । इस प्रकार से अनेक कामी, क्रोधी, लोभी जनों का उपकार आपके द्वारा हुआ । अनेक प्रकार से वैष्णवधर्म का प्रचार करते हुए काफी दिन आपने राजा सूर्यसेनमल के यहाँ बिताये । सम्मान तथा भीड़ को बढ़ता हुआ देखकर आप अपनी सहचरी के साथ चुपचाप जंगल में आकर भजन करने लगे । दौसा (जयपुर) में भी अनन्तानन्दाचार्य जी के शिष्य श्रीरंगजी परमभक्त थे । उनकी उत्कट अभिलाषा से आप जयपुर पधारे । वहाँ अनेक प्रकार से सत्संग तथा रामभक्ति का प्रचार करते रहे । श्रीरंग जी के यहाँ से आप पुनः टोंडे सूर्यसेनमल के यहाँ पधारे । राजा सूर्यसेन के यहाँ एकादशी जागरण के उपलक्ष में भजन कीर्तन हो रहा था । सभी लोग कीर्तन में विभोर थे । पीपाजी अचानक उठ खड़े हुए तथा दोनों हाथों को ऊपर उठाकर मलने लगे । हाथों में कुछ कालापन आ गया । पूछने पर बताया कि द्वारका में भी कीर्तन हो रहा है, मशाल ऊपर चांदनी में लग गयी, जिससे चांदनी में आग लग गयी थी । उसे ही बुझाया है । इस बात की पुष्टि के लिए दूत द्वारिका गया, बात सत्य थी । लोगों ने बताया कि पीपा जी न होते तो आग लग ही जाती । सभी लोग इस घटना से उनके प्रति भक्ति व श्रद्धा से अवनत हो गए । एक बार देश में महान् अकाल पड़ा तो सूर्यसेन को आपने खेतों में छुपा धन बताकर अकाल से जनता की रक्षा की । संवत् १४७२ में आप पुनः गागरौनगढ़ गए । वहाँ लोगों को वैष्णवता का उपदेश दिया । कुछ दिनों के बाद काशी आ गए तथा गुरुजी के साकेत-गमन करने का बाद श्रीमठ में ही रहे । फिर श्री योगानन्दाचार्य जी के साथ गुजरात में धर्म-प्रचार हेतु पधारे । इस प्रकार आपका सम्पूर्ण जीवन लोकोपकार, धर्मप्रचार तथा आदर्श आचरण की स्थापना में व्यतीत हुआ । आप योगाग्नि के द्वारा शरीर का त्याग कर साकेतवासी हुये । आपकी सहचरी प्रत्येक क्रियाकलापों में आपकी सहयोगिनी बनी रही । कभी वह आपके मार्ग में बाधा नहीं बनी ।

