सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।

स्वामी भगवदाचार्य

विजय राघव प्रपन्न

जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी भगवदाचार्यजी महाराज एक महान् विद्वान्, महान् नेता, महान् कवि, क्रान्तिकारी, युगद्रष्टा, इतिहासकार, दार्शनिक, महर्षि एवं परम उदारता जैसे अनेक दिव्य गुणों के संगम थे  । इनके जन्म-कर्म दिव्य थे  । इनके जीवन-दर्शन दिव्य थे  । इनकी शक्ति-बुद्धि आचार-विचार, लेख लेखनी और वे स्वयं भी दिव्य थे  । ऐसे दिव्य महापुरुष के जीवनवृत्त पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास करूँगा  । इसमें वह मुझे कहाँ तक सफल करेंगे, यह वही जानें  । पूज्य स्वामी जी का जन्मस्थान ‘स्यालकोट’ (पंजाब) था  । उनका आविर्भाव समय सन् १८८० कार्तिक मास, शुक्लपक्ष, लाभपंचमी तिथि, समय दोपहर १२ बजे हैं  । पिताश्री का नाम गंगादत्त त्रिवेदी मातृश्री का नाम माराक्षी देवी था  । आप कान्यकुब्ज ब्राह्मणवंशावतंश थे  । गृहस्थाश्रम का नाम सर्वजित् था  । आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार से संस्कृत होकर आप विद्याध्ययन की ओर लग्न हुये  । स्वामी जी के बड़े भाई स्वयं संस्कृत के बड़े विद्वान् थे  । अतः बड़े भाई से ही संस्कृत का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया  । पिताजी अनन्य रामभक्त थे  । वे स्वामी जी को रामायण तथा हनुमानचालीसा पढ़ाया करते थे  । थोड़े दिनों में ही संपूर्ण हनुमानचालीसा एवं रामायण के बहुत से पद कण्ठस्थ हो गये  । पूज्य स्वामी जी की दिनचर्या यह थी कि आप पूजा-पाठ किये बिना अन्न-जल नहीं ग्रहण करते थे  । हनुमानचालीसा स्वमी जी को अत्यन्त प्रिय थी  । इसलिये ग्राम के आस-पास के लोग स्वामी जी को हनुमानभक्त कहा करते थे  । १३ वर्ष की अवस्था तक स्वामी जी ने हिन्दी, उर्दू, थोडी सी फारसी और थोड़ी अंग्रेजी का विधिवत् ज्ञान प्राप्त किया था  । लगभग १६ वर्ष की आयु में काशी आकर संस्कृत का विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ किया  । उसी समय आप हिन्दी में सुन्दर कविता भी करने लगे थे जो कि लखनऊ से निकलने वाली ‘वसुंधरा’ पत्रिका में प्रकाशित होती थी  । बाद में स्वामी जी व्याकरण, न्याय, वेदान्तादि के प्रौढ़ ग्रन्थों का अध्ययन करने लगे  । विद्यावाचस्पति पं. सरयूदासजी से व्याकरण का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया तथा कणादगौतमोपम पं. बालकृष्ण मिश्र जी से न्यायशास्त्र में निपुणता प्राप्त की थी  । व्याकरण में टीका ग्रन्थों के अध्ययन के पूर्व स्वामी जी वेदों से आकृष्ट हुये  । अतः वेदाध्ययन की ओर इनकी प्रवृत्ति हुई  । इस समय परम पूज्यपाद पण्डित श्रीसत्यव्रत सामश्रमी जी वेद के अद्वितीय विद्वान् माने जाते थे  । उनसे वेद की शिक्षा प्राप्त करने स्वामी जी कलकत्ता पहुँचे  । निरुक्त का अध्ययन करके उनसे ही यजुर्वेद का अध्ययन करने लगे  । वेद की दो उपाधियाँ “वेदतीर्थ” और “वेदरत्न” को प्राप्त करके काशी आ गये  । काशी पण्डित सभा ने आपके वैदुष्य से प्रभावित होकर आपको “पण्डितराज” एवं “सारस्वतसार्वभौम” की उपाधियों से अलंकृत किया था  । अध्ययन-अध्यापन के लिये कुछ दिन आपको आर्य-समाज में भी रहना पड़ा  । संग का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है  । किन्तु पूर्व संस्कारों के कारण आप अधिक दिन आर्यसमाज में नहीं रह सके  । अध्ययन-अध्यापन के ही क्रम में आप हरिद्वार भी कुछ दिन रहे  । तत्पश्चात् श्रीअवध