सद्चरित्र भी पढि़ए-पढ़ाइए

सद्चरित्र भी पढि़ए-पढ़ाइए

(महाराज का एक प्रवचन – युवाओं की स्थिति और बढती अनैतिकता पर)
सबसे पहले युवाओं को यह समझ लेना चाहिए कि सच्चा सुख और सम्मान किसमें है। आज जीवन के संदर्भ में युवाओं की सोच बदली है। हर युवा सोच रहा है कि मेरी शिक्षा अच्छी होनी चाहिए, मेरा स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए और मेरा प्रभाव भी बढऩा चाहिए। आज के समय में पढऩे वालों की संख्या और पढऩे वालों का स्तर, दोनों बढ़ा है। युवाओं को यह बात समझ में आ गई है कि अच्छी शिक्षा होगी, तभी हम संपन्न और प्रतिष्ठित हो सकेंगे, सुखमय जीवन बिता सकेंगे। बहुत से युवा व्यायाम व शरीर बनाने में लगे हैं, वे समझ गए हैं कि शरीर स्वस्थ रहेगा, तभी हम जीवन का उपभोग कर सकेंगे, इसलिए जगह-जगह व्यायामशालाएं खुल रही हैं। पहले वाले बच्चों की तुलना में आज के बच्चे शरीर पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। इसके साथ ही, यह बात भी उनके मन में आनी चाहिए कि धन की जो वासना है, केवल उसे ही अगर तुष्ट करने में लगे रहेंंगे, तो परिवार, समाज, देश या संसार में कभी भी बड़े आदमी नहीं हो सकेंगे। यह बात शुरू से ही बच्चों और युवाओं के मन में बैठानी चाहिए। उन्हें समझाना चाहिए कि केवल धन कमाना ही सबकुछ नहीं है। नि:संदेह, बच्चे पढऩे में जितनी दिलचस्पी अब लेते हैं, उतनी पहले नहीं लेते थे। समय बदल गया है, अब युवा जितना अपना ध्यान रखते हैं, उतना पहले नहीं रखते थे, जिस तरह से ये संस्कार उनमें विकसित हुए हैं, उसी तरह से उनमें अच्छाई का संस्कार भी विकसित होना चाहिए। अच्छाई हो, चरित्र हो। शिक्षा होगी, पैसा होगा, स्वास्थ्य होगा, लेकिन सारा कुछ तब धरा रह जाएगा, यदि चरित्र अच्छा नहीं होगा। अच्छा चरित्र नहीं होगा, तो हम कभी विशिष्ट जीवन को प्राप्त नहीं कर पाएंगे।
अभी जो घर का वातावरण है, उसमें धन की उपलब्धता बढ़ी है। बच्चों को जितना पैसा नहीं देना चाहिए, उतना दिया जा रहा है। छोटी उम्र में ज्यादा पैसे मिलने लगे हैं। मेरे गुरुजी, जिस गुरु से मेरी दीक्षा हुई थी, यह कहते थे, ‘छोटी आयु में आदमी पैसे से बिगड़ता है।Ó जब तक मैं छोटा था, उन्होंने मेरे पास दो पैसे नहीं रहने दिए। जिस वस्तु की मुझे आवश्यकता पड़ती थी, गुरुजी ही मुझे दिला देते थे। आज भी अपने देश में जो अच्छे परिवार हैं, उनमें बच्चों को जो वस्तु चाहिए, वह परिवार के बड़े ही उन्हें देते हैं, पैसा नहीं देते, जब कपड़ा चाहिए, कपड़ा देते हैं, जब पुस्तक-कॉपी, भोजन, मनोरंजन, जो भी चाहिए, बड़े ही सोच-समझकर देते हैं। बच्चों को पैसे की जरूरत नहीं पड़ती, उनका पैसों से सीधे कोई सरोकार नहीं रहता है। ऐसे में, वे पैसे द्वारा उत्पन्न होने वाली विकृतियों से बच जाते हैं।
कोई संदेह नहीं, मध्यवर्गीय परिवारों के पास भी पैसा खूब हो गया है। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हमें बच्चों के पालन-पोषण के प्रति सावधान रहना चाहिए। जैसे हम बच्चों को पटाखे देते हैं, राइफल तो नहीं देते, बच्चों को चाकू और ब्लेड से भी बचाते हैं। हम चाहते हैं कि बच्चे सुरक्षित रहें, लेकिन कहीं न कहीं पैसा बच्चों और युवाओं के जीवन को असुरक्षित बना रहा है। इस पर अभिभावकों को ध्यान देना चाहिए। जो अभिभावक बच्चों को पॉकेट मनी या पैसे देते हैं और खर्च का हिसाब नहीं लेते, वो गलत करते हैं। बच्चों से अवश्य पूछना चाहिए कि कहां कितना खर्च किया।