कबीरदास जी

कबीर कानि राखी नहीं, वर्णाश्रम षटदरसनी ।।

भक्ति विमुख जो धरम सो अधरम करि गायौ।।

जोग जज्ञ व्रत दान, भजन बिनु तुच्छ दिखायो।।

हिन्दू तुरक प्रमान, रमेनी शबदी साखी।

पक्षपाति नहिं वचन, सबहि के हित की भाखी।।

आरूढ़ दशा है जगत पर, मुख देखी नाहिन भनी।

कबीर कानि राखी नहीं, वर्णाश्रम षटदरसनी।।

श्री नाभा स्वामी कबीरदास ने भक्तिहीन षड्दर्शन एवं वर्णाश्रम धर्म को मान्यता नहीं दी, उनकी मर्यादा नहीं रखी। ये भक्ति से विरुद्ध धर्म को अधर्म ही कहते थे। इन्होंने बिना भजन के योग, यज्ञ, व्रत और दान आदि को व्यर्थ सिद्ध किया। इन्होंने अपने बीजक, रमैनी, सबदी और साखियों में किसी का पक्षपात न करके सभी के कल्याण के लिए उपदेश दिया। हिन्दू, मुसलमान सभी के लिए उनके वाक्य प्रमाण हैं। ज्ञान एवं पराभक्ति की आनन्दमयी अवस्था में आप सर्वदा स्थित रहते थे। आपने किसी के प्रभाव में आकर मुँह देखी, किसी के मन की झूठी बात नहीं कही। आप जगत् के प्रपंचों से सर्वथा दूर रहे। महाभागवत कबीरदास जी भक्तप्रवर प्रह्लादजी के अवतार माने जाते हैं। आपका प्राकट्य काल ज्येष्ठ शुल्क संवत् १४५५ की पूर्णिमा, सोमवार माना जाता है। आपके जन्म से सम्बन्धित एक आख्यान प्रसिद्ध है कि जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य के आश्रम में एक विप्र कन्या चौका-बर्तन किया करती थी। उसकी अटूट निष्ठा से प्रसन्न होकर आचार्यश्री ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। एक कुँआरी कन्या को लोकनिन्दा से बचाने हेतु आचार्य जी ने अन्तः प्रेरणा से उसके आंचल में कुछ फल देकर विदा किया। उन्हीं फलों ने रास्ते में एक सुन्दर शिशु का रूप ले लिया। लोक- निन्दा से बचने के लिए विप्र-कन्या ने नवजात शिशु को लहरतारा तालाब पर रख छोड़ा। वहाँ से नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पती उसे उठाकर घर लाये तथा बालक का पालन-पोषण किया। यही बालक भक्तों के इतिहास में कबीर नाम से प्रसिद्ध हुआ। भक्तराज प्रह्लाद की तरह कबीर भी जन्म से ही श्रीरामभक्ति से युक्त थे। बाल्यकाल से ही आपके मुख से सहज राम-ध्वनि निःसृत होती थी। एकान्त सेवन आपका सहज स्वभाव था। एक दिन इन्हें आकाशवाणी सुनायी पड़ी कि श्रीरामानन्दाचार्य से वैष्णवी दीक्षा लो। ब्राह्ममुहूर्त में पंचगंगाघाट की सीढ़ियों पर आप लेट गए। उसी समय गंगा-स्नान हेतु सीढ़ियां उतरते हुए आचार्यश्री का पैर 'कबीर' के शिर से लग गया। सहसा मुख से निकला- "राम, राम कहो बच्चा।" बस कबीर को और चाहिए क्या था? उसे ही गुरु-मन्त्र मानकर जपने लगे। अगले ही दिन से वैष्णवस्वरूप धारण कर राम-राम रटते हुए गलियों में घूमने लगे। किसी के पूछने पर बताते- "मैं श्री रामानन्दाचार्य जी का शिष्य हूँ।" यह बात आचार्य श्री के पास तक पहुँच गयी। एक दिन आचार्य जी ने इन्हें बुलाकर पूछा तो आपने सीढ़ियों पर घटित घटना का हवाला देते हुए कहा कि श्री रामनाम ही महामन्त्र है। आचार्यश्री ने गद्गद होकर शिष्य को गले से लगा लिया।

पिता की मृत्यु के बाद सन्त कबीर जी अपना पैतृक काम बुनाईगिरी करते रहे। उसी से परिवार का भरण-पोषण करते थे। पर कभी भी श्रीरामनाम व उनकी दिव्यछबि हृदय से हटती नहीं थी। एक दिन एक साधु को आपने पूरे कपड़े दे दिए। उस दिन कमाई कुछ नहीं हुई, जिससे घर का खर्च तथा सूत खरीदा जा सके। आप एकान्त में बैठकर रामनाम का जप करने लगे। इस प्रकार तीन दिन बीत गए तो भगवान् स्वयं साहूकार का रूप धारण करके इनके घर आवश्यक खाद्यसामग्री व बहुत-सी स्वर्णमुद्रायें पहुँचा दिए। माता ने इन्हें खोज कराकर घर बुलाया। घर आकर आप भगवत्कृपा को समझ गए। साथ ही पुनः सारी चीजें सन्त फकीरों को बाँट दिए। पूरे शहर में इनकी यशः पताका लहराने लगी। बढ़ी हुए प्रतिष्ठा से आपके भजन में बाधा होने लगी तो एक दिन आपने एक स्वांग रचा। एक वेश्या के कन्धे पर हाथ रखकर एक हाथ में पानी से भरी बोतल लेकर शराबियों जैसे बनारस की गली- गली में घूमते हुए काशीराज की सभा में पहुँचे। काशीराज ने इस दशा में उनका कोई सम्मान नहीं किया। आप वहीं कालीन पर बोतल का जल गिराते हुए "राम राम" कहने लगे। इस अभद्रतापूर्ण व्यवहार का कारण पूछने पर आपने बताया कि जगन्नाथ जी के पण्डा का थाल ले जाते समय पैर जलने वाला था, अतः अग्नि बुझाकर मैंने उसकी रक्षा की। अनन्तर आप अपने घर आ गए। राजा ने गुप्तचरों से पता लगाया तो बात सही थी। पण्डा का पैर अंगारे पर पड़ने वाला था। राजा अपनी गलती की क्षमा हेतु सपत्नीक कबीर के शरणागत हुए। विद्वेषी ब्राह्मण कबीर से जलते थे। उसी समय तत्कालीन बादशाह सिकन्दर लोदी आया हुआ था। ब्राह्मणों तथा मुसलमानों ने मिलकर कबीर की शिकायत की। बादशाह ने सिपाहियों के द्वारा पकड़वा कर कबीर को दरबार में बुलाया, पर कबीर के बादशाह तो केवल श्रीराम थे, अतः उन्होंने इस बादशाह को सलाम नहीं किया। क्रोध से राजा ने इन्हें जंजीरों से बंधवाकर गंगा में फेंकवा दिया, पर आप राम-राम कहते हुए तट पर आ खड़े हुए। पुनः इन्हें आग से जलाने तथा हाथी से कुचलवाने का भी प्रयत्न किया गया। पर भगवान् श्रीराम स्वयं आपकी रक्षा करते थे, अतः आपको कुछ नहीं हुआ। उलटा आपके ऐश्वर्य का ज्ञान बादशाह को हो गया और वह आपका शरणागत हुआ। प्रयागकुंभ के अवसर पर कबीर जी स्नान करने गए। सिकन्दर लोदी भी फकीर शेखतकी के साथ पहुँचा था। तीनों त्रिवेणी स्नान करने गए। उसी समय धारा में एक बालक का शव बहता हुआ दिखायी पड़ा, जिसे पुकारकर कबीर ने अपने पास बुला लिया। इसी प्रकार एक राजा ने अपनी मृत लड़की को जमीन में दफना दिया था। तीन दिन बाद कबीर ने उसे जीवित निकाल लिया। यही दोनों बालक-बालिका कमाल और कमाली के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपकी पत्नी कोई सिद्धा थी। कबीर की साधना व सिद्धि समकालीन प्रशस्त व उच्च कोटि की थी। एक बार जगन्नाथ पुरी में एक ही काल में सत्संग तथा जगन्नाथ जी को चंवर करने की लीला से आपने सभी को स्तम्भित कर दिया। आपकी सिद्धि की ख्याति सुदूर देश तक थी। आपने बलखबुखारा जाकर वहाँ के बादशाह के पुत्र को जीवित किया था। एक दिन सन्त-सेवा के लिए घर में कुछ न होने के कारण आपने कमाल के साथ एक घर में सेंध लगाई। स्वयं तो निकल गए, पर कमाल जाग होने केसम्बोधित करते हुए रामभक्ति का उपदेश दिया। अप्सरा स्वर्ग लौट गयी। साक्षात् भगवान् श्रीराम दर्शन देकर इच्छानुसार मर्त्यलोक में रहकर स्वधाम आने को कहकर अन्तर्धान हो गए। पर कबीर ने सत्संग के सामने साकेतधाम को पी ठुकरा दिया- राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय। जो सुख साधू संग में, सो बैकुण्ठ न होय ।। शरीर त्यागने की जब इच्छा हयी तो आप मगध (मगहर) चले गए। मगधराज काशीराज की उपस्थिति में ही संवत् १५४९ के अगहन शुक्ल एकादशी तिथि को आप श्री साकेतधाम पधार गए।