आ गये  । यहीं आपने रामानन्द वेदान्त एवं व्याकरण का पाण्डित्य प्राप्त किया था  । अवध में सरयू किनारे एक दिन सौभाग्यवश स्वामी जी और पं. रघुवराचार्य जी की मुलाकात हो गई  । दोनों विद्वान् थे  । दोनों का हृदय मिला और मित्रता के प्रबल मधुर बन्धन में आबद्ध हो गये  । स्वामी जी नवीन विचार वाले थे और पं. रघुवराचार्य जी प्राचीन विचार वाले थे  । दोनों में इतना ही अंतर था  । पं. रघुवराचार्य जी ने विचार किया कि स्वामी जी कुशाग्र बुद्धि वाले प्रखर तेजस्वी और ओजस्वी हैं  । यदि वे रामानन्द सम्प्रदाय में दीक्षित हो जायें तो हम दोनों की मित्रता अटूट रहेगी  । श्रीरघुवराचार्य जी ने बड़ास्थान के श्रीमहान्त श्रीराममनोहर प्रसादचार्य जी से कहा कि यदि आप अनुमति दें तो आपके पूर्व परिचित सर्वजित् आपके शिष्य बनें  । अनुमति क्या देना गुरुजी तो शायद ऐसे योग्य शिष्य की प्रतीक्षा में ही बैठे थे  । अत्यन्त हर्ष के साथ विन्दगाद्याचार्य ने कहा- “ठीक हैं  ।” श्रीमहन्त जी की बात सुनकर सर्वचित् मौन रहें  । सर्वजित् से सभी अयोध्यावासी पूर्व से ही परिचित थे  । इसका कारण था, उनकी विद्वत्ता और तर्क-वितर्क बुद्धि का प्रभाव  । गाद्याचार्य ने आज्ञा दी कि विद्वान् वैष्णवों को बुलाकर इस बालक को पंचसंस्कार से संस्कृत करो  । स्थान के अधिकारी जी सुनते ही अयोध्या के विद्वान् वैष्णवों का बुला लाये  । विद्वानों के साथ अनेक महन्त भी आने लगे  । क्षत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वान् वैष्णवों की उपस्थिति में सर्वजित् वैष्णवी दीक्षा से दीक्षित होकर भगवद्दास बने  । भगवद्दास के दीक्षित होने से सम्पूर्ण अयोध्या के संतों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई, क्योंकि उनके सम्प्रदाय में अद्वितीय मेधा वाले स्वामी जी दीक्षित हुये थे  । अयोध्या में ही महावैयाकरण विद्यावाचस्पति पं. सरयूदास जी से आपने महाभाष्य एवं लघुशब्देन्दुशेखर आदि ग्रन्थों का पूर्ण अध्ययन किया था  । पं. सरयूदास जी स्वयं इनकी प्रशंसा करते हुये कहते थे, “अरे हे  । भगवद्दास बड़ा अच्छा विरक्त वैष्णव है, अद्भुत विद्वान् तो हइये है”  । आचार्यपाद बोधायन से लेकर आचार्यवर्य श्रीरामानन्दाचार्य जी के बाद रामानन्द सम्प्रदाय में विद्वानों की कमी होने लगी  । दक्षिणात्य रामानुजी विद्या के प्रभाव से रामानन्द सम्प्रदाय पर अपना वर्चस्व जमाने लगे और यहाँ तक अनुचित व्यवहार करने लगे कि भगवान राम के चरणामृत तक को हेय समझने लगे  । श्रीराममन्दिर मे जाकर साष्टांग दंडवत् करने में लज्जा का अनुभव करने लगे  । श्रीराममंत्र को क्षुद्रफलदाता कहते थे  । दाक्षिणात्य रामानुजियों का कहना था कि रामानुज सम्प्रदाय के अन्तर्गत रामानन्द सम्प्रदाय है  । वह स्वतंत्र सम्प्रदाय नहीं है  । उक्त बात का समर्थन करने वाले कुछ गिने-चुने अर्धरामानन्दीय भी थे  । (१) रामटहल दास, (२) बलभद्र दास, (३) शत्रुघ्न दास, (४) रामशोभा दास और (५) रामनारायण दास  । यए मिलावडी अर्धरामानुजी और अर्धरामानन्दीय ५ व्यक्ति थे  । इनके पक्ष में एकमात्र प्रयाग में तुलसीदासजी का बड़ा स्थान ही था  । शेष सभी स्थान अपने को पूर्ण रामानन्दी कहने वाले और सम्प्रदाय के नाम पर सर्वस्व अर्पण करने वाले थे  । अर्धरामानन्दियों का अर्थ यह है कि राममंत्र को लेकर भी अपने को रामनुजीय मानना  । इन पाँच लोगों को छोड़कर बाकी सब लोगों का कहना था कि हम सभी राममंत्र वाले स्वतंत्र रामानन्द सम्प्रदाय के हैं  । रामटहल आदि पाँचों पहलवान पूर्ण विद्वान् तो नहीं थे परन्तु रामानुजी पण्डितों के साथ रहने के कारण साम्प्रदायिक रहस्यों के कुछ ज्ञाता हो गये थे  । ये पाँच वादी थे  । प्रतिवादी थे  । (रामानन्द सम्प्रदाय की ओर से) स्वामी भगवदाचार्य और स्वामी रघुवराचार्यजी  । ये दोनों पूर्ण विद्वान् थे । स्वामी भगवदाचार्यजी तो अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, बंगला, आदि विभिन्न भाषाओं के भी विद्वान् थे  । इनके पक्ष में अपने अखाड़े थे  । रामानन्द सम्प्रदाय के ये प्रतिभट विरोधियों को करारा उत्तर देने के लिये कटिबद्ध थे  । सम्प्रदाय के सभी सन्तों-महन्तों का कहना था कि इन दोनों विद्वानों का जो मत होगा वह हम सभी को मान्य होगा  । वादियों का पक्ष ऐसा नहीं था  । वे सब घर-घर के ठाकुर थे  । शाखार्थ का निश्चित समय आ गया  । दोनों ही पक्ष के लोग एकत्रित होने लगे  । शाखार्थ का जो समय निश्चित किया गया था वह परीक्षा का समय था  । अतः रघुवराचार्यजी “मुझे परीक्षा देने जाना है” यह कहकर मुजफ्फरपुर चले गये  । अब इस पक्ष से शाखार्थ करने वाले केवल भगवदाचार्यजी ही बचे  । किन्तु विधि का विधान ऐसा था कि शाखार्थ के डर से विपक्षी लोग समय पर गायब हो गये  । शास्त्रार्थ का स्थान हनुमानगढ़ी निश्चित किया गया था  । रामनन्दियों का दल गढ़ी में भर गया  । सभी संत महान्त आतुर थे कि शास्त्रार्थ में क्या होगा? विजय किसकी होगी? सभी लोग देख रहे थे कि वादी पक्ष के रामटहल दास जी कहाँ गये? इधर स्वमी भगवदाचार्य जी गर्जना पर गर्जना किये जा रहे थे  । कि आज ‘राममंत्र’ निन्दकों को ऐसा पछाडूंगा कि छठीं के दूध की याद आ जावेगी  । आज रामानन्द सम्प्रदाय से सदा के लिये उनका बहिष्कार हो जायेगा  । शास्त्रार्थ का निश्चित समय क्षण प्रतिक्षण खिसकता जा रहा था किन्तु वादी पक्ष से कोई दिखाई ही दनहीं दे रहा था  । अंत में वादियों की ओर से शास्त्रार्थ के लिए नियत विद्वान नहीं आये, किन्तु बड़ा स्थान को श्रीमहान्त स्वामी जी के गुरुदेव विपक्ष का प्रतिनिधित्व करने शास्त्रार्थ स्थल गढ़ी में आ पहुँच  । उनके देखते ही सभा में समुपस्थित लोग चित्रलिखित से हो गये  । उस समय अयोध्या में विन्दुगाद्याचार्य की खूब धाक थी  । सभा-मण्डप में एक ओर वनराज के समान गुरुदेव बैठ गये दूसरी ओर सिंह शावक के समान शिष्य स्वामी जी प्रथम से ही उपस्थित थे  । सभा मण्डप खचाखच भरा हुआ था  । विजय वैजयन्ती माल शिष्य के ही गले में पड़ने वाली थी  । बड़ा स्थान के श्रीमहान्त जी के आगे किसी की बोलने की हिम्मत नहीं थी  । शास्त्रार्थ के पूर्व ही स्वामी जी द्वारा “श्रीरामानन्दीय वैष्णव महामण्डल एवं पुरातत्त्वानुसंधायिनी समिति” नाम की ये दो संस्थायें बन चुकी थीं  । गुरु औरव शिष्य के मध्य शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ  । गुरुदेव ने कहा रामानन्द सम्प्रदाय और रामानुज सम्प्रदाय एक है  । शिष्य ने कहा, “कनहीं गुरुदेव ये दो हैं”  । अब तो गुरुदेव एकदम शिष्य पर लाल-पीले होने लगे  । उसी समय गढ़ा के गद्दीनशील महन्त जी उठे और बड़ा स्थान के महान्त जी सेबोले, “श्रीमान् महान्त जी आपको जो भी पूछना है शान्ति पूछिये आप डाँट-डपट नहीं कर सकते  । भगवद्दास इस समय आपके शिष्य नहीं अपितु सम्पूर्ण रामानन्द सम्प्रदाय के एकमात्र नेता हैं  । गुरुदेव शान्त हये और कहा कि सिद्ध करो कैसे रामानुज सम्प्रदाय और रामानन्द सम्प्रदाय पृथक् है  । गुरुदेव के सामने शिष्य के यह तर्क थे-