बच्चों और युवाओं को लेकर चिंता बढ़ी है, वासना बढ़ रही है, तो विकृति भी बढ़ रही है। मेरा मानना है, मोबाइल की आवश्यकता बच्चों को नहीं है। मोबाइल पर नियंत्रण होना चाहिए। अभिभावक जांच तो करें कि कहां-कहां बात हुई, कहीं बच्चा गलत राह पर तो नहीं है। ऑफिसों में बड़े लोगों पर भी निगरानी रखी जाती है कि वे जहां-तहां फोन न करें। अनावश्यक फोन करने में समय बर्बाद होता है, बिल में पैसे बर्बाद होते हैं, सम्मान भी प्रभावित होता है। ऑफिस में तो फोन और बिल पर नियंत्रण है, लेकिन घर में नहीं है। बच्चों को मोबाइल फोन दे दिया है, कई बच्चे रात्रि में भी जहां चाहे, बात कर रहे हैं और अभिभावक कुछ पूछ भी नहीं रहे हैं। घर में खुलेपन का वातावरण बढ़ा है, अनुशासन घटा है।

बच्चों को जैसे बहुत-सी बातों की शिक्षा दी जाती है, वैसे ही उन्हें यह शिक्षा भी देनी चाहिए कि माता-पिता जहां चाहेंगे, वहीं विवाह करना होगा। बच्चों को साफ बताना होगा कि घर में भी ठीक से रहना होगा। संयम से नहीं रहेंगे, तो बहुत महत्व नहीं मिलेगा या संपत्ति में भागीदारी नहीं मिलेगी। ऐसे तमाम तरह के नियंत्रण घर-परिवार में पहले होते थे, किन्तु अब उसमें काफी छूट हो गई है। पारिवारिक वातावरण में भी संयम का भाव नहीं रह पाया है। मेरा मानना है कि पहले से ही बच्चों को अगर यह बात कही जाए कि हम अपनी परंपरा के हिसाब से ही आपकी शादी करेंगे, यह निर्णय हम सोच-समझकर लेंगे, तो बच्चा या किशोर समझेगा और संयम में रहेगा। कई परिवार ऐसे हैं, जहां माता-पिता पहले ही यह बात स्पष्ट कर देते हैं, तो देखा गया है कि इन परिवारों के बच्चे संयम के साथ सही मार्ग पर चलते हैं और जिन परिवारों में आवश्यकता से अधिक स्वतंत्रता दी जाती है, वहां बच्चों में संयम कम होता है और उनके गलत मार्ग पकडऩे की आशंका ज्यादा रहती है।
किसी लडक़ी को यदि यह ज्ञात हो जाए कि फलां लडक़ा गलत है, तो उससे दूर ही रहना चाहिए। कभी भी मित्र या जीवन साथी के रूप में किसी अपराधी, अराजक, अभद्र, असंयमी, अनुशासनहीन व्यक्ति का चयन नहीं करना चाहिए। किन्तु यह कौन बताएगा? इसका माता-पिता पर सर्वाधिक उत्तरदायित्व है। बच्चों को माता-पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, तभी परिवार बचेंगे। जो इस तरह के गलत लोग हैं उनका बहिष्कार हो, बिरादरी से, समाज से अलग किया जाए। कई घटनाएं होती हैं, जब लोग अपने भटके हुए बच्चों को जान से मार देते हैं, किन्तु यह गलत है, तरीके में सुधार होना चाहिए। हत्या बिल्कुल गलत है, वास्तव में भटके हुए लोगों का सामाजिक परिष्कार होना चाहिए। समझाकर सुधारना चाहिए, फिर भी यदि कोई समाज विरोधी गलत कार्य करे, तो उसके साथ खान-पान का व्यवहार नहीं रखें, उससे बोले नहीं, गलत और चरित्रहीन व्यक्तियों का बहिष्कार ज्यादा अच्छा उपाय है। गलत आदमी को किनारे कर दीजिए, उपेक्षित छोड़ दीजिए, वह स्वयं सुधर जाएगा या अपने अंत को प्राप्त हो जाएगा।
चरित्र निर्माण पर सरकार को भी पूरा ध्यान देना चाहिए। सरकार के पास संसाधन है, तो बच्चियों को अलग से शिक्षा दी जाए, उनके लिए अलग शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा देना चाहिए। चिंतन, मनन, अध्ययन का लडक़ों के लिए अलग स्थान हो, लड़कियों के लिए अलग स्थान हो, तो उनमें संयम बढ़ेगा, भटकाव कम होगा।