११०/श्रीमठ प्रकाश

महाभागवत श्रीसेन

विदित बात जग जानिये हरि भए सहायक सेन के । ।

प्रभूदास के काज रूप नापित को कीन्ह्यो ।

क्षिप्र क्षुर हरि गह्यो पाणि दर्पन तहँ लीन्ह्यो । ।

तादृश होइ तेहि काल भूप के तेल लगायो ।

उलटि राव भयो शिष्य प्रगट परिचै जब पायौ । ।

श्याम रहत सन्मुख सदा ज्यों वच्छाहित धेनु के ।

विदित बात जग जानिये हरि भए सहायक सेन के । ।

श्री नाभा स्वामी कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भगवान् के शस्त्र न धारण करने की प्रतिज्ञा भीष्म पितामह के भीषण युद्ध के कारण भंग हुई थी । भगवान् ने तो अपनी प्रतिज्ञा भंग करके भक्त की रक्षा की थी । किन्तु भीष्म का यही अपराध उन्हें कलियुग में जन्म का कारण बना । बान्धवगढ़ के निवासी उग्रसेन नापित की सुशीला धर्म-पत्नी यशोदा के गर्भसे वृद्धावस्था में वैशाख कृष्ण द्वादशी, रविवार को पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में बालक के रूप में पितामह ने जन्म लिया । तुला राशि में जन्म लेने के कारण बालक का नाम 'रामसेन' रखा गया । बालक का भरण- पोषण माँ-बाप बड़े प्यार से करते थे । काल-चक्र के साथ रामसेन के शारीरिक अवयवों में भी वृद्धि होती गयी । अंग-अंग से स्फूर्त्ति व तेज की छटा छटकती थी । पाँच साल की अवस्था में उससे पंजा लड़ाने मेंकोई जीत नहीं पाता था । दस वर्ष में तो वह एक पहलवान-सा दीखता था । शुभमुहूर्त में रामसेन ने हर्षोल्लास के वातावरण में अपने पैतृक कार्य का श्रीगणेश किया । उसे क्षौर-कर्म में इतनी दक्षता प्राप्त थी कि सोए हुए व्यक्ति का भी और कर्म कर देता था । इस गुण के कारण ही रामसेन को बांधवगढ़ के राजा ने अपनी व्यक्तिगत सेवा में नियुक्त कर लिया । राजा हमेशा उसे अपने साथ रखता था । एक बार बांधवनरेश के साथ रामसेन काशी पहुँचा । राजा की सेवा से निवृत्त होकर वह गंगा तट पर घूमते हुए एक संन्यासी से मिला । संन्यासी बाबा का उसने क्षौर-कर्म तो किया, पर बहुत समझाने के बाद भी चोटिया नहीं मूड़ी । लोगों के कहने पर संन्यासी और नाई श्रीमठ में जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य के पास निर्णयार्थ पहुँचे । आचार्य श्री के समझाने पर उसने बाबा की चुटिया मूड़ी । पुनः वह आश्रम पर पहुँचा । उसी समय आचार्य श्री की गम्भीर शंख-ध्वनि के श्रवण मात्र से उसे पूर्व कर्मों का ज्ञान हो गया और आचार्य श्री के शरणागत होकर दीक्षा की याचना करने लगा । आचार्य श्री से दीक्षा तथा साधु-सेवा की आज्ञा प्राप्त कर राजा के पास वापस आ गया । जब तक राजा काशी में रहे, रामसेन प्रतिदिन गुरु-दर्शन हेतु आता था । एक दिन महाभारत कथा का श्रवण करते हुए धर्मराज के प्रति भीष्म पितामह के उपदेश को सुनकर रामसेन का बलिष्ठ शरीर पसीना से लथपथ हो निश्चेष्ट हो गया । अनन्तानन्दाचार्य जी के प्रयास से उसकी चेनता वापस आयी । आचार्य श्री ने तो परमभक्त रामसेन को गले से लगा लिया तथा अपने गले का पुष्पहार उसके गले में डाल दिया और समुपदेश व साधु-सेवा की आंज्ञा देकर घर जाने को कहा । आचार्य-चरणों में दण्डवत् प्रणाम कर व गुरु- भाइयों से गले मिलकर रामसेन राजा के साथ घर आकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा ।