१. लक्ष्मीनाथसमारम्भां नाथयामुनमध्यमाम्  । अस्मदावार्यपर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम्   ।  ।

२. सीतानाथसमारम्भां रामानन्दाचार्यमध्यमाम्  । अस्मदाचार्यपर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम्  ।  ।

१. रामानुज सम्प्रदाय का आरभ लक्ष्मीनाथ से ही रामानन्द सम्प्रदाय का आरम्भसीतानाथ से है  ।

२. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय और श्रीरामानुज सम्प्रदाय का प्रायः सब आचार-व्यवहार भिन्न है  ।

३. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में यथाकथंचित् श्रीराम और नारायण में अभेद होने पर भी श्रीराम का ही परत्त्व है और उनके यहाँ नारायण का परत्त्व है  ।

४. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में सम्पूर्ण भगवन्मंत्रों में सम प्रेम रहते हुये भी श्री राममंत्र सर्वोत्कृष्ट है  । उनके यहाँ श्रीराममंत्र कृष्णमंत्र इत्यादि व्यर्थ और तुच्छ है  ।

५. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में किसी मंत्र की निन्दा नहीं है  । उनके सम्प्रदाय में श्रीराममंत्रादि अपराधी और निन्दीनय हैं  ।

६. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में ऋक्, यजु, साम और अथर्वादि ही वेद माने जाते हैं और उनके यहाँ द्रविड़ प्रबन्ध भी  ।

७. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में तुलसी की कण्ठी परमावश्यक है, उसका सतत् धारण करना ही धर्म है उसके बिना किसी का जल तक ग्राह्य नहीं है  । परन्तु उनके सम्प्रदाय में यह सब कुछ नहीं  ।

८. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में प्रसादान्त और शरणान्त नाम का व्यवहार है उनके यहाँ प्रसादान्त और शरणान्त का व्यवहार नहीं है  ।

९. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय के वैष्णव श्रीरामानुज सम्प्रदाय के ब्राह्मणों के पक्व अन्न ग्रहण करते थे किन्तु वह लोग हमारे सम्प्रदाय के ब्राह्मणों का अन्न नहीं ग्रहण करते हैं  ।१०. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में किसी भी व्रत में रात-दिन उपवास करते हैं परन्तु उनके यहाँ रामनवमी, कृष्णाष्टमी इत्यादि पुण्यदिनों में जन्म के बाद पारणा का व्यवहार है  ।

११. हमारे यहाँ श्री सम्प्रदाय का दूसरा नाम श्री रामानन्द सम्प्रदाय है और उनके यहाँ नहीं  ।

१२. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में भक्ति के अधिकारी मनुष्यमात्र हैं परन्तु उनके यहाँ वेदादि पढ़ा हुआ द्विजमात्र है  ।

१३. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में आरम्भ से रहस्यत्रय का उपदेश होता आया है और श्री रामानुज सम्प्रदाय में नहीं  ।

१४. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में भगवत्पूजा अर्चा में शंख का प्रयोग होता है परन्तु रामानुज सम्प्रदाय में वह अस्पृश्य माना जाता है  ।

१५. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में शालिग्राम के साथ गोमती चक्र रखने का व्यवहार है, रामानुज सम्प्रदाय में नहीं  ।

१६. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में पंचसंस्कार अनादि काल से होता आ रहा है, परन्तु रामानुज सम्प्रदाय में नहीं  ।

१७. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में सर्वत्र सदा भोजन सम्बन्धी आचार का यथोचित विचार करता है  ।

१८. श्रीरामानन्द सम्प्रदाय में श्री हनुमान जी पूज्य देव माने जाते हैं  । उनका प्रसाद ग्रहण किया जाता है  । श्री रामानुज सम्प्रदाय में नहीं

