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                                     रामायण में ऋषिपरम्परा

साहित्य संसार में यह कथन प्रसिद्ध है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है।’ साहित्य में तत्कालीन विवरण निबद्ध रहते हैं। साहित्य जगत् के मुकुटमणि ग्रन्थ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में भी तत्कालीन समाज की झाँकी विद्यमान है। रामायण आदिकाव्य के साथ ही आर्षकाव्य भी माना जाता है (रामायण 7.111.16)। इसमें तत्कालीन ऋषियों के विवरण प्राप्त होते हैं। इन ऋषियों के नाम, स्थान, सम्बन्धी (रिश्तेदार), विशेषण, कार्य और जीवनचर्या आदि का उल्लेख रामायण में है। ऋषि भारतीय समाज के पथ प्रदर्शक रहे हैं। उनके तपोमय जीवन का अनुशीलन आज के आपा-धापी और भाग-दौड़ भरे जीवन में नितान्त प्रासंगिक है।

‘ऋषि’ शब्द का अर्थ- ‘ऋषि’ शब्द की व्युत्पत्ति ऋष् धातु से इन्, कित् प्रत्यय के योग से होती है। इसका अर्थ है- एक अन्तः सफूर्त कवि या मुनि, मन्त्रद्रष्टा, पुण्यात्मा मुनि, संन्यासी, विरक्त योगी।1

अमरकोष में ऋषि के दो पर्याय प्राप्त होते हैं- ऋषि और सत्यवचस्। तद्यथा-

‘ऋषयः सत्यवचसः’2

काव्यकौतुककार भट्टतौत साक्षात्कार (दर्शन) करने से ऋषि कहते हैं-

‘नानृषिः कविरित्युक्तः ऋषिश्च किल दर्शनात्’3

निरुक्त मे ऋषि का निर्वचन इस प्रकार है-

‘ऋषिः दर्शनात्, स्तोमान् ददर्श इति औपमन्यवः’4

इसी ग्रन्थ में यह विचार भी व्यक्त हुआ है-

‘साक्षात्कृतधर्माणः ऋषयो बभूवुः’5

इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा (कर्ता नहीं) ऋषि कहे गये हैं।

ऋषि-परम्परा- ऋग्वेद में प्राचीन और नवीन ऋषियों के निर्देश से ऋषिपरम्परा का संकेत मिलता है। तद्यथा-

‘अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति।।’6

महाकवि भवभूति के रामकथाश्रित नाटक उत्तररामचरितम् में भी आदि ऋषि और लौकिक साधूओं का उल्लेख है-

‘ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थो ऽनुधावति।’7

यहाँ आदि ऋषि से वशिष्ठ अभिप्रेत हैं।

‘ऋषि’शब्द का प्रयोग- वैदिक काल में ऋषि शब्द का प्रयोग केवल मन्त्रद्रष्टाओं के लिए होता था। स्वामी दयानन्द सरस्वती का विचार है कि जिस ऋषि ने जिस मन्त्र का अर्थ यथावद् जाना, उस उस मन्त्र पर द्रष्टा ऋषि का नामोल्लेख किया गया है।8

परवर्तीकाल में यह शब्द ऋषि की विशेषताओं से युक्त अन्य जनों के साथ भी जुड़ने लगा। रामायण एवं महाभारत लौकिक काव्य होने पर भी आर्ष काव्य कहे जाते हैं एवं उनमें कहीं कहीं प्राप्त अपाणिनीय प्रयोग आर्ष प्रयोग मानकर स्वीकार कर लिए जाते हैं। विशेषताओं के आधार पर कुछ प्रकार भी विकसित हो गए, जैसे- ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि, सप्तर्षि, महर्षि, विप्रर्षि। इनका परिचय इस प्रकार है-

ब्रह्मर्षि- ब्राह्मण ऋषि जैसे वसिष्ठ।

देवर्षि- सन्त जिसने देवत्व प्राप्त कर लिया है, दिव्य ऋषि यथा- अत्रि, भृगु, पुलस्त्य, अंगिरस् आदि9

