सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।

वंदे गुरु परम्पराम

वंदे गुरु परम्पराम

राम राघव राम राघव राम राघव रक्ष माम
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम
राम राघव राम राघव राम राघव रक्ष माम
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम.
प्रभु की अनुकम्पा, असंख्य पूर्व जन्मों के पुण्य प्रताप के प्रकट होने के कारण हम सभी लोगों को सर्वश्रेष्ठ भारत भूमि सर्वश्रेष्ठ वैदिक सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन की प्राप्ति हुई है। मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठता केवल ऐसे ही संपन्न नहीं हुई होगी। जब तक हम इसके माध्यम से परम फल को नहीं प्राप्त करेंगे। भगवान के दिव्य धाम जाने के बाद वापस नहीं लौटना पड़ता है। ८४ लाख योनियों में से किसी योनी को प्राप्त नहीं करना पड़ता है। जीवन के सम्पूर्ण अभाव, कुरूपता, सम्पूर्ण अप्रतिष्ठा, सम्पूर्ण जीवन की जो विडंबना है, वह हमेशा हमेशा के लिए दूर हो जाती है। हमें इस मानव जीवन के माध्यम से उसको प्राप्त करना है। कैसे उसकी प्राप्ति होगी, इसके लिए शास्त्रों में जो निर्देश हैं कि हम भगवान को सुनें, उनको गाएं, उनका स्मरण करें. उसके माध्यम से भगवान प्रसन्न होंगे। वह हमें परम फल को देंगे, परम अवस्था को देंगे। भगवान तो वैसे दयालु हैं, लेकिन जब हम उनके निर्देश के अनुसार जीवन बिताने लगते हैं, तो उनकी दया का हमें अनुभव होने लगता है। उनकी विशेष दया हमारे ऊपर बरसने लगती है, तो हमें परम फल की प्राप्ति होती है। वैसे तो उन्होंने हमें जीवन दिया, वर्षा दे रहे हैं, भोजन दे रहे हैं, वायु दे रहे हैं, प्रकाश दे रहे हैं, अवकाश दे रहे हैं, आकाश दे रहे हैं, यह सभी भगवान ही दे रहे हैं। कल्पना कीजिए अगर आकाश नहीं होता, तो हम आवागमन कैसे करते हैं। आकाश ही अवकाश प्रदान करता है। उससे आवागमन संपन्न होते हैं। पृथ्वी ही आधार प्रदान करती है, जिस आधार पर हमारा जीवन व्यवस्थित है, नहीं तो हम कहां रहेंगे। कहीं भी आधार आपको प्राप्त हो, तो पृथ्वी का ही स्वरूप आपको प्राप्त होता है। चाहे आप हवाई जहाज में हों या जल में, जल में आखिर कितनी देर तक ठहरेंगे आप।
तो भगवान की दया से व अनुपम कृपा से हमें अत्यंत मंगलमय मानव जीवन प्राप्त हुआ है। अत्यंत निश्छल भावना से, संयम से तत्परता से, आदर और प्रेम से इसका हम लाभ उठा रहे हैं। संसाधनों को अपने जीवन से जोड़ रहे हैं। अभी आप लोगों ने आचार्य जयकान्त शर्मा जी से भगवान की अत्यंत मंगलमय लीला को सुना। भगवान लीला करते हैं, लोगों, भीलों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए। भगवान की लीला का यही प्रयोजन है। हम सब लोगों का भी यह बड़ा स्वभाव है, लेकिन यह अच्छा नहीं। अपनी ओर आकर्षित करने के लिए संसार के जो अज्ञानी जीव हैं, जो अधो जीवन के लिए प्रयास करते हैं, लोग काम और अर्थ के सम्पादन में ही सम्पूर्ण जीवन के अमूल्य क्षणों का विनियोग कर रहे हैं। ऐसे जीव भी अपनी ओर लोगों को आकर्षित करते हैं लोगों को. जैसे सिनेमा के लोग हैं, सिनेमा के लोग अपनी लीलाओं व भाव अभिनय से, अपने बनावटी रूपों से लोगों आकर्षित करते हैं, अपने दर्शको को आकर्षित करते हैं। तो उस सिनेमा को लोग कहते हैं कि वह सुपरहिट हो गई। बनाने वालों को भी लाभ होता है, उसमें काम करने वालों को भी लाभ होता है। सिनेमा हॉल वालों को भी लाभ होता है, उससे जुड़े तमाम लोगों को लाभ होता है। लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति जो सस्कार रहित है, शास्त्रीय संस्कार से कहीं उसका स्पर्श नहीं है, उसके जीवन में मोक्ष की हल्की-फुल्की भी कामना नहीं है। ऐसे लोग संसार में अधिक हैं और वे लोग ही प्रभावित करते हैं। राजगद्दी पर जो लोग बैठे हैं, उनमें भले संस्कार न हो, लेकिन वे सबको प्रभावित तो करते ही हैं।