१९. श्री रामानन्द सम्प्रदाय का सिद्धान्त है कि श्रीराम जी ने श्री राममंत्र का उपदेश श्री जानकी जी को दिया और उन्होंने अपने शिष्य प्राणियों में प्रचार किया  । इसी बात का “त्वदद्वरया तारकमंत्रराजम्” इत्यादि श्लोकों में श्री रामप्रसाद जी महाराज जी महाराज ने निरुपण किया है यही बात श्री रघुनाथ प्रसाद महाराज मानते थे  । यही बात श्रीचरण (अपने गुरुदेव को) भी आज से कुछ दिन पहले मानते थे  । परन्तु श्री रामानुज सम्प्रदाय में इसकी गन्ध भी नहीं है  ।

२०. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में आरती के परम पूजा का जल अर्धे से बाहर फेंका जाता है, श्री रामानुज सम्प्रदाय में नहीं  ।

२१. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में आरती की स्तुतियों के साथ उनकी स्तुतियों का कोई सम्बन्ध नहीं है  ।२२. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में रक्तश्री शुक्लश्री (लशकरी), गोलश्री (विन्द), लुप्तश्री (चतुर्भुजी) इत्यादि भी अनेक भेद है श्री रामानुज सम्प्रदाय में यह सब भेद नहीं है  ।

२३. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में काठिया, मंजिया, खाखी, तपस्वी, जटाधारी पंचकोशी इत्यादि अनेक भेद हैं, श्री रामानुज सम्प्रदाय में नहीं  ।

२४. श्री रामानुज सम्प्रदाय के विरक्तों में ब्रह्मचर्य और संन्यास दो आश्रम पाले जाते हैं, परन्तु श्री रामानुज सम्प्रदाय में विरक्तों का पाँचवाँ आश्रम है  ।

२५. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी की प्रतिमा मन्दिरों में पधराई जाती हैं और श्री रामानुज सम्प्रदाय में नारायण की प्रतिमा पधराई जाती है  ।

२६. श्री रामानन्द सम्प्रदाय में चतुर्वर्ग सम्प्रदाय के भगवन्मन्दिर में जाकर भगवान् को साष्टांग दण्डवत् करने की प्रथा है परन्तु रामानुज सम्प्रदाय में नहीं  ।

इस प्रकार अनेक भेदों के रहते हुये भी क्षणभङ्गुर हेतुओं से अभेद सिद्ध करना बड़ा साहस का कार्य है  ।.

