सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः ।।

श्रीमठ : अतीत एवं वर्तमान – महन्थ रामदास

आज से लगभग सात सौ वर्ष पूर्व जिस ‘श्रीमठ’ का उत्कर्ष बढ़ा था, वह हम भारतीयों के लिए महान् गौरव का विषय है । पिछली कई शताब्दियों से भारत परतन्त्रता की बेड़ी में जकड़ गया था । इसके भीतर रहने वालों का जीवन दयनीय बन गया था, अत्याचारियों की कोई सीमा नहीं थी । बर्बर शासकों द्वारा बलात् धर्म परिवर्तन का नंगा नृत्य पूरे देश में हो रहा था, दीन-दुःखी आत्माओं की चीतकर से आकाश गुंजायमान था, प्रजा की आर्त पुकार थी कि परमात्मा प्रकट हों, उन्हें धैर्य प्रदान करें । दीनबन्धु ने दीनों की पुकार सुनी और “श्रीराम” स्वयं आचार्य रामानन्द के रूप में अवतीर्ण हो अपने प्रखर तेज को लेकर विश्व के सामने प्रकट हुए । उन्होंने अनुग्रहशक्ति का भी उपयोग किया, जिससे मृतक वर्ग जीवन में जान लौटी और जीवन रूपी मुरझायी हुई लता पुनः पल्लवित-पुष्पित हो उठी ।
तीर्थराज प्रयाग में पवित्र कान्यकुब्ज वंश के महान् विद्वान् पुण्यसदन जी के घर माता सुशीला देवी से भगवान् रामानन्द जी महाराज का आविर्भाव हुआ । वैश्वानर संहिता के अनुसार-
“माघे च कृष्णसप्तम्यां, चित्रानक्षत्र संयुते, कुम्भलग्ने सिद्ध योगे, सुसप्त दण्डगे रखौ, ‘रामानन्दः’ स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले । ।१ । ।”

विशिष्टाद्वैत प्रतिपादक श्रीसम्प्रदायाचार्य आचार्य श्रीरामानन्द ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम का आदर्श सम्मुख रखकर परम-प्रतापी शिष्यों का संग्रह किया ।
स्वामी रामानन्द अपने समय के एक अद्भुत समन्वयवादी, समय का निग्रह करने वाले, निर्भय, अटल सिद्धान्तवादी आचार्य हुए हैं । आचार्यपद पर प्रतिष्ठित होने के पश्चात् अत्यन्त निर्भयता के साथ “सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः,” का उद्घोष करने पर दिव्या से उत्पन्न हुसेन वंशीय माता के द्वारा पालित एवं ‘गो’ दुग्ध पान कर पलने वाले कबीर ने स्वामी जी से दीक्षा प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट की । दिव्य द्रष्टा आचार्य ने तत्काल बालक कबीर को विधिवत् तिलक कण्ठी-माला-मंत्र छाप देकर अपना शिष्य बना लिया । इस बात की चर्चा पूरे काशी नगर में बिजली की भाँति फैलने में देर न लगी । अनेक ब्राह्मण, विद्वान् इस बात से क्षुब्ध होकर आश्रम पंचगंगा घाट ‘श्रीमठ’ पहुँचे और स्वामी जी से प्रश्न पर प्रश्न करने लगे । किसी ने कहा कि, “कबीर जुलाहे ने कण्ठी-माला-तिलक छाप धारण कर लिया है और आपका शिष्य बतलाता है । क्या यह बात सच है? यदि ऐसा है तो बड़ा अनर्थ हुआ । इस प्रकार उन विद्वानों के कहने पर स्वामी जी ने बड़े मधुर स्वर में कहा, “बात यह सत्य है, और वह मेरा शिष्य है । भाई भगवान् तो सबके हैं और भगवत् शरणागति का अधिकार सदा से सबको है । भगवान् अपनी कृपा से किसी को भी वंचित नहीं करते । भगवत् सम्बन्धी वस्तुओं पर सबका समान अधिकार है । बालक कबीर ऐसे सत्पात्र को जो जन्म जात परम भागवत हैं, उन्हें मोक्ष मार्गीय दीक्षा से वंचित करना क्या उचित कार्य है? स्वामी जी के सुमधुर कोमल वाणी का प्रभाव ऐसा पड़ा कि वे विद्वान बोल पड़े, “स्वामिन् ! मोहित बुद्धि के कारण हम लोगों के मन में विकार अवश्य उत्पन्न हो गया था, जिससे प्रेरित और उत्तेजित होकर हम यहाँ आये । परन्तु आपके राम-नाम की रमुक्रीड़ा ने हमारी व्यवसायिनी बुद्धि को ठिकाने लगा दिया । आप महानुभावों से हम लोग क्षमा माँगते हैं । यह था स्वामी जी का व्यक्तित्व और कर्तृत्व । इतना ही नहीं, स्वामी जी के द्वादश शिष्यों में सवर्ण और निम्न कोटि के अनेक शिष्य हुए, जिनमें कबीर, रैदास, धना, सेन आदि का नाम उल्लेखनीय है ।