एक बार मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से मिला, तो उनसे पूछा, ‘आपके विश्वविद्यालय के परिसर में लडक़े-लड़कियां किस रूप में रहते हैं, क्या उस पर आपका कोई नियंत्रण है?Ó
तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘हम केवल पढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं, कौन कहां किससे गले मिल रहा है, कौन कहां बैठ रहा है? हमें इससे क्या लेना-देना?Ó
ध्यान दीजिए, यह एक कुलपति के शब्द हैं, जिस पर पूरे विश्वविद्यालय परिसर का उत्तरदायित्व है। यदि विश्वविद्यालय परिसर में कुछ गलत हो रहा है, तो इसके लिए सीधे कुलपति की ही जिम्मेदारी बनती है। प्राचीन काल में आश्रमों में क्या होता था, अभी आश्रमों में क्या होता है, आश्रम या मठ के प्रमुख पर ही उत्तरदायित्व होता है। आश्रम में कौन-कैसे उठेगा, बैठेगा, रहेगा, इसका उत्तरदायित्व आश्रम के प्रमुख पर ही होता है आज भी। लगभग हर आश्रम और यहां तक कि अस्पतालों में भी व्यवहार की अपनी आचार संहिता होती है, जिसके अनुरूप ही उस परिसर में सबको व्यवहार करना पड़ता है। विश्वविद्यालय जो शिक्षा की इतनी बड़ी संस्था है, उसमें कोई आचार संहिता ही नहीं है कि लडक़े कैसे बोलते हैं, कैसे बैठते हैं, कैसे दिखते हैं, किस तरह से व्यवहार कर रहे हैं, क्या सोचते हैं, कोई संहिता ही नहीं है? कुलपति को ही जब संयमित आचार-विचार की चिंता नहीं है, तब विश्वविद्यालयों के परिसर में विकृतियों को पनपने और बढऩे से कौन रोक सकता है? प्रकृति का ऐसा विधान है कि स्त्री और पुरुष के बीच एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होगा, किन्तु यदि संयम नहीं होगा, तो विकृति होगी ही और वह परिसर ही नहीं, उसके बाहर सडक़ों पर भी दिखेगी।
चरित्र की अवहेलना के कारण ही आज के समय में बलात्कार हो रहे हैं, खुलेआम अभद्रता व उत्पीडऩ हो रहा है। युवा ही पीडि़त हैं, युवा ही उत्पीडक़ हैं और उत्पीडऩ के विरुद्ध आंदोलन भी वही कर रहे हैं। हर युवा को आत्मावलोकन करना चाहिए, स्वयं में चरित्र की जो कमियां हैं, उन्हें दूर करना चाहिए।
स्थितियां ऐसी भी नहीं बिगड़ी हैं कि सुधार न हो सके। किसी भी समाज में सौ प्रतिशत लोग सही नहीं होते। अपराधियों और बलात्कारियों की संख्या अच्छे लोगों की तुलना में बहुत कम है। अच्छा जीवन साथी प्राप्त करने की इच्छा सबके मन में होती है, लगभग सभी युवा चाहते हैं कि सुन्दर पत्नी मिले, धनवान मिले, पढ़ी-लिखी मिले। अच्छी लडक़ी कब मिलेगी, जब अच्छा समाज होगा। इसके लिए युवा आंदोलन करते हैं, पाप और बलात्कार के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, इसका अर्थ है कि उनमें अच्छाइयों के लिए सद्भावना है और बुराइयों को दूर करने की इच्छा है।