श्री महाराज जी! मैं यह भी पूंछ लेना चाहता हूँ कि आप जिस प्रकार से अनेक भेदों के रहते हुये भी यत्किंचिद्धर्म के समानता के कारण दोनों सम्प्रदायों में अभेद सिद्ध करते हैं  । उसी प्रकार से अनेक धर्मों के भेद होने से दोनों में भेद ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते? तथा आपकी रीति से तो ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि का भी परस्पर भेद सिद्ध हो जायेगा  । क्योंकि (१) माता-पिता से उत्पत्ति, (२) दुग्धपान, (३) नवमास पर्यन्त गर्भवास, (४) मांसादि भक्षण, (५) मांसादि परित्याग, (६) दक्षिण में मामा की लड़की से विवाह, (७) सोलह संस्कार, (८) दोनों के वेदाधिकार, (९) दोनों की द्विजत्व, इत्यादि अनेक बातों में समता आगोपाल प्रसिद्ध हैं  । ऊर्ध्वपुण्ड्र चारों सम्प्रदायों में विहित होने के कारण चारों सम्प्रदायों का अभेद सिद्ध हो जायेगा  । निम्बार्क सम्प्रदाय के ऊर्ध्वपुण्ड्र, गोपीचन्दन धारण के साथ समानता होने से समस्त बेंदी वाले श्री वैष्णवों का निम्बार्क सम्प्रदाय के साथ अभेद हो जायेगा अतः इस प्रकार की समानता से अभेद सिद्ध करने का प्रयास सर्वथा व्यर्थ है  । इस प्रकार और भी युक्तियों से सिद्ध किया कि दोनों सम्प्रदाय सर्वथा भिन्न हैं  । अब शिष्य ने प्रश्न किया कि, “गुरुदेव हम सम्प्रदायी हैं या पन्थाई हैं?” प्रश्नसुनकर गुरुदेव संकट में पड़ गये कि यदि मैं इनको सम्प्रदायी कहता हूँ तो रामानुजीय मानने को तैयर नहीं हैं, और यदि पन्थायी कहता हूँ तो वे रामानन्दियों का विशाल जनसमूह क्रुद्ध होकर मुझ पर टूट पड़ा  । गुरुदेव से कुछ उत्तर देते नहीं बना  । कुछ देर बाद सभा से उठकर चले गये  । इधर शिष्य के गले में विजयमाल पड़ी और विजयश्री ने चरण चूमा  । यह उनकी साम्प्रदायिक विजय थी  । मानव जब क्रोध में आता है तो कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक नष्ट हो जाता है  । शिष्य से परास्त होने के बाद गुरुदेव ने शिष्य से बोलना बंद कर दिया  । भोजन के समय गुरुदेव सर्वप्रथम स्वामी जी को ही बुलाते थे अब वह भी बन्द हो गया  । स्वामी जी का अपमान हुआ  । छावनी के महन्त जी के आग्रह से स्वामी गुरु-स्थान से छावनी आ गये  । इस प्रकार से अनेक दिशा में अनेक सिद्धान्त के विषय में पादरी, मौलवी और आर्यसमाजियों के साथ स्वामी जी ने कई बार शास्त्रार्थ किया और विशेषता यह कि सर्वत्र विजयी रहे  । कभी-भी स्वामी जी किसी शास्त्रार्थ में कोई पराजित नहीं कर सकता है  । आप एक तरफ महाकवि थे दो दूसरी ओर महान् दार्शनिक  । आपको साम्प्रदायिक महाकवि की मान्यता मिली है  । “रामानन्द दिग्विजय” आपका प्रथम महाकाव्य है  । यह काव्य माउन्टआबू से सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ है  । जिस समय रामानन्द सम्प्रदायमें आचार्यप्रवर श्री स्वामी रामानन्दाचार्य जी के विषय में बहुत कम साहित्य उपलब्ध था उस समय पूज्य स्वामी जी ने “रामानन्द दिग्विजय” महाकाव्य की रचना करके अंधकार से आच्छादित रामानन्द सम्प्रदाय का उद्धार किया था  । साम्प्रदायिक महाकवि के साथ-साथ आप राष्ट्रीय महाकवि भी हैं  । आप राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हैं  । जब आप राष्ट्र के विषय में लिखते-बोलते हैं, उस समय आप सम्प्रदाय को भी भूल जाते हैं  । आपका सिद्धान्त है कि यदि हमारा राष्ट्र उन्नत रहेगा तो हम भी उन्नत माने जायेंगे  । “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की उक्ति को चरितार्थ करना चाहते थे  । राष्ट्रोन्नति को सम्प्रदायोन्नति मानते थे  । इसीलिये आपने महात्मा गांधी को लक्ष्य करके (१) भारतपारिजातम्, (२) पारिजातापहारः, (३) पारिजातसौरभम्, संस्कृत महाकाव्यों की रचना की  । महाकवि होने के साथ-साथ आप अलौकिक वैदिक भाष्यकार हैं तथा हो चुके हैं  । उन लोगों की एक ही शैली देखने को मिलती है  । इनका वेदभाष्य