एक दिन यतीन्द्र ने महाभाग रैदास एवं भक्ति-पथ में चतुर कबीरदास जी से कहा, “मैं देखता हूँ कि इस युग में पहले कि अनाधिकारी ही वास्तव में अधिकारी हैं । क्योंकि अभिमान रहित हैं, जो भगवान् से विमुख करता है । इस कर्मभूमि में शान्ति पूर्वक भजन करने के लिए सन्तों ने निम्न श्रेणी के मनुष्यों के यहाँ जन्म लेना उचित समझा है, अतः उनको गुरु-मुख की अत्यन्त आवश्यकता है । क्योंकि कुलीनों के गुरु उन्हें उपदेश देने में संकोच करते हैं । ऐसी स्थिति में उनकी आध्यात्मिक पिपासा शान्त करने का कोई साधन न होने पर “स्व धर्मे निधनं श्रेयः” की वृत्ति उनमें कैसे और कब तक टिकी रह सकती है? मेरे प्यारे शिष्यों । लोकसंग्रह

का पुण्य कार्य आप भक्तिमान पुरुषों को करना ही चाहिए, अस्तु इस लौकसंग्रह कार्य में प्रवृत्त हो जाइये । प्रवृत्ति-लक्षण युक्त ही भागवत धर्म है, परन्तु वह प्रवृत्ति केवल भगवान् की ही ओर होनी चाहिए । और यह ‘लोक-संग्रह’ भगवान् का ही कार्य है । समाज की ऐसी भयावह स्थिति में उन प्राणियों के लिए ऐसा सुगम मार्ग होना चाहिए जो उन्हें दिव्य धाम तक पहुँचा दे । उन्हें सच्चा आधार मिलना चाहिए जिससे उनका कल्याण हो, हृदय की आँखें खुलें और वे परमार्थ पथ को स्वयं देख सकें ।

आचार्यश्री की शिक्षा को सन्त कबीर जी, महाभागवत रैदास जी एवं सेनभक्त, धनाजाट ने शिर माथे चढ़ाया और लोकसंग्रह-कार्य में प्रवृत्त होकर त्रयी चर्म से तिरस्कृत, सब प्रकार से उपेक्षित, दीन, हीन, खिन्न, दिशाविहीन अनेक प्राणियों को आधार प्रदान कर धर्मभ्रष्ट होने से बचाकर देश और समाज तथा राष्ट्र का महान् हित किया ।

एक समय षडक्षर मन्त्रराज का रहस्य प्रकट करते हुए आचार्य श्री ने कहा, “मंत्र में मंत्रमूर्ति” को प्रत्यक्ष करने की ही शक्ति नहीं होती प्रत्युत उसमें सभी प्रकार की इच्छाओं को पूर्ण करने की भी शक्ति निहित है । मंत्र स्वतः शक्ति स्वरूप है उसके सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं है ।