रामसेन निष्ठापूर्वक साधु-सेवा करने लगा । साधु-सेवा की निष्ठा से मनुष्य श्रीमत् विभूतिमत् व ऊर्जित्व तक पहुँच जाता है । इसी निष्ठा से निरवच्छिन्न बारह वर्षों की सेवा के बाद आपको दिव्य महात्माओं के दर्शन प्राप्त होने लगे । एक दिन हृष्ट-पुष्ट व तेजस्वी महात्मा द्वार पर पधारे । आसनादि प्रदान कर महात्मा की आज्ञा से आपने साश्चर्य एक पाव मिर्च का रस उन्हें भोजन रूप में अर्पित किया । महात्मा जी ने उन्हें समझाया कि मन के स्वस्थ रहने पर ही शरीर स्वस्थ रह सकता है, अतः मन को ही स्वस्थ रखना नितान्त आवश्यक है । सत्संग के बाद चलते समय महात्मा ने सेन जी को एक बीजक तथा एक मूँगा दिया । बीजक को भण्डार में रख दिया गया । महात्मा जी की सेवा में रत होने के कारण कुछ विलम्ब हो गया था । सेनजी मूँगा लेकर राजा के पास उपस्थित हुए तथा विलम्ब हेतु क्षमा याचना करने लगे । सेन जी से अपराध हुआ हो तब तो क्षमा की बात उपस्थित हो । उधर सेन जी साधु-सेवा में रत थे । इधर भगवान् तद्रूप होकर भक्त का काम कर गए थे । राजा तुरन्त ही इस बात को ताड़ गया और जिसकी भक्ति के वश में आकर भगवान् ने यह लीला रची थी, उसके पैरों में गिरकर दीक्षा की याचना करने लगा । दोनों एक दूसरे के भाग्य की सराहना कर रहे थे । एक के वश में भगवान् थे, तो दूसरे की स्वयं भगवान् ने सेवा की थी । अस्तुः राजा ने रामसेन को गुरु बना लिया तथा राजकोश से विपुलसम्पत्ति साधु-सेवा के लिए प्रदान कर नित्य रात्रि में गुरु-दर्शन व सत्संग के लिए सेन जी के पास जाने लगे । सेन जी भी अब एकान्त में भगवच्चिंतन किया करते थे । साधु-सेवा अनवरत चलती थी । उनके मकान के पास एक सुन्दर अमराई थी । उसी में आप यदा-कदा बैठकर भजन करते थे । एक दिन आप अमराई में पहुँचे तो एक दिव्य सन्त को बैठा पाया । जिसके सिर से रक्त-स्त्राव तथा मुख पर प्रसन्नता व अमिट तेज विराजमान था । भक्त सेन जी उन्हें दण्डवत् प्रणाम कर उस शोभा को निहारने लगे । महात्मा के निवेदन करने पर सेन ने उनके सिर पर तीन बार हाथ फेरा, जिससे सिर का रक्त स्राव व वेदना समाप्त हो गयी । पुनः सत्संग व सदुपदेश देकर महात्मा के अदृश्य हो जाने पर एक पक्षी ने आपको बोध कराया कि महात्मा के वेश में अश्वत्थामा थे । महात्मा जी के सदुपदेश से भगवद्दर्शन की लालसा तीव्रतम हो गयी । भूख- प्यास, नींद सब समाप्त हो गये । प्रिय-वियोग में रोते-रोते आप मूच्छित हो गए तो भगवान् बालक के रूप में खीर लेकर उपस्थित हुए, जिसे खाकर स्वस्थ होने पर आप भगवान् को पहचान कर चरणों में गिर पड़े तथा अपराध क्षमा करने की व वास्तविक रूप से दर्शन की याचना करने लगे । भगवान् ने विभिन्न रूपों में दर्शन देकर भक्त को कृतार्थ किया । भक्त की आँखें सजल थीं, जिसे भगवान् का पीताम्बर पी रहा था । भक्त-भगवान् के इस मिलन पर आकाश से पुष्प-वृष्टि होने लगी तथा भगवान् के सामने ही भगवत्पार्षद दिव्यविमान में बैठाकर उन्हें नित्यधाम साकेतपुरी ले गए ।