कालिदास ने कुमारसम्भवम् में अंगिरस् के लिए देवर्षि पद का प्रयोग किया है। तद्यथा-

‘एवं वादिनि देवर्षौ….’10

नारद के लिए भी देवर्षि पद प्रयुक्त हुआ है। तद्यथा-

‘‘आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।’

‘देवर्षीणां च नारदः’’11

सप्तर्षि- सात ऋषियों में मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ की गणना होती है। आकाश में सात तारों के एक समूह विशेष को भी सप्तर्षि कहा जाता है।

राजर्षि- राजकीय ऋषि, सन्त समान राजा, क्षत्रिय जाति का पुरुष जिसने अपने पवित्र जीवन तथा साधनामय भक्ति से ऋषि का पद प्राप्त किया हो। जैसे- जनक, देवरात आदि।

महर्षि- महान् ऋषि। वाल्मीकि के लिए यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है।12

रामायण कालीन ऋषि- आदिकवि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में अनेक ऋषियों के वर्णन और उल्लेख मिलते हैं। इन ऋषियों का विवरण यहाँ अकारादि क्रम से प्रस्तुत है-

(1) अगस्त्य- ये अपने भाई के साथ दण्डकारण्य में तपस्या करते थे। इनके ऋषिसत्तम, ब्राह्मणोत्तम, मुनिसत्तम, महर्षि, धीमान्, महामुनि, द्विजेन्द्र, पुण्यकर्मा, मुनिश्रेष्ठ, सत्यवादी, कुम्भयोनि (रामायण 7.2.1) आदि विशेषण प्राप्त होते हैं। इनकी उत्पत्ति वरुण और मित्र देवता के घटस्थित वीर्य से हुई थी (रामायण 7. सर्ग 57)। इनकी पत्नी लोपामुद्रा हैं (रामायण 5.24.11)।

(2) अगस्त्य-भ्राता- दण्डकारण्य में सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम से चार योजन दक्षिण में इनका आश्रम था (रामायण 3.11.37)। सुतीक्ष्ण ऋषि ने राम से इनके आश्रम में एक रात ठहरकर अगले दिन एक योजन दक्षिण में स्थित अगस्त्य आश्रम को जाने के लिए कहा (रामायण 3.11.40,41)। ये अगस्त्य ऋषि के छोटे भाई थे (रामायण 3.11.72)

(3) अंगिरस्- राजा निमि ने इन्हें यज्ञ कराने के लिए आमन्त्रित किया था (रामायण 7.55.9)।

(4) अत्रि- चित्रकूट से चलकर राम इनके आश्रम पर पहुँचे थे। इनकी पत्नी अनसूया थीं। इनके लिए ऋषिसत्तम, धर्मज्ञ तथा कुलपति (रामायण 6.123.48) आदि विशेषण प्रयुक्त हुए हैं।

(5) ऋचीक (एक)- ये विश्वामित्र की बड़ी बहिन सत्यवती के पति थे (रामायण 1.34.7)। ये अपने तीन पुत्रों तथा पत्नी सहित भृगुतुंग पर्वत पर रहते थे (रामायण 1.61.11)। इनके मध्यम पुत्र का नाम शुनःशेप था।

(6) ऋचीक (दो)- विश्वकर्मा द्वारा निर्मित वैष्णव धनुष विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक को धरोहर के रूप में दिया था। ऋचीक ने अपने पुत्र जमदग्नि को यह धनुष दे दिया था। जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे (रामायण 1.75.21-23)।

(7) कण्डु (एक)- इन्होंने अपने पिता के आदेश पर गाय की हत्या कर दी थी। इनके ऋषि, वनचारी, विपश्चित् (रामायण 2.21.31) आदि विशेषण प्राप्त होते हैं।