इसी सन्दर्भ में आचार्यश्री के समसामयिक काशी में एक सूफी सन्त मौलाना श्री रसीसुद्दीन हुए थे जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘तस्कीर तुक फुकरा’ में आचार्यश्री के महान व्यक्तित्व का बड़ी श्रद्धा भक्ति के साथ उल्लेख किया है । इस फारसी ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद तत्कालीन अयोध्या के एक उद्भट विद्वान श्री ब्रह्मचारी बिन्दु जी ने करके गीता प्रेस, गोरखपुर से निकलने वाले ‘सन्तांक’ में प्रकाशित कराया था । जिसका अक्षरशः उल्लेख निम्नांकित है । यथाः-

इसी पुरी (काशी) में पंचगंगा घाट पर एक प्रसिद्ध महात्मा रहते हैं । तेज-पुंज और पूर्ण योगेश्वर हैं । वैष्णवों के सर्वमान्य आचार्य हैं । सदाचार और ब्रह्मनिष्ठत्व के स्वरूप ही हैं । परमात्मतत्त्व रहस्य के पूर्ण ज्ञाता हैं, सच्चे भागवत प्रेमियों एवं ब्रह्मविदों के समाज में उत्कृष्ट प्रभाव ही नहीं रखते हैं; अपितु, धर्माधिकार में वे हिन्दुओं के धर्म-कर्म के सम्राट् हैं । केवल ब्रह्मवेला में अपनी पुनीत गुफा से गंगा-स्नान के लिए बाहर निकलते हैं । उन पवित्र आत्मा को स्वामी ‘रामानन्द’ कहते हैं । उनके शिष्यों की संख्या पाँच सौ से अधिक है । इस शिष्य समूह में द्वादश गुरु के विशेष कृपा-पात्र हैं, कबीर, पीपा और रैदास आदि । इन भागवतों के समुदाय का नाम ‘विरागी’ है । जो लोक-परलोक की इच्छाओं का त्याग करता है उसे ब्राह्मणों की भाषा में ‘विरागी’ कहते हैं । कहते हैं कि इस संप्रदाय की प्रवर्त्तिका (ऋषि) जगज्जननी (श्री) सीता जी हैं । उन्होंने प्रथमतः अपने सविशेष सेवक पार्षदरूप (श्री) हनुमान जी को उपदेश किया और उन ऋषि (आचार्य) के द्वारा संसार में उस मंत्र-रहस्य का प्रकाश हुआ । इस कारण इस सम्प्रदाय का नाम ‘श्री’ सम्प्रदाय है और उसके मुख्य मंत्र को “रामतारक” कहते हैं । उस पवित्रमंत्र को गुरु, शिष्य के कान में दीक्षा देते हैं और ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक ललाट तथा अन्य ग्यारह स्थलों पर लगाते हैं । तुलसी का ‘हीरा’ जनेऊ में गूँथ कर शिष्य के गले में पहनाते हैं । उनकी जिह्वा जप में और मन सच्चे प्रियतम के दर्शनानुसंधान में रहा करता है । पूर्णतया भजन में ही इस सम्प्रदाय की रति है । अधिकांश सन्त आत्माराम अथवा परमहंसी जीवन निर्वाह करते हैं । इसी सन्दर्भ में इतिहासकार डॉ. विल्सन के उद्‌गारः-

Essays and lectur chiefly on the Religion of the Hindus,

Vote I. By.

“The residence of Ramanand was at Benares at the Panchgangaghat where a Math or monestrory of His followers is said to have existed bid to have been destroyed by some of the Musalman Princes. At present there is a merely stone plateform in the vicinity bearing the supposed impression of his feet. But there are many Maths of his followers of celebrity at Benares whose panchayat or Council is the Chief Authority amongst the Ramavats in upper India.”

By H.H. Wilson. M.A.F.R.A.S.