महाभागवत श्रीधनानन्द

धन्य धना के भजन को बिनहि बीज अंकुर भयो । ।

घर आए हरिदास तिनहिं गोधूम खवाये ।

तात-मात डर खेत शोथ लांगूल चलाये । ।

आस-पास कृषिकार खेत की करत बड़ाई ।

भक्त भजे की रीति प्रगट परतीति जु पाई । ।

अचरज मानत जगत में कहुं निपज्यो कहूँ वै वयो ।

धन्य धना के भजन को बिनहि बीज अंकुर भयो । ।

श्री नाभा स्वामी एक बार भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के साथ बलि से मिलने गए । बलि को दैत्य-कुल पर अभिमान था । देवता व मनुष्य को नीच समझता था । अतः भगवान् को अन्दर बुला लिया और युधिष्ठिर से छिप गया । बस, यही अहंकार उसके जाट कुल में जन्म का कारण बना । इस अभिमान को प्रोत्साहन देने के कारण उसके गुरु शुक्राचार्य को भी नृसिंह शर्मा के नाम से जन्म लेना पड़ा । वैशाख कृष्णाष्टमी शनिवार को पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में पन्ना जाट की पत्नी रेवा के गर्भ से कलियुग में बलि ने जन्म लिया, जिसका नाम पड़ा- 'धन्ना' । बालक की मनोहारिणी छबि सभी को आकर्षित करती थी । नृसिंह शर्मा भी घूमते-घूमते इस गाँव में पधारे तथा पन्ना जाट के यहाँ अतिथि हुए । धन्ना उनके ठाकुर-पूजन हेतु फूल-तुलसी लाया करता तथा बैठकर ध्यान से ठाकुर-पूजन देखा करता । शर्मा जी सेजाते समय हठपूर्वक उसने एक शालिग्राम ले लिया, जिसकी सेवा में वह निरत रहता । पहले ही दिन उसने ठाकुर के समक्ष भोग की थाली अर्पित की, पर भगवान् को भोग लगाते न देखकर स्वयं न खा सका । चार दिन व्यतीत हो गए, वह इसी आशा में भूखा-प्यासा बैठा रहा कि भगवान् के खाने के बाद ही खाएगा । पाँचवे दिन भगवान् ने प्रकट होकर भोग ग्रहण किया । अब प्रतिदिन भगवान् उसका भोग ग्रहण करने लगे । भगवान् और भक्त की घनिष्ठता बढ़ती गयी । घन्त्रा की गायों को भगवान् स्वयं चराने लगे । कुछ दिनों के बाद नृसिंह शर्मा उपस्थित हुए तो धन्ना ने बताया कि भगवान् मेरा भोग ग्रहण करते हैं तथा सदा मेरे साथ ही रहते हैं । नृसिंह जी के दर्शन करने की इच्छा पर भगवत् प्रेरणा से धन्ना ब्राह्मण की गोद में बैठा, तो उन्हें दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी । भगवान् के दर्शन से उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो गया । वे भगवत् स्तुति करते हुए क्षमा याचना करने लगे । एक दिन दूध दुहने के बाद कुछ साधु आए, जिन्हें धन्ना ने सारा दूध पिला दिया । माता छुप कर यह कृत्य देख चुकी थी और प्रसन्न ही हुई थी । माता के बोलने के भय से वह जंगल में जा बैठा । इधर माता जब घर गयी तो सभी पात्र दूध से भरे पड़े थे । पता किया तो बाहर कहीं से दूध आया नहीं । वह आश्चर्य में पड़ गयी । पर वह भगवत्कृपा न समझ सकी । इसी प्रकार रसोई घर के सारे भोजन भगवान् को अर्पण कर अवशिष्ट साधुओं को बाँट दिया करते, पर रसोई घर में भोजन की कमी नहीं होती थी । नित्य-नये चमत्कारों से पारिवारिक-सदस्य चमत्कृत थे । एक बार एक जटाधारी सन्त ने आकर धन्ना जी को त्रिशंकु की तरह अधर में लटका दिया और भिक्षा की याचना की । भगवत्कृपा से उनके हाथ में दो फल आ गए । वह सन्त जी से आकर भिक्षा लेने को बोले । सन्त आकाश-अवरोहण की विधि जानते नहीं थे । संकुचित हो गए, तो धन्ना जी ने नीचे उतर कर उन्हें भिक्षा प्रदान कर विदा किया । उनके जीवन में विवाह प्रसंग भी आया, किन्तु जब फलदान की बारी आयी, तो आप नकार गए ।