(8) कण्डु (दो)- विन्ध्य से दक्षिण की ओर इनका निवास था। इनके विशेषण महाभाग, सत्यवादी, तपोधन, महर्षि, परमामर्षी (रामायण 4.48.12,13) महामुनि, धर्मात्मा (रामायण 4.48.14) हैं।

(9) कण्व- राम के राज्यारोहण पर अभिनन्दन करने पूर्व दिशा से पधारे ऋषियों में ये भी थे। इनके पिता का नाम मेधातिथि है। (रामायण 7.1.2)

(10) कवष- ये राम के राज्याभिषिक्त होने पर पश्चिम दिशा से अभिनन्दनार्थ पधारे थे। (रामायण 7.1.4)

(11) कश्यप- ब्रह्मा के पुत्र मरीचि ऋषि इनके पिता थे। इन्होंने दक्ष की पुत्रियों से विवाह किया था। विवस्वान् इनके पुत्र थे। इनकी पत्नी अदिति से द्वादश आदित्यों तथा दिति से दैत्यों का जन्म हुआ।

(12) कात्यायन- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.5)

(13) कुलपति ऋषि- चित्रकूट पर निवास करने वाले ऋषि राक्षसों के डर से पलायन करने लगे। उनमें कुलपति ऋषि भी थे (रामायण 2.116.25)।

(14) कौशिक- पूर्व दिशा निवासी ये ऋषि राम को राज्यारोहण की बधाई देने आये थे। (रामायण 7.1.2)

(15) कौशेय- राम के राज्यारोहण होने पर ये पश्चिम दिशा से अभिनन्दनार्थ पधारे थे।(रामायण 7.1.4)

(16) गर्ग- राम की सभा में सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.4)

(17) गार्ग्य- अमित प्रभा से युक्त ये महर्षि अंगिरस् के पुत्र थे। इन्हें ब्रह्मर्षि भी कहा गया है। तद्यथा- ‘गार्ग्यमंगिरसः पुत्रं ब्रह्मर्षिममितप्रभम्’13

राम ने अयोध्या आगमन पर इन महर्षि की पूजा की थी (रामायण 7.100.5)

(18) गालव- पूर्व दिशा के ये ऋषि राज्याभिषेक होने पर राम का अभिनन्दन करने अयोध्या पधारे थे (रामायण 7.1.2)

(19) गोकर्ण- रावण ने इनके शुभ आश्रम पर तपस्या की थी (रामायण 7.9.47)। इस उल्लेख से ये ऋषि प्रतीत होते हैं।

(20) गोतम (एक) – वसिष्ठ आदि के साथ इन्होंने जल से राम का अभिषेक किया था (रामायण 6.128.60) सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.5)

(21) गौतम (दो)- मिथिला प्रदेश के समीप आश्रम में निवास करने वाले महर्षि गौतम के रामायण में महात्मा (रामायण 1.48.15), महातपाः, महातेजाः (रामायण 1.48.33) परमर्षि (रामायण 7.30.30), महर्षि (रामायण 7.30.39), विप्रर्षि, ब्रह्मवादी (रामायण 7.30.45) आदि विशेषण प्राप्त होते हैं।इनकी पत्नी अहल्या थी (रामायण 7.30.26)। राजा निमि ने महर्षि गौतम के आश्रम के समीप वैजयन्तपुर बसाया था (रामायण 7.55.6)। इन महाविप्र गौतम ने वसिष्ठ के अनुपस्थिति में निमि का यज्ञ सम्पन्न कराया था (रामायण 7.55.11)।

(22) चूली- ये ऋषि जब तपस्या कर रहे थे तब ऊर्मिला की पुत्री सोमदा नामक गन्धर्वी इनकी सेवा करती थी। उसकी सेवा से प्रसन्न हुए ब्रह्मर्षि ने उसके इच्छित फल के रूप में ब्रह्मदत्त नामक पुत्र प्रदान किया (रामायण 1.33.18)।

