सत्संग
भगवान की दया से एक बार मैं सूरत से वाराणसी के लिए यात्रा कर रहा था। प्रात: काल का समय था, लोग सो रहे थे। मैं बैठे-बैठे ईश्वर की विराट अवस्था का अवलोकन कर रहा था। कितना बड़ा आकाश, बाग-बगीचे और हमारा अपना छोटा-सा दायरा। ट्रेन में सामने ही एक सज्जन मेरी ही तरह बैठे थे। बाकी सभी लोग सो रहे थे। उन्होंने कहा, ‘महाराज, मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं।’
मैंने पूछा, ‘यह प्रश्न आपके मन में कैसे आया?’
उन्होंने कहा, ‘बार-बार मेरे मन में आ रहा है कि आपसे कुछ पूछूं, आपसे कोई गपशप हो।’
मैंने कहा, ‘मैं संन्यासी हूं, हमारी कोई जाति नहीं, हमारा कोई परिवार नहीं। हम आपसे आदान-प्रदान जरूर करेंगे, किन्तु आप अपने शब्द का सुधार करें, हमसे बातचीत करने के लिए गपशप शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए। आप स्तर बनाइए। हम कहें, आप सुनें, आप कहें, तो हम सुनें। उद्देश्य केवल टाइमपास करना न हो। गपशप तो कुछ भी बोलना है, अप्रासंगिक, इधर की उधर की। जो अव्यवस्थित बातचीत है, उसे गपशप कहते हैं। तो पहले आप शब्दावली शुद्ध कीजिये।’
वे प्रसन्न थे, उन्होंने पूछा, ‘इसके लिए सबसे बढिय़ा शब्दावली क्या होगी?’
हमने कहा, ‘हम सत्संग करेंगे। आइए, हम विचार विनमय करते हैं, चिंतन करते हैं। मनुष्य जीवन का बड़ा महत्व है, उसमें मिले समय का सदुपयोग करेंगे, गपशप करके दुरुपयोग नहीं। सवाल कीजिए, विचार कीजिए कि दुख क्यों है, ईश्वर है या नहीं, मानसिक क्षमता का विकास कैसे किया जाए। ऐसे सत्संग से ही हमारी शक्ति बढ़ेगी।’
उन्हें मेरी बात अच्छी लगी। सत्संग का विचार हुआ। लेकिन किससे कब, क्या, कहां कह रहे हैं, इसका बड़ा महत्व है। उन सज्जन ने कुछ विचार के बाद मुझसे पूछा, ‘आपकी चप्पल बहुत अच्छी है, ये चप्पल आपने कहां से खरीदी?’
यह सत्संग की कैसी शुरुआत हुई? मैं चुप हो गया। तब उन्होंने पूछा, ‘क्या मैंने कुछ गलत पूछ लिया, क्या आपको बुरा लगा?’
मैंने कहा, ‘नहीं, बुरा नहीं लगा। याद कर रहा हूं। साधु होने के बाद कभी चप्पल खरीदा नहीं। हमारे दाता बहुत हैं। चप्पल किस कम्पनी का है, कितने रुपए का है, ये बातें तो छोडि़ए, देने वाले का ही ध्यान नहीं है कि किसने दिया, कहां दिया, कब दिया।’
उन्होंने कहा, ‘कैसे आदमी हैं, इतनी बढिय़ा चप्पल है, लेकिन यह याद नहीं है कि किसने दिया, कब और कहां दिया?’
मैंने फिर कहा, ‘आप विश्वास कीजिए, मुझे नहीं पता, लेकिन मुझे कष्ट है कि आपने मेरे साथ चिंतन की शुरुआत चप्पल से की. मुझे दुख हुआ। आप चप्पल पर चर्चा करेंगे, फिर जूते पर आ जाएंगे। कपड़े पर आ जाएंगे, ब्रांड की चर्चा करेंगे। आप सुधार की बात आखिर कब करेंगे, सत्संग कब करेंगे?’
उन्होंने फिर गलती मानी, कहा, ‘मैं सुधार कर रहा हूं, आप बहुत अच्छे लग रहे हैं। मेरी बड़ी इच्छा है। मैं आपसे हाथ मिलाना चाहता हूं।’
मैंने जवाब दिया, ‘बात फिर गड़बड़ा गई। हाथ मिलाने से काम नहीं चलेगा, मन मिलाना होगा। मिलन भी बराबर का होता है। आपका हाथ मेरे स्तर का नहीं है, मैं नहीं मिलाऊंगा।’
उन्हें बुरा लगा, ‘क्यों? मेरा हाथ खराब है क्या?’
मैंने कहा, ‘भले आदमी, उसमें कुछ कमी है। आपने जूता खोला, हाथ नहीं धोया, आपने पान खाया, मुंह में उंगली डाली, लेकिन हाथ नहीं धोया। इतनी देर में आपने देखा होगा, मैंने अपनी उंगली न मुंह में डाली, न जूता ठीक किया। बाकी आप पवित्र हैं। हम केवल यह कह रहे हैं कि आपका हाथ साफ नहीं है।’ उन्होंने भी माना कि उनका हाथ गंदा है। विज्ञान भी गंदगी का समर्थन नहीं करता। डॉक्टर भी स्वस्थ रहने के लिए शरीर और हाथों को स्वच्छ रखने की सलाह देते हैं। स्वस्थ रहने में सफाई का बड़ा महत्व है। स्वच्छता होनी ही चाहिए। आज लोग केवल हाथ मिलाते हैं, जबकि ज्यादा आवश्यक है मन मिलाना, विचार मिलाना है। हाथ मिलाना, लेकिन मन से दूर रहना भला किस काम का?
जगदगुरु के प्रवचन का अंश