भला ऐसा हो भी क्यों नहीं? जो जन्म-जन्मान्तर से केवल दान देता हो, वह दान कैसे ले सकता था । इस प्रकार आपने विवाह-प्रसंग टाल दिया । यथासमय ठाकुर की प्रेरणा से आप काशी आ गए । श्रीमठ में जाकर श्री रामानन्दाचार्य को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किए । आचार्य श्री सभी रहस्यों को जानते थे । शरणागत को श्रीवैष्णवी दीक्षा तथा साधु-सेवा की आज्ञा प्रदान की । कुछ दिन श्रीगुरु-चरणों के आलौकिक आनन्द-रस का पान कर आप घर चले गये । समदर्शिता की भावना आप में भी थी । निष्ठापूर्वक साधु-सेवा आपका धर्म था । एक बार बीज के गेहूँ को साधु-सेवा में लगाकर खेत में यों ही हल चौकी चलाकर चले आये । पड़ोस वाले इस कृत्य का मजाक उड़ाते थे, किन्तु यथासमय उस खेत में बीज उग आए तथा अन्य साल की भाँति अच्छी उपज हुई । इनके दिव्यचरित्र की ख्याति चतुर्दिक फैल रही थी । दूर-दूर से लोग इनके दर्शन को आते थे । इनके दर्शन में अधिकांश युवतियाँ थी, जो इनकी अलौकिक आभा से आकर्षित थीं । धना जी पर न्योछावर होने वाली युवतियों में एक विधवा जाटिन थी, जो हर प्रकार से इनकी तथा इनके अभ्यागतों की सेवा करती थी । इन्हीं के घर में रहती थी । अतः उसके संसर्ग से इनके अन्तर्जगत् में हलचल मच गयी । इनके हृदय को काम ने मथ दिया । अस्तु, आप हमेशा विवेकपूर्वक काम करते थे । 'न मे भक्तः प्रणश्यति' इस 'भगवद्वचन पर आपकी दृढ़ निष्ठा थी । यह सब तो उनकी परीक्षा के लिए रचा हुआ जाल था । साधु-सेवा करने से उस रमणी का हृदय भी निर्विकार हो गया । उसके विचार पवित्र हो गए । इस प्रकार आपने अपने विकारों को नष्ट कर दिया । जिसके जीवन की बागडोर स्वयं भगवान सम्भालते हों, वह भला धोखा कैसे खा सकते थे । आप रामभक्ति तथा भजन सत्संग में सदा लीन रहते थे । एकान्त सेवन करते हुए भगवच्चिंतन करते थे । सुबह-शाम केवल दर्शनार्थियों को उपदेश देने ही बाहर आते थे । एक समय एकान्त कोठरी में भजन करते समय राघवेन्द्र सरकार के पार्षद आए तथा उनहें दिव्यविमान में बैठाकर नित्य-धाम साकेतपुरी लेकर चले गए ।