(23) च्यवन- भृगुकुल में उत्पन्न हुए ये ऋषि हिमालय पर तपस्या करते थे (रामायण 1.70.32)। इन्हें देववर्चस् कहा गया है। च्यवन ऋषि की अगुआई में यमुनातीर निवासी उग्रतपस्वी 100 से अधिक महर्षि राम के पास आये (रामायण 7.60.15)। ये भृगुपुत्र कहे गये हैं (रामायण 7.90.5)। सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे (रामायण 7.96.4)। इनकी पत्नी सुकन्या थी (रामायण 5.24.11)।

(24) जमदग्नि- ये ऋचीक के पुत्र तथा परशुराम के पिता थे (रामायण 1.75.22,23)। तपोबल सम्पन्न ये ऋषि जब अस्त्र शस्त्र का परित्याग कर ध्यानावस्था में बैठे थे तब कृतवीर्य कुमार (कार्तवीर्य अर्जुन) ने इनको मार दिया (रामायण 1.75.23,24)। इनकी पत्नी रेणुका थीं (रामायण 1.51.11)।

(25) जह्नु- गंगा के प्रवाह को लेकर जा रहे भगीरथ के मार्ग में ये यज्ञ कर रहे थे। गंगा इनके यज्ञमण्डप को बहा ले गयी। इससे नाराज होकर ये गंगा का पान कर गये। देव, गन्धर्व तथा ऋषियों द्वारा स्तुति किये जाने पर इन्होंने अपने कर्णछिद्रों से गंगा को प्रवाहित किया। इससे गंगा जाह्नवी, जह्नुसुता कहलायी (रामायण 1.43.34-38)।

(26) जाबालि- ये राजा दशरथ के मन्त्री थे (रामायण 1.7.5)। राजा दशरथ के दिवंगत होने पर इन्होंने शीघ्र राजा नियुक्त करने के लिए वशिष्ठ से निवेदन किया (रामायण 2.67.3)। वसिष्ठ के साथ इन्होंने भी राम का अभिषेक किया (रामायण 6.128.60)। राम ने ब्राह्मण बालक की असमय मृत्यु पर विचारार्थ इनको बुलाया था (रामायण 7.74.4)। अश्वमेध यज्ञ के मन्त्रणार्थ राम ने इनको बुलाया था (रामायण 7.91.2)। सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.2)

(27) दीर्घतमा- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.2)।

(28) दुर्वासा- ये अत्रि ऋषि के पुत्र हैं। ये महामुनि एक वर्ष तक वसिष्ठ ऋषि के आश्रम पर रहे (रामायण 7.51.2)। इन्हें ऋषिशार्दूल (रामायण 7.105.5), ऋषिसत्तम (रामायण 7.105.2) कहा गया है।

(29) धौम्य- राम के राज्याभिषिक्त होने पर पश्चिम दिशा से अभिनन्दनार्थ पधारे थे। (रामायण 7.1.4)

(30) नमुचि- राम के राज्याभिषिक्त होने पर दक्षिण दिशा से अभिनन्दनार्थ पधारे थे। (रामायण 7.1.3)

(31) नारद- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.5)। वाल्मीकि ने राम कथा इन्हीं से जानी थी (रामायण 1.1.1)।

(32) निशाकर- विन्ध्य पर्वत पर इनका आश्रम था। ये उग्रतपा (रामायण 4.60.8), ज्वलिततेजा (रामायण 4.60.14), महर्षि (रामायण 4.62.15), राजर्षि (रामायण 4.63.10) कहे गये हैं।

(33) नृषंगु- राम के राज्याभिषिक्त होने पर पश्चिम दिशा से अभिनन्दनार्थ पधारे थे। (रामायण 7.1.4)

(34) पर्वत- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे (रामायण 7.96.5)।

(35) पुलस्त्य- ये दसवें प्रजापति हुए (रामायण 3.14.8)। ये ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं और इनके मानस पुत्र विश्रवा हैं (रामायण 5.23.6,7)। ये ब्रह्मर्षि साक्षात् पितामह के समान हैं (रामायण 7.2.4)। इन्हें तृणबिन्दु की पुत्री से पौलस्त्य (विश्रवा ) नामक पुत्र हुआ (रामायण 7.2.31,32)। इन्होंने हैहयराज अर्जुन के बन्धन से अपने पौत्र रावण को मुक्त कराया (रामायण 7.33.16,17)।