लोकोत्तर भाष्य है  । सभी भाष्यकारों ने गीता उपनिषद् तथा धर्मशास्त्रों के द्वारा भाष्य निर्माण किया है  । किन्तु पूज्य स्वामी जी ने वेदमंत्रों से ही भाष्य रचना की है  । इस कारण यह भाष्य लोकोत्तर भाष्य बन गया है  । “ऋषयो मंत्रदशरः” इस उक्ति को चरितार्थ करके आपने ऋषि समाज का जो महान् कल्याण किया है उसको भारतवर्ष कभी नहीं भूल सकता है  । अनेक प्रतिभाओं में से उनकी एक प्रतिभा यह भी थी कि एक साथ दोनों हाथ से भिन्न-भिन्न विषय और भाषाओं के लिख लेते थे  । जैसा कि न कभी सुना गया है और न देखा गया है ऐसी अनेक प्रतिभाओं के वे आकर थे  । विरक्त समाज का कौन-सा आश्रम माना जाय जब यह विवाद बहुत दिनों से चला आ रहा था  । जब आपको यह मालूम हुआ कि यह विवाद प्रबल रूप धारण कर रहा है और आगे “आश्रमकष्टकोद्धार” नामक ग्रन्थ का निर्माण करके इस समस्या का समाधान किया  । स्वामी जी ने सम्प्रदाय में दीक्षित होने के बाद सर्वप्रथम स्तोत्र निर्माण का कार्य किया  । “दव्यिस्तोत्रकलाप” नामक स्तोत्र ग्रन्थ में सभी स्तोत्रों का संग्रह है  । इस स्तोत्र ग्रन्थ में रामस्तव, जानकीस्तव, मारुतिस्तव, यतिराजस्तव आदि हैं  । श्री रामानन्द सम्प्रदाय का यह अनुपम स्तोत्र ग्रन्थ है  । यह ग्रन्थ करुण, विप्रलम्भ भक्ति और श्रृंगारादि रसों से परिपूर्ण है  । यमक, अनुप्रासादि अलंकारों में अलंकृत है  । ग्रन्थ में कवि का उदार भक्ति दय जगह-जगह छलक पड़ता है  । इस ग्रन्थ में जगज्जननी जानकी जी का साक्षात्कार बड़े रोचक ढंग से वर्णित है  । मारुतिस्तव में वात्सल्य घाव की पराकाष्ठा है  । इसको रामस्तव तो खूब ही उपालम्भ युक्त है  । भक्त हृदय कह रहा है- “भगवान् आपने गीध का भी उद्धार किया है यदि यह सत्य है तो मेरा उद्धार क्यों नहीं करते?” यह दिव्यस्तोत्रकलाप वस्तुतः दिव्य के शताधिक ग्रन्थ देकर सम्प्रदाय की नींव को दृढ़ किया है  । गीता, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्रादि पर अनुपम भाष्य रचना करके सम्प्रदाय के अंधकारमय मार्ग में ज्ञान का जो सूर्य प्रकट किया वह अनंतकाल तक भटके व्यक्तियों का पथप्रदर्शन करता रहेगा  । जीवन भर स्वामी जी सच्चे विरक्त के उदाहरण थे  । अपने हाथ का कता हुआ खादी वस्त्र वह धारण करते थे  । बाद सन् १९२५-२६ की है  । जोधपुर में एक आर्य समाजी विद्वान् मूर्तिपूजा का खण्डन कर रहा था  । वैष्णव धर्म की निन्दा कर रहा था  । साथ ही साथ शास्त्रार्थ के लिए चुनौती भी दे रहा था  । किसी भी विद्वान् को वह आर्यसमाजी नगण्य समझ रहा था  । प्रारम्भ से ही स्वामी जी का यह उद्घोष था कि भगवदाचार्य के रहते हुये कोई भी विरोधी श्री वाष्णव सम्प्रदाय की ओर उंगुली नहीं उठा सकता है  । स्वामी जी के इस उद्घोष से सम्प्रदाय के लोग पूर्ण परिचित थे  । स्वामी जी के पास तार किया गया  । तार प्राप्त हुआ  । इस समय स्वामी जी १०४ डिग्री बुखार की वपेट में थे, किन्तु उसकी जरा भी परवाह न करके आप सम्प्रदाय की करुण पुकार से विह्वल हो ज्वरग्रस्त अवस्था में ही जोधपुर के लिये चल पड़े  । शास्त्रार्थ हुआ  । आर्यसमाजी पंडित के गर्व का पहाड़ ध्वस्त हुआ और उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली  । इसी प्रकार एक पादरी को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया था  । जब-जब सम्प्रदाय पर संकट आया तब-तब स्वमी जी अपनी प्रतिभा से उसे सर्वदा के लिये शान्त कर देते थे  । आज भी स्वमी जी की प्रकाण्ड विद्वत्ता पर सम्प्रदाय को गर्व है  । ता. १४.१०.७१ को अहमदाबाद में स्वामी जी का शताब्दी महोत्सव मनाया गया  । जिसमें कि देश के कोनों-कोने से सम्प्रदाय के वरिष्ठ विद्वान् सन्त उपस्थित हुये थे  । गुजरात राज्य के राज्यपाल श्रीमन्नारायण जी भी उस उत्सव में सपत्नीक सम्मिलित हुये थे  । यद्यपि सम्प्रदाय के लोग पहले से ही अपररामानन्दाचार्य मानते थे परन्तु १९७७ प्रयाग कुम्भ के अवसर पर रामानन्द सम्प्रदाय के विद्वानों एवं संतों ने मिलकर स्वामी जी को जगद्‌गुरु राम्रीनन्दाचार्य के पद पर अभिषिक्त किया  । आपके जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य बनते ही सम्पूर्ण सम्प्रदाय में अपूर्व प्रसन्नता की लहर दौड़ गई  । स्वामी जी ने सम्प्रदाय के लिये इतना अधिक किया था कि सम्प्रदाय उनके ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकता था  । किन्तु सम्प्रदाय उन्हें कुछ देना चाहता था और वह सुअवसर प्रयाग कुम्भ पर आया  । सम्प्रदाय के लोगों ने उन्हें इस गौरवशाली पद पर आसीन कर दिया  । यद्यपि उन्हें इसकी तनिक भी इच्छा नहीं थी और न ही यह आभास था कि कुम्भ पर मुझे जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य बनाया जायेगा अस्वीकृति में वह हाथ उठाये रहे परन्तु लोगों ने अपने लक्ष्य को पूर्ण करके शान्ति की सांस ली  । स्वामी जी अधिक दिनों तक उस पद पर नहीं रह सके  । विधाता के लेख में कोई मेख नहीं मार सकता  । जन्म और मृत्यु किसी की प्रतीक्षा नहीं करते  । कोटि-कोटि हृदयों के हृदयेश्वर सदा-सदा के लिये न हृदयों को अपनी विराहाग्नि में तपता छोड़, गद्दी सूनी करके दिव्य साकेतलोक में श्री राघवेन्द्र सरकार की नित्य सेवा में पधार गये  । जिस “आल इण्डिया रेडियो” से यह समाचार प्रसारित हुआ सारे समाज में मानो शोक का सागर उमड़ पड़ा  । किसी का हृदय वश में नहीं था सभी के नेत्र गंगा और यमुना की धारा बन गये थे  । समाज में प्रायः देखा जाता है कि जो असाधारण विद्वान् होते हैं वे असाधारण लेखक एवं वक्ता नहीं हो पाते  । जो दार्शनिक होते हैं वे सफल साहित्यिक नहीं हो पाते  । स्वामी जी पर श्री रघुनाथ जी को ऐसी अनुकम्पा थी कि आप जैसे असाधारण विद्वान थे वैसे ही असाधारण लेखक और वक्ता भी थे  । साहित्यिक व दार्शनिक भी थे  । इतना ही नहीं आप हिन्दी, गुजराती, उर्दू, फारसी आदि अनेक पाषाओं के भी पण्डित थे  । गांधी जी के साबरमती आश्रम में रहकर कुछ दिन संस्कृत फारसी और अंग्रेजी का अध्यापन भी किया था  । शाखार्थ कला में तो स्वामी जी अत्यन्त ही निपुण थे  । आपने जीवनकाल में कितने ही शास्त्रार्थ किये और विजीय रहे  । अपने यहाँ कोई व्यक्ति आवे तो शिष्टाचार के नाते हर छोटे-बड़े का स्वागत करना, कुशल समाचार पूछना और जाने लगे तो उनके साथ ही अपने भी खड़े हो जाना द्वार तक उन्हें पहुँचाना  । यह उनका सामान्य शिष्टाचार था  । उनका कहना था कि “प्रिय को बिदा करके द्वार पर तब तक खड़े रहना चाहिये, जब तक प्रिय आँखों से ओझल न हो जाये  ।” इतने बड़े ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध होते हुये भी स्वामी जी शिष्टाचार का यथावत् पालन करते थे  । स्वामी जी के नेतृत्व में श्री रामानन्द सम्प्रदाय के अंदर क्रांति को लोल लहर भारतवर्ष के कोने-कोने में जा पहुँची  । इससे वैष्णव समाज को अनेक लाभहुये हैं  । “श्रीमठ” का जो यह स्वरूप आज दिखाई पड़ रहा है वह पूज्यवाद श्री स्वामी जी के ही सत्प्रयत्न का सुफल है  । उनकी निरन्तर चेतावनी से ही समाज का इस ओर ध्यान गया और स्वामी जी के निर्देशन में यह अपने स्वरूप को प्राप्त हुआ  । आपके ही प्रयास से निज आचार्य निष्ठा, उपास्यदेव के प्रति अखिल श्रद्धा-भक्ति और अपने संस्कारों-संस्कृतियों में पूर्ण ‘आस्था’ उत्पन्न हुई  । धर्मग्रन्थों का प्रचार, अनन्य धर्मनिष्ठा की भावना का उदय और परमुखापेक्षिता का दूरीकरण हुआ  । विभिन्न स्थानों पर शिक्षण संस्थायें बनीं और सम्प्रदाय में अनेक विद्वान् पैदा हुये  । आपका तप, त्याग, उदारता एवं भक्ति योग की आधारशिला पर अवस्थित मूर्तिमय जीवन विश्व की सम्पूर्ण मानव जाति को अनंत काल तक परमदिव्य संदेश पहुँचाता रहेगा और तिमिराच्छादित हृदयों में आलोक का नवप्रकाश भरता रहेगा  ।

श्रीमठ प्रकाश/३१५

जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।