११६/श्रीमठ प्रकाश

धन्ना

धन्ना के बारे में अतिरिक्त जानकारी

महाभागवत रैदास

सदाचार श्रुति शास्त्र वचन अविरुद्ध उचार्यो ।

नीर दीर विवरन परम हंसिनि उर धार्यो । ।

भगवत्कृपा प्रसाद याद परगति इहि तनु पाई ।

राज सिंहासन बैठि ज्ञाति परतीति दिखाई । ।

वर्णाश्रम अभिमान तजि पदरज वन्दहिं जासु की ।

सन्देह ग्रन्थि खण्डन निपुण वाणी विमल रविदास की । ।

स्वामी नाभाजी महाभागवत रैदास जी को धर्मराज का अवतार माना जाता है । बिप्रशाप वश आपको तीन बार माता के गर्भ से जन्म लेना पड़ा । पहला जन्म तो विदुर रूप में हुआ । दूसरा जन्म बनारस के असला नामक ग्राम के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ । एकलौता पुत्र होने के कारण आप परिजनों को बहुत प्यारे थे । प्रसव-काल में ही अपनी दिव्य आभा से जन्म-कर्म की दिव्यता का ज्ञान करा दिया । आपका नाम कपिलदेव रखा गया । आपका बाल स्वभाव सामान्य बच्चों से विलक्षण था । कुछ बड़े होने पर आप माता का दूध व अन्य खाद्यसामाग्री का त्याग कर मात्र पायस का सेवन करने लगे । कुमारावस्था में आप एक दिन आम्रवन में घूम रहे थे । सर्वत्र बसन्त का साम्राज्य था । वातावरण का प्रभाव मन पर पड़ा, पर आपके उद्‌गार और उमंग सब सात्त्विक थे । अतः आपने चार विलक्षण संकल्प किये । पहला तो भजन करना चाहिए । दूसरा यह कि बाल ब्रह्मचारी को एकान्त में नहीं रहना चाहिए । अतः जगद्‌गुरु, रामानन्दाचार्य से दीक्षा ग्रहण कर वहीं रहना चाहिए । तीसरा क्रोध नहीं करना चाहिए और चौथा निश्चय किया कि कभी भी बुद्धि को विचलित नहीं होने देना है । अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति हेतु आप दूसरे दिन ही काशी के लिये प्रस्थित हए । काशी पहुंचने पर एक वैश्य ने आपका सत्कार किया । उससे प्राप्त सामग्री से प्रसाद (पायस) बनाकर भोग लगाया तथा वैश्य से पूछकर पंचगंगा घाट पर स्थित श्रीमठ पहुंचे । यथोचित समय में जगद्गुरु रामानन्दाचार्य का दर्शन कर वैष्णवीदीक्षा प्राप्त कर वहीं रहने लगे । धीरे-धीरे आचार्य का पायस बनाने की सेवा आपके जिम्मे आ गयी । आपकी सेवा से सभी आश्रमवासी प्रसन्न थे । एक दिन कथित वैश्य के घर से भिक्षा प्राप्त कर आपने पायस बनाया । वैश्य की दुकान में चमारों का दुषित धन था । अत: वैष्णवों के लिए त्याज्य था । यही कारण था कि भोग लगने वाला था । उसी समय कन्या के रूप में स्वयं गंगा जी एक कटोरा पायस लेकर आचार्य श्री के सामने उपस्थित हुई और ब्रह्मचारी द्वारा निर्मित पायस को अग्राह्य बातकर चली गयीं । योग से स्वामी जी ने सारा वृत्तान्त जान लिया । गंगा द्वारा प्रदत्त पायस को भोग लगाकर सभी को प्रसाद वितरित किया गया, पर कटोरा कभी खाली न हुआ । ब्रह्मचारी कपिलदेव के अज्ञात अपराध के कारण स्वामी जी का शाप लग गया । उसका शरीर छूट गया और वह पुर्यष्टक में स्थित होकर भजन करने लगा । कपिलदेव की मृत्यु से सभी आश्रमवासी दुःखित थे । आचार्य श्री ने उन्हें मर्म समझाकर आश्वासन देते हुए कहा कि वह शीघ्र ही अपने एक जन्म को पूरा करने आयेगा । गंगा दशहरा के दिन स्नान करते समय काशी निवासी रग्धू चर्मकार धारा में बहती हुई एक स्त्री को बचा कर घर लाया । पूछने पर स्त्री ने बताया कि वह विप्र-कन्या है । उसके माता-पिता मर चुके हैं और वह भी प्राणान्त करने के लिए गंगा में कूद पड़ी थी । कई ब्राह्मणों ने उससे विवाह का प्रस्ताव रग्घू के पास रखा । पर रग्बू ने वर चुनने का अधिकार कन्या को ही दिया । रग्घू की स्त्री भी मर चुकी थी और वह पत्नी की खोज में था । इधर कन्या ने सोचा कि गंगा से इसने मुझे बचाया है, मेरे अंगों का स्पर्श किया है । अतः मेरा जीवन इसके लिए ही है । जाति-बिरादरी की सहमति से दोनों का विवाह हो गया । वर्ष भर में ही उस ब्राह्मणी ने एक पुत्र को जन्म दिया । जिसके जन्म लेते ही आकाशवाणी हुई- धर्मराज-यमराज महाभागवत परोपकारी । सेत मेत कला पाँच वैद्य स्नायुधारी । । तीन लोक रहित शोक कपिल ब्रह्मचारी । आयो है तारन जग मोह-तिमिर हारी । । अब रैदास अलग झोपड़ी बनाकर साधु-सेवा में रत रहने लगे । 'भगवान श्रीराम रैदास की भक्ति से बहुत ही प्रसन्न थे । अतः सन्त वेश में आपके घर पधारे ।