(36) प्रमुचि- राम के राज्याभिषिक्त होने पर दक्षिण दिशा से अभिनन्दनार्थ पधारे थे। (रामायण 7.1.3)

(37) भरद्वाज- चित्रकूट निवासी इन ऋषि के कहने पर राम ने चित्रकूट में अपना निवास बनाया (रामायण 1.1.31)। ये महात्मा, ऋषि, संशितव्रत, एकाग्र (रामायण 2.54.11), देवपुरोहित, महात्मा, ब्राह्मण, विप्रवर (रामायण 2.89.23), महर्षि, महाबुद्धि और अर्थवित् (रामायण 2.92.29) कहे गये हैं। इन्होंने अपनी पुत्री देववर्णिनी का विवाह पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा के साथ किया (रामायण 7.3.3)।

भार्गव- भृगु के वंशज जमदग्नि और च्यवन भार्गव कहलाये (रामायण 1.51.11), (रामायण 7.60.4)।

(38) भृगु- हिमालय पर भृगुप्रस्रवण पर सत्यवादियों में श्रेष्ठ भृगु ने सगर की तपस्या से प्रसन्न होकर पुत्रप्राप्ति का वरदान दिया (रामायण 1.38.5-7)। ये परमधार्मिक हैं (रामायण 1.38.11)। दैत्यों को आश्रय देने वाली इनकी पत्नी का विष्णु ने वध कर दिया तब इन्होंने विष्णु को शाप दे दिया (रामायण 7.51.12-14)।

(39) मतंग- क्रौंचारण्य से तीन कोस पूर्व की ओर इनका आश्रम था (रामायण 3.69.8)। पम्पासरोवर के पश्चिम तट पर इनका आश्रम है जहाँ इनके प्रभाव से हाथी आक्रमण नहीं कर सकते (रामायण 3.73.28-30)। वह वन मतंगवन नाम से प्रसिद्ध है। ये मुनिसत्तम (रामायण 4.11.51), महर्षि (रामायण 4.11.62) कहे गये हैं।

(40) मरीचि- इनके पिता ब्रह्मा, पुत्र कश्यप, पौत्र विवस्वान्, प्रपौत्र वैवस्वत मनु हैं (रामायण 1.70.19,20)। ये सातवें प्रजापति हैं (रामायण 3.14.8)।

(41) माण्डकर्णी- दण्डकारण्य वासी इन ऋषि की तपस्या से डरकर देवों ने अप्सराओं से इनकी तपस्या भंग करवा दी। वे पाँच अप्सराएं इनकी सेवा करती हुई जल के भीतर बने आश्रम में रहती थीं (रामायण 3.11.11-19)।

(42) मार्कण्डेय- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। इन्हें दीर्घायु कहा गया है। (रामायण 7.96.3)।

(43) मौद्गल्य- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.3)।

(44) यवक्रीत- पूर्व दिशा के ये ऋषि राम का राज्याभिषेक होने पर अभिनन्दन करने अयोध्या पधारे थे (रामायण 7.1.2)।

(45) वसिष्ठ- ये प्रसिद्ध ऋषि हैं। इनकी पत्नी अरुन्धती हैं। ये ऋषिसत्तम राजा दशरथ के ऋत्विक् (पुरोहित) थे (रामायण 1.7.4)। राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति हेतु उपाय स्वरूप हयमेध यज्ञ के लिए इनसे निवेदन किया था (रामायण 1.13.2)। ये ब्रह्मर्षिसत्तम (रामायण 7.55.8) हैं। देवराज इन्द्र ने यज्ञार्थ इनका वरण किया था (रामायण 7.55.10)। ये ब्रह्मा के पुत्र हैं (रामायण 7.55.14)। राजा निमि के शाप से ये शरीरहीन हो गये थे (रामायण 7.55.21)। मित्र और वरुण देवों के घटस्थित वीर्य से इनका पुनर्जन्म हुआ और इक्ष्वाकुवंश के पुरोहित हुए (रामायण 7.57.7)। इनके 100 पुत्र थे (रामायण 1.57.15)। विश्वामित्र इनके ब्रह्मतेज के सामने पराजित हो गये (रामायण 1.56.21)।