श्रोता भगवान का भक्त हो न या हो, लेकिन मेरा शिष्य तो हो ही गया। समर्थ रामदास जी (शिवाजी के गुरु) ने अपनी अमर कृति श्रीमत दसबोध में बहुत जोर-शोर से कहा, सनातन धर्म के श्रेष्ठ के उन्नायको में उनका भी नाम आदर के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ७०० हनुमत विग्रहों की स्थापना की। वे हनुमत विग्रह परम तेजस्वी रूप में समाज में आज भी प्रतिष्ठित हैं और असंख्य लोगों के कल्याण का कारण बन रहे हैं। उन्होंने कहा कि वक्ता में कई गुण होने चाहिए, उसमें एक गुण यह भी है उसके मन में यह भाव भी नहीं आए कि श्रोता मुझसे प्रभावित हो रहा है। बहुत गलत है, वक्ताओं का खूब शृंगार करके आना। ऐसे आते हैं, जैसे विवाह के लिए आ रहे हों।
यह स्वभाव हमारा है, लोकेषणा के साथ हमलोग आए हैं। हमारा सम्मान बढ़े, हमें आदर मिले। लोग हमारी प्रशंसा करें, जयजयकार करें, हमें धन दें, इत्यादि। भगवान भी अवतार लेकर यही काम करते हैं, लेकिन वे जीवों को धन्य बनाने के लिए करते हैं। अपना उनका कोई स्वार्थ नहीं है। हम लोग अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। हमसे कोई प्रभावित होगा, हमारा मान बढ़ेगा, आश्रम बढ़ेगा, हमारी दक्षिणा बढ़ जाएगी। हमें नमस्कार करने वालों की संख्या बढ़ जाएगी। हमें अधिक लोग जानने लग जाएंगे। जिन संतों ने गुफाओं में रहकर जीवन को धन्य बनाया, उनका कोई इतिहास नहीं है। इतिहास के पृष्ठों में वे नहीं हैं। ऐसे करोड़ों-करोड़ों दिव्य जीवन वालों का कहीं कोई उल्लेख नहीं है और कल भी नहीं होगा। बहुत नाम हो जाए, बहुत पैसा हो जाए, यह बहुत खतरनाक आकांक्षा है।
एक निर्मल संत थे, प्रतिष्ठा इतनी हो गई उनकी कि उन्हें कहीं लोग चैन लेने नहीं देते थे, जहां जाएं वहीं हजार लोग आ जाते। पहले तो उन्होंने प्रयास किया कि हमारी प्रतिष्ठा हो, लेकिन लोग जब लोग चीटें जैसे लग गए, तो कष्ट होने लगा। यदि कोई परिपूर्ण व सही चिंतन का संत नहीं है, तो उसके ऐश्वर्यों को चाटने के लिए संसारी लोग लग जाते हैं। जैसे चींटे चीनी को चाट लेते हैं, तभी छोड़ते हैं। बर्बाद कर देते हैं। भगवान भी तत्पर हैं, लेकिन हर कोई लीला धारी नहीं हो सकता। जो अपने को ही कर्ता मानता है, वह लीलाधारी नहीं हो सकता। लीला की व्याख्या है कि जिसकी क्रिया में कर्तत्वा अभिमान न हो और फल की क़ामना न हो। ऐसा कौन होगा? लोग विषयों में तत्पर हैं, विषयों की प्रमुखता स्वीकार करते हैं, उसी अनुसार अपने जीवन का संचालन करते हैं, सारा जीवन इसी में बीत जाता है। भोग में ही बीत गया। तन्द्रा में ही बीत गया। भोग करने में भोगी समाप्त हो गया। भोग समाप्त नहीं हुआ, भोगी समाप्त हो गया।
भगवान कितने दयालु हैं, वे हमें आकर्षित करना चाहते हैं। इसके लिए नाचते भी हैं। गोपियों के कहने से भगवान नाचते हैं। छाछ पीने के लिए भी नाचते हैं। गायों को चराते हैं, वस्त्रों का हरण करते हैं, तो भगवान यह सब लीला हमारे कल्याण के लिए करते हैं।

इंदौर में चातुर्मास काल में श्री गणेश चतुर्थी के अवसर पर दिए गए प्रवचन क प्रारंभ-

 

जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।