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ऐसे संत कम हैं

ऐसे संत कम हैं

प्रसिद्ध पत्रकार
रामबहादुर राय

ऐसे संत कम हैं, जो विद्वान भी हैं और अपनी बात ढंग से रख सकते हैं। इनकी जो पहली योग्यता दिखती है, वह है अपने पंथ के बारे में और उसके इतिहास के बारे में बचपन से ही आकर्षण। यह भी नहीं है कि मठ के आकर्षण ने उन्हें संत बनाया हो। कई बार ऐसा भी होता है, मठ का वैभव लूटने के लिए लोग संत बन जाते हैं। बनारस में जहां ये रहकर पढ़े-लिखे हैं, एक संस्कृत विद्यालय में। उस संस्कृत विद्यालय के सामने साहित्यकार मनु शर्मा रहते थे, उनके बहुत सारे उपन्यास हैं। तब मनु शर्मा की इन सब चीजों में रुचि नहीं थी, लेकिन मनु शर्मा की धर्मपत्नी रामनरेशाचार्य जी को (तब वे रामनरेशाचार्य नहीं हुए थे) बहुत मानती थीं और अपने परिवार में यह चर्चा करती थीं कि इस लडक़े को यहां से निकालना चाहिए, बहुत प्रतिभा है, बहुत क्षमता है और संस्कृत पढक़र ये भविष्य में क्या करेंगे।.. लेकिन ये उनका अपना स्नेह था, जो बालक रामनरेशाचार्य जी पर बरसता था। इससे यह मालूम होता है कि साधना करके वे यहां तक पहुंचे हैं। यह स्वाध्याय और प्रार्थना का बल है, जो वे यहां तक पहुंचे हैं। यह बात उनमें दिखाई भी पड़ती है, जो व्यक्ति स्वाध्याय और साधना से ऊपर उठता जाता है, उसमें एक स्वाभिमान भी होता है, जो रामनरेशाचार्य जी में भरपूर दिखता है।
धारणा तो यह है कि वे दिग्विजय सिंह के करीब हैं और कुछ हद तक कांग्रेस हाईकमान के भी. मेरी धारणा यह है कि दिग्विजय सिंह चूंकि रामानंद जी के एक प्रिय शिष्य संत पीपा के वंशजों में से एक हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से रामनरेशाचार्य जी का उनसे भावनात्मक लगाव है। परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि दिग्विजय सिंह जैसा चाहेंगे, वैसा रामनरेशाचार्य जी को चलाएंगे। संत को या एक मठाधीश को जिस तरह से स्वतंत्र रहना चाहिए, वो सारी चीजें उनमें दिखती हैं। इसीलिए जो इनके कामकाज हैं, सारा कुछ रामानंद संप्रदाय के लिए है। मेरा मानना है, यह अकेला संत संप्रदाय है हिन्दू समाज में, जिसमें बहुजन हैं। यानी समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व है और यही वजह थी कि जब समाज पर संकट था, तो इसमें वैरागी भी थे, इसमें संन्यासी भी थे। उस परंपरा को आज के संदर्भ में जीवित करने और उसमें नई जान डालने की कोशिश रामनरेशाचार्य जी कर रहे हैं और ये करते हुए उनके सामने साधनहीनता का संकट भी रहता है, किन्तु ज्यादा झुककर किसी से मदद लेने वाले वे नहीं हैं। एक सामाजिक सरोकार भी उनके मन में रहता है, जो इस संप्रदाय का स्वाभाविक पक्ष है।
मेरा थोड़ा-बहुत संपर्क है, कई ऐसे लोगों से जो मठों पर काबिज हैं। मैं देखता हूं कि ज्यादातर मठाधीश मठ की सत्ता और मठ की संपत्ति में ही डूबे रहते हैं, फंसे रहते हैं। इसके विपरीत रामनरेशाचार्य जी तटस्थ दिखते हैं और यह उनके व्यक्तित्व में भी प्रकट होता है। जहां वे चातुर्मास करते हैं, वहां हर वर्ग के लोग जुटते हैं, शायद ही किसी अन्य संत के चातुर्मास में इतने और इतनी विधा के लोग जुटते हैं। शायद ही किसी अन्य संत के चातुर्मास काल में आज के जो प्रासंगिक विषय हैं, उन पर चर्चा होती हो, लेकिन रामनरेशाचार्य जी ने एक सिलसिला शुरू किया है। यह सिलसिला बिल्कुल नया है। यह आगे बढ़ता है, तो बहुत उपयोगी होगा।
राजनीतिक रुझान भी उनमें मुझे लगता है, लेकिन सत्ता वगैरह के कारण नहीं, बल्कि जहां इनको ठीक लगता है, वहां राजनीतिक हस्तक्षेप का भी वे प्रयास करते हैं और समाज में उसका संदेश भी जाता है। जैसे २००९ के चुनाव में उन्होंने बनारस में मुरली मनोहर जोशी के पक्ष में कोई भाषण तो नहीं किया, बैठे-बैठे ही उन्होंने अपने लोगों को यह कहा कि यहां जो चुनाव हो रहा है, उसमें ये विद्वान आदमी हैं, ठीक आदमी हैं और माफिया के मुकाबले में इन्हें जिताना ठीक रहेगा। इसका असर भी हुआ।
श्रीमठ का महत्व
पंचगंगा घाट पर रामानंद संप्रदाय की मूल पीठ श्रीमठ स्थित है और पंचगंगा घाट बनारस में एक छोर पर है, जहां वरुणा गंगा में मिलती हैं, उससे थोड़ी ही दूर पर काशी स्टेशन के पास पहले पंचगंगा घाट है, वहीं से बनारस शुरू होता है। या तो गलियों से होकर आप वहां जा सकते हैं या सीधे नाव से जा सकते हैं। मेरा खयाल है कि काशी विश्वनाथ मंदिर को तोडऩे के बाद मुगल बादशाह औरंगजेब ने दूसरा निशाना साधा पंचगंगा घाट के श्रीमठ पर। हमले के बाद रामानंद जी के केवल दो पदचिन्ह वहां बचे रह गए। श्रीमठ जीर्ण-शीर्ण हो गया था, उसका रामनरेशाचार्य जी ने पुनरोद्धार किया है और जैसी व जितनी जगह है, वहां श्रीमठ को एक जीवित केंद्र के रूप में इन्होंने पुन: स्थापित किया है।
(रामबहादुर राय अपने समय में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहे हैं। जेपी आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, उन्होंने जनसत्ता और नवभारत टाइम्स में महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है, दिल्ली के जाने-माने पत्रकार हैं. प्रधानमंत्रियों तक उनकी पहुँच रही है, उनकी अनेक किताबें प्रकाशित हैं। उनके विचारों को राजनीति, पत्रकारिता व संत समाज में भी पूरी गंभीरता से लिया जाता है।)

जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।