(46) वामदेव- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर ये राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.2)।

(47) वामन- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर ये राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे। (रामायण 7.96.3)।

(48) वाल्मीकि- इन्होंने ब्रह्मा के निर्देश पर रामायण की रचना की (रामायण 1.2.32)। ये ऋषि (रामायण 1.2.13), ऋषिसत्तम (रामायण 1.2.32), महर्षि (रामायण 1.2.41) कहे गये हैं।

(49) विभाण्डक- ये काश्यप के पुत्र हैं। इनके पुत्र का नाम ऋष्यशृंग है जो राम के जीजाजी हैं (रामायण 1.9.4)।

(50) विमुख- दक्षिण दिशा के ये ऋषि राम का राज्याभिषेक होने पर अभिनन्दन करने अयोध्या पधारे थे (रामायण 7.1.3)।

(51) विश्वामित्र- प्रजापति के पुत्र कुश हुए। कुश के कुशनाभ, कुशनाभ के गाधि और गाधि के पुत्र विश्वामित्र हैं (रामायण 1.51.18,19)। पहले ये राजा थे (रामायण 1.51.17)। इनके 100 पुत्र क्रोधित होकर वशिष्ठ पर आक्रमण करने लगे तब उन्होंने हुंकार मात्र से सबको जला कर भस्म कर दिया (रामायण 1.55.5,6)। तब विश्वामित्र अपने एक पुत्र को राज्य सौंपकर तपस्या करने निकल पड़े (रामायण 1.55.11)। एक हजार वर्ष की तपस्या के फलस्वरूप उन्होंने राजर्षि पद प्राप्त किया (रामायण 1.57.6)। पुनः एक हजार वर्ष की तपस्या से वे ऋषि हो गये (रामायण 1.63.2)। पुनः एक हजार वर्ष की तपस्या से वे महर्षि हो गये (रामायण 1.63.18,19)। पुनः एक हजार वर्षों तक घोर तप किया (रामायण 1.63.24) किन्तु क्रोधित हो जाने के कारण तपस्या पूर्ण न हो सकी (रामायण 1.64.17)। इस कारण उन्होंने पुनः एक हजार वर्षों तक मौन धारण कर उत्तम तपस्या की (रामायण 1.65.2)। इससे उन्हें ब्रह्मर्षि पद प्राप्त हुआ (रामायण 1.65.19,20)।

(52) शक्ति- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर ये राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे (रामायण 7.96.3)।

(53) शतानन्द- ये गोतम ऋषि तथा अहल्या के ज्येष्ठ पुत्र हैं (रामायण 1.51.1,2)। ये जनक के पुरोहित हैं (रामायण 1.50.6)। धर्मज्ञ शतानन्द सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे (रामायण 7.96.4)।

(54) शरभंग – ये दण्डकारण्य वासी ऋषि थे। राम ने वनवास के समय इनका दर्शन किया था (रामायण 1.1.41)।

(55) शुक्राचार्य- इनके लिए देवर्षि पद प्रयुक्त हुआ है। ये भृगुवंशी थे (रामायण 7.81.16)।

(56) शुनःशेप- ये ऋचीक ऋषि के मध्यम पुत्र थे। राजा अम्बरीष इन्हें यज्ञ में बलि के निमित्त खरीद लाए। विश्वामित्र के कथनानुसार इन्होंने देव स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर इन्द्र ने इन्हें दीर्घायु बनाया (रामायण 1.62.19-27)।

(57) संवर्त- उशीरबीज क्षेत्र में राजा मरुत्त का यज्ञ सम्पन्न कराने वाले ब्रह्मर्षि संवर्त साक्षात् बृहस्पति के भाई थे। (रामायण 7.18.3)

(58) सुतीक्ष्ण- ये दण्डकारण्य वासी ऋषि थे (रामायण 1.1.42)। विभिन्न ऋषियों से मिलकर राम पुनः इनके आश्रम पर आए। कुछ समय बिताकर उन्होंने अगस्त्य ऋषि के बारे में पूछा (रामायण 3.11.30) और उनकी अनुमति सं अगस्त्य ऋषि के आश्रम को चल दिये।

(59) सुप्रभ- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर ये राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे (रामायण 7.96.4)। ये अग्निपुत्र कहे गये हैं।

(60) सुमुख- दक्षिण दिशा के ये ऋषि राम का राज्याभिषेक होने पर अभिनन्दन करने अयोध्या पधारे थे (रामायण 7.1.3)।

(61) सुयज्ञ- सीता द्वारा पवित्रता सम्बन्धी शपथ ग्रहण करने के अवसर पर ये राम द्वारा आमन्त्रित किये गये थे (रामायण 7.96.5)।

(62) स्वस्त्यात्रेय- दक्षिण दिशा के ये ऋषि राम का राज्याभिषेक होने पर अभिनन्दन करने अयोध्या पधारे थे (रामायण 7.1.3)।

वाल्मीकीय रामायण में लगभग 60 ऋषियों के उल्लेख और विवरण मिलते हैं। ये ऋषि सम्पूर्ण देश में निवासरत थे। महत्त्वपूर्ण उत्सवों में इनकी भागीदारी होती थी, जैसे राम के राज्यारूढ होने पर उनका अभिनन्दन करने के लिए सभी दिशाओं से ऋषि पधारे थे।14 राजागण इन्हें महत्त्वपूर्ण निर्णयों में सम्मिलित करते थे, जैसे परित्यक्त सीता के पतिव्रता होने सम्बन्धी शपथ पुनः ग्रहण करने के अवसर पर राम द्वारा ऋषिगण बुलाये गये थे।15 ऋषि राजाओं के पुरोहित और मन्त्री के रूप में भी सम्मान्य थे, जैसे राजा दशरथ के समय पुरोहित तथा मन्त्री।16 ये निर्णायक अवसरों पर अपना परामर्श देते थे, जैसे राजा दशरथ के दिवंगत होने पर प्रातःकाल राज्य का प्रबन्ध करने वाले ब्राह्मण एकत्र हो कर दरबार में आये और ऋषि वशिष्ठ के सम्मुख अपनी-अपनी राय देने लगे।17 ये मुख्य रूप से यज्ञ आदि कार्य करने के साथ तपस्या में संलग्न रहते थे।

 

सन्दर्भ-

  1. संस्कृत-हिन्दी कोश पृष्ठ 224/वामन शिवराम आप्टे/मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली/2001/

  2. अमरकोष/ श्रीमन्नालाल अभिमन्यु/ चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी/2008/द्वितीय काण्ड-ब्रह्मवर्ग-43, पृ.168

  3. हेमचन्द्र कृत काव्यानुशासन में पृ. 316 पर उद्धृत

  4. निरुक्त, 2/3, पृ. 50/यास्क/उमाशंकर शर्मा ऋषि/चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी/2008

  5. वही 1/6, पृ. 33

  6. ऋग्वेद 1/1/2

  7. उत्तररामचरितम् 1/10, भवभूति/कपिलदेव द्विवेदी/रामनारायण लाल विजय कुमार इलाहाबाद/2007

  8. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्ठ 422/ स्वामी दयानन्द/सम्पूर्णानन्द सरस्वती/ सिद्धयोगपीठ ट्रस्ट, कुरुक्षेत्र/2008