हमें इस पक्ष को भी देखना चाहिए कि लड़कियों में भी विकृति आई है। कुछ लोग कहते हैं कि लड़कियों में लडक़ों से भी ज्यादा विकृति आई है। मैं अनेक लड़कियों से भी पूछताछ करता रहता हूं, स्वयं वे भी स्वीकार करती हैं कि लड़कियां बदमाशी कर रही हैं, कई मामलों में तो वे लडक़ों से भी बढक़र बिगड़ गई हैं। ऐसी लड़कियों के साथ क्या कोई सहानुभूति होनी चाहिए? यह कहना ठीक नहीं होगा कि केवल लडक़े ही गलत कर रहे हैं। किस समय घूमने निकलना है, किसके साथ घूमने निकलना है, कहां घूमने जाना है, शरीर का कितना भाग खुला रखना है, क्या यह नहीं सोचना चाहिए? बाहर दुनिया में युवाओं के लिए प्रलोभन हो गया है। घर में भी संयम नहीं है, घर में खूब स्वतंत्रता है और पॉकेट मनी भी हजारों में मिलने लगी है, तो बाहर भी कई युवतियां ऐसे घूम रही हैं कि लोग भडक़ते हैं। अनेक युवा हैं, जिन्हें अपनी, परिवार की, समाज या देश की कोई चिंता नहीं है।
बहुत-सी लड़कियों में पैसे का लोभ बढ़ गया है। पैसे के लालच में कई लड़कियां पागलों की तरह घूम रही हैं। अभिभावक पैसे नहीं देते या अभिभावकों के पास पैसे नहीं हैं, तो स्वयं असंयमित तरीकों से कमा रही हैं। कोई कानून नहीं, जो इन्हें रोक सके, रास्ते पर ला सके। जब स्वयं ही स्वच्छता और चरित्र की चिंता न हो, तो दूसरे कितना और क्या कर सकते हैं?
तो आवश्यक है कि प्रशासनिक दृष्टि से विकास के अवसर बढ़ाने पर चर्चा हो, रोजगार बढ़े, चरित्र सुधार के प्रयोग हों, कानून बनें। युवाओं को अच्छी शिक्षा मिले, रोजगार मिले, रोजगार देते समय चरित्र को भी अहमियत दी जाए। वास्तविक चरित्र के बारे में पता लगाकर नौकरी दी जाए। जो गलत हों, उन्हें तत्काल दंड हो, तो स्थितियां सुधरेंगी।
पहले बलात्कार-हत्या इत्यादि की घटनाएं कम होती थीं, होती भी थीं, तो अखबारों इत्यादि में कम ही छपता था, पहले चैनलों और अखबारों का विकास ज्यादा नहीं था, लेकिन अब हो गया है। अब स्थिति यह हो गई है कि दिल्ली में बलात्कार की एक घटना पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने भी बयान दे दिया, मतलब भारत में बलात्कार की घटना की पूरी दुनिया में चर्चा में हो गई, यह अपने देश के लिए बहुत हानिकारक है, दुनिया के लोग हमें सिखा रहे हैं कि भारतीयों को कैसे रहना चाहिए।
कभी यह देश चरित्र की शिक्षा पूरी दुनिया को देता था। यहां पवित्र जीवन वाली महिलाएं हुई हैं। कितने महापुरुष इस देश में हुए हैं। चरित्र की उच्चता वाले, दूसरों को शिक्षित करने वाले, इतने महान लोग दूसरे किसी भी देश में नहीं हुए हैं। ऐसे देश में ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिए कि नीचे देखना पड़े।
अंग्रेजी में भी कहा जाता है :-
इफ वेल्थ इज लॉस्ट, देन समथिंग इज लॉस्ट।
इफ करेक्टर इज लॉस्ट, एवरीथिंग इज लॉस्ट।
अर्थात :-
यदि संपत्ति गई, तो कुछ ही गया।
यदि चरित्र गया, तो सबकुछ गया।
दूसरे देश के लोगों को मौका नहीं देना चाहिए कि वे उंगली उठाएं। शासन और प्रशासन दोषी है। ये लोग देश में केवल एमबीए, सीए, डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि बनाने में लगे हैं, केवल ऐसी पढ़ाई से ही संसार की दृष्टि में हमारा स्वरूप बड़ा नहीं हो सकेगा। केवल इन पढ़ाइयों से किसी जाति, समाज, देश का भला नहीं हो सकता। शासन-प्रशासन को इस मामले में चुस्त होना चाहिए कि बच्चों को सही शिक्षा मिले। इस दिशा में दूसरे देशों की देखादेखी नहीं, बल्कि सोच-समझकर जल्दी कदम उठाने चाहिए। अच्छी शिक्षा मिले, व्यक्ति के काम का मूल्यांकन उसके चरित्र से होने लगे, तो सुधार होगा और भारत की छवि संसार में सबसे उज्ज्वल हो जाएगी।
जय सियाराम…
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