रैदास कृतकृत्य होकर उनकी सेवा करने लगा । अलग भोजन की व्यवस्था होने पर भी सन्त जी ने हठ करके रैदास के हाथ का बना प्रसाद ही भोग लगाया । चलते समय सन्त जी ने आपको एक पारसमणि दिया, पर आपने लेने से साफ इन्कार कर दिया तो सन्त जी उसे छप्पर में सुरक्षित रखकर चले गए किन्तु तेरह मास व्यतीत होने पर भी आपने उसका उपयोग नहीं किया, पुनः आकर सन्त रूप में भगवान् ने उसे सोना बनाकर दिया, पर उसे भी आपने इनकार कर दिया । अब भगवान् पूजा के समय ठाकुर जी के आसन के समीप पाँच स्वर्ण मुद्रायें रोज रखने लगे, जिसे चिमटा से पकड़कर आप गंगा को आर्पित किया करते । अन्ततः भगवान् ने स्वप्न में उसे ग्रहण कर साधु-सेवा करने की आज्ञा दी, जिसे परमधर्म मानकर आपने स्वीकार किया । नित्य ही पाँचों मुद्राओं को सन्त-सेवा में खर्च कर देते थे । नित्य भव्य भण्डारों का आयोजन होता । भव्यमन्दिर व सन्तनिवास का आयोजन हुआ । काशी के विद्वेषी ब्राह्मण रैदास की समृद्धि से जलभुन गए । भक्तों के विरोध से भक्ति का प्रचार होता है अतः भगवान् भी विरोध के लिए प्रेरित करते हैं । अस्तु, विद्वेषी ब्राह्मणों द्वारा काशीराज से शिकायत किये जाने पर काशीराज ने रैदास को बुलाकर कहा कि तुम्हारा आचरण वेद विरुद्ध है । अतः भगवत्पूजन छोड़ दो । रैदास ने कहा कि भगवान् को मेरी भक्ति प्रिय है । इसकी परीक्षा के लिए जनसमूह के सामने ब्राह्मणों ने वेद-मन्त्रों से भगवान् का आह्वान किया, पर वे न आए । रैदास ने स्तुति की तो सिंहासन सहित भगवान् शालग्राम उनकी गोद में आकर बैठ गए । चित्तौड़ की रानी झाली धर्मनिष्ठ महिला थी । दीक्षा हेतु गुरु की खोज करती हुई वह काशी आयी । रैदास का नाम सुन रखी थी, अतः दर्शन करने गयी और प्रथम दर्शन में ही उन्हें गुरुरूप में स्वीकार कर लिया । दीक्षा की प्रार्थना को रैदास जी स्वीकार नहीं कर रहे थे । परन्तु रानी के अन्न-जल त्याग देने पर विवश होकर दीक्षा देनी पड़ी । जिससे ब्राह्मणों में विद्वेष दौड़ गया । रानी ने विदा होते समय चित्तौड़ में दर्शन देने के लिए रैदास को राजी कर लिया । रानी के आग्रह पर आप चित्तौड़ पधारे । वहाँ आपका भव्य स्वागत हुआ । बड़े-बड़े भण्डारे हुए । ब्राह्मणों ने भोजन करना स्वीकार नहीं किया, तो उन्हें भोजन- सामग्री दे दी गयी । पर जब वे भोजन के लिए पधारे तो हर दो ब्राह्मणों के बीच एक रैदास दिखायी पड़ें । इस चमत्कार से सबकी आँखें खुलीं । जब सिंहासन पर बैठकर आप उपदेश कर रहे थे, उस समय राजा- रानी के साथ विशाल जन-समूह था, जिसमें सभी बाहाण ही थे । वही आपने अपनी त्वचा छीलकर सोने का यज्ञोपवीत सभी को दिखाया । अब आपके दिव्यपुरुष होने में किसी को भी सन्देह नहीं था । उसी समय मीरा ने भी आपकी गोद में गोपाल का दर्शन कर आपका शिष्यत्व स्वीकार किया- मीरा मेरे सन्त है, मैं सन्तन की दास । चेतन सन्ता सेन थे, दीसत गुरु रैदास । । नहीं मैं पीहर सासरे, नहीं पिया के पास । मीरा को गोविन्द मिले, गुरु मिले रैदास । । एक दिन काशी नरेश आपके दर्शन के लिए आए, तो आपने उन्हें चरणामृत दिया, पर राजा चमड़ी भिगोने वाली कठौती का जल समझकर उसे न पी सका, कोट पर गिरा दिया । पानी का पीला दाग छुड़ाने के लिए धोबी को दिया । दाग छुटता नहीं था । धोबी ने उसे दांत से नोचा और रामभक्ति की धारा में बह गया । राजा हाथ मलते रहे । एक दिन गुरु गोरखनाथ जी आए । पीने के लिए पानी माँगने पर रैदास ने कठौती का जल दिया, जिसे अशुद्ध समझकर गोरखनाथ अपने खप्पर में रखकर कबीर जी के यहाँ गए । वहाँ कमाली उस जल को पी गयी । कालान्तर में वह ब्याह कर मुल्तान चली गयी । गोरखनाथ घूमते हुए वहाँ पहुँचे । अपनी सिद्धि से वे सभी को प्रभावित करते थे । इनके खप्पर को कोई अन्न से भर नहीं पाता था । कमाली ने आमंत्रित कर दो चम्मच से इनका खप्पर भर दिया और अपना परिचय देते हुए कहा कि यह आपके खप्पर के जल का प्रभाव है । आप रैदास से पुनः कठौती का जल माँगो, तो उन्होंने कहा- प्यासे थे तब पिया नहीं, जिन पिया पिया को जान लिया । भूला जोगी फिरे दीवाना वह पानी मुल्तान गया । । एक ब्राह्मण नित्य गंगा स्नान करने जाते थे । कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर रैदास ने उन्हें दो केला दिये और कहा कि गंगा जी को दे देना तथा वे आशीर्वाद स्वरूप जो दें, मुझे दे देना । गंगा जी ने स्वयं हाथ बढ़ाकर आपके केले लिए तथा एक सुवर्ण कंकण दिया । ब्राह्मण लोभवश वह कंकण ले जाकर सुनार के घर बेच दिया । सुनार की पत्नी से रानी ने वह प्राप्त किया तथा वैसा ही कंकण बनवाने के लिए पति से प्रार्थना की, पर कोई भी सुनार वैसा कंकण बना नहीं पाया । खोज होने पर पता चला कि वह कंकण गंगाजी ने रैदास को दिया था । राजा रैदास के पास पहुंचा, तो रैदास ने गंगा का आवाहन किया । वहीं पर गंगा ने हाथ बढ़ाकर कंकण दिया । इस चमत्कार से सभी लोग नतमस्तक हो गए ।

पद्मावती

पद्मावती के बारे में अतिरिक्त जानकारी

सुरसुरि (स्त्रियाँ)।

सुरसुरि (स्त्रियाँ) के बारे में अतिरिक्त जानकारी

जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।