  9. संस्कृत-हिन्दी कोश पृ. 473

  10. कुमारसम्भवम् 6/84

  11. श्रीमद्भगवद्गीता 10/13, 26

  12. काव्यमीमांसा प्रथम अधिकरण, अध्याय 3/ डॉ. गंगासागर राय/चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी/2013

  13. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण 7.100.2

  14. ‘‘प्राप्तराज्यस्य रामस्य राक्षसानां वधे कृते।

आजग्मुर्मुनयः सर्वे राघवं प्रतिनन्दितुम्।।

कौशिकोऽथ यवक्रीतो गार्ग्यो गालव एव च।

कण्वो मेधातिथेः पुत्रः पूर्वस्यां दिशि ये श्रिताः।।

स्वस्त्यात्रेयश्च भगवान् नमुचिः प्रमुचिस्तथा।

अगस्त्योऽत्रिश्च भगवान् सुमुखो विमुखस्तथा।।

आजग्मुस्ते सहागस्त्या ये श्रिता दक्षिणां दिशम्।

नृषंगुः कवषो धौम्यः कौशेयश्च महानृषिः।।

तेऽप्याजग्मुः सशिष्या वै ये श्रिताः पश्चिमां दिशम्।

वसिष्ठः कश्यपोऽथात्रिर्विश्वामित्रः सगौतमः।।

जमदग्निर्भरद्वाजस्तेऽपि सप्तर्षयस्तथा।

उदीच्यां दिशि सप्तैते नित्यमेव निवासिनः।।’’(रामायण 7.1.1-6)

 

  1. ‘‘तस्यां रजन्यां व्युष्टायां यज्ञवाटं गतो नृपः।

ऋषीन् सर्वान् महातेजाः शब्दापयति राघवः।।

वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः।

विश्वामित्रो दीर्घतमा दुर्वासाश्च महातपाः।।

पुलस्त्योऽपि तथा शक्तिर्भार्गवश्चैव वामनः।

मार्कण्डेयश्च दीर्घायुर्मौद्गल्यश्च महायशाः।।

गर्गश्च च्यवनश्चैव शतानन्दश्च धर्मवित्।

भरद्वाजश्च तेेजस्वी अग्निपुत्रश्च सुप्रभः।।

नारदः पर्वतश्चैव गौतमश्च महायशाः।

कात्यायनः सुयज्ञश्च ह्यगस्त्यस्तपसां निधिः।।

एते चान्ये च बहवो मुनयः संशितव्रताः।

कौतूहलसमाविष्टाः सर्व एव समागताः।।’’(रामायण 7.96.1-6)

 

  1. ‘‘ऋत्विजौ द्वावभिमतौ तस्यास्तामृषिसत्तमौ।

वसिष्ठो वामदेवश्च मन्त्रिणश्च तथाऽपरे।।

सुयज्ञोऽप्यथ जाबालिः काश्यपोऽप्यथ गौतमः।

मार्कण्डेयस्तु दीर्घायुस्तथा कात्यायनो द्विजः।।

एतैर्ब्रह्मर्षिभिर्नित्यमृत्विजस्तस्य पौर्वकाः।’’(रामायण 1.7.4-6)

 

  1. ‘‘व्यतीतायां तु शर्वर्यामादित्यस्योदये ततः।

समेत्य राजकर्तारः सभामीयुर्द्विजातयः।।

मार्कण्डेयोऽथ मौद्गल्यो वामदेवश्च कश्यपः।

कात्यायनो गौतमश्च जाबालिश्च महायशाः।।

एते द्विजाः सहामात्यैः पुथग्वाचमुदीरयन्।

वसिष्ठमेवाभिमुखाः श्रेष्ठं राजपुरोहितम्।।’’(रामायण 2.67.2-4)

 

 

(आधार ग्रन्थ- श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण प्रथम खण्ड/गीताप्रेस गोरखपुर/2069वि.

 

 डॉ. नौनिहाल गौतम
सहायक प्राध्यापक, संस्कृत विभाग,
डॉ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) 470003
मो.- 09826151335,