सारांशतः – “श्री स्वामी रामानन्द के रहने का स्थान काशी के पंचगंगा घाट पर था । वहाँ उनके अनुयायियों का एक विशाल ‘श्रीमठ’ था, जिसे मुसलमान बादशाहों ने तोड़वा डाला । वर्तमान समय में उसी मठ के समीप एक पत्थर के चबूतरे पर उनकी चरण पादुका बनी हुई है । काशी में रामानन्द सम्प्रदाय के और भी बहुत से मठ बने हुए हैं, जिनमें उनके प्रख्यात अनुयायी रहते हैं और उनकी एक प्रधान पंचायत बनी है जिसका प्रमुख भारत के रामानन्दियों पर प्रधान रूप से है ।”
आचार्यश्री ने बहुत काल तक देश-समाज और राष्ट्र का हित चिन्तन करते हुए अपनी लीला संवरण करने के पूर्व एक दिन गंगामहोत्सव पर्व पर विभिन्न सम्प्रदाय के साधुओं का समागम श्रीमठ पंचगंगा घाट पर किया । बहुत बड़ी संख्या में सब लोग भेद-भाव त्यागकर एक पंक्ति में बैठकर, सानन्द भगवत् प्रसाद सेवन

किये । जब सब लोग निश्चिंत होकर स्वामी जी के समक्ष बैठे तो सबको कृतार्थ करने हेतु बड़े प्यार से अमृतमयी वाणी में बोले, “आज भगवान् ने सहस्र मुख से भोजन किया है और खूब अघाकर भोजन किया है । आज प्रभु ने अपूर्व आनन्द प्रदान किया है जिसे धूल जाना कठिन है । भगवत् प्रसादमयी वृत्ति आपकी जाति-पाँति की जड़ अहंकार को समूल नष्ट करने वाली है । ऐसा कौन मूर्ख होगा जो अहंकार रूपी सर्प को पालेगा और अपने आध्यात्मिक जीवन से हाथ धो बैठेगा । भगवद्भक्त कदापि ऐसा नहीं कर सकता । आध्यात्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक बंधन के बीच की स्थिति भयावह, शोचनीय और अत्यन्त दुःखदायी हुआ करती है । अपना शिर अपने हाथ से काट कर हथेली पर रखकर चलने वाले ही उस दयामय के चौखट तक पहुँचते हैं । स्वामी जी के उपदेशामृत पीकर मस्त हुए लोगों ने कहा, “नाथ! आज इस जीवन में महाप्रसाद की महिमा से परिचय हुआ । आपकी जय हो । एक भक्त ने उठकर पूछा जो सुख अभी सबको भोज में प्राप्त हुआ है वह क्या दूसरे भण्डारे में भी हो सकता है? आनन्द के मूल में हेतु क्या है? स्वामी जी ने कहा, “जिस भोज के मूल में श्रद्धा है, मध्य में सखाभाव अर्थात् समानता का व्यवहार है और अन्त में सत्कार है, उसमें अवश्य आनन्द मिलेगा । अहंकार का अभाव ही आनन्द का मूल हेतु है, उसके अभाव में वहाँ परमेश्वर की प्रतिष्ठा होती है जो पंक्ति में बैठकर जीमने वालों की जिह्वा पर विराजमान भोज्य पदार्थ का स्वाद ग्रहण करता है और तृप्त होता है उसकी तृप्ति ही आनन्द का हेतु है ।

जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए स्वामी जी अन्तिम वाक्य बोले, “लोक कल्याण के लिए जितने मार्ग खोले गये हैं । सबको जारी रखना और आवश्यकतानुसार नये-नये हितकर मार्ग प्रचारित करना हमारे प्यारे शिष्य समुदाय का कर्त्तव्य है । सब शास्त्रों का सार भगवत्-स्मरण है जो सन्तों का जीवन आधार है । शिखा, सूत्र के आधार पादज और अन्त्यज हैं । भाई! पैरों को काटकर समाज को पंगु मत बनाना । कल श्रीराम नवमी है । श्री अयोध्या अकेले ही जाऊँगा । कोई साथ नहीं जाएगा । सब यहीं रहेंगे और उत्सव मनावेंगे । कदाचित् मैं न लौट सकूँ । क्योंकि उस चिद्धाम में जो जाता है वह लौटता नहीं । यह सुनते ही सबके नेत्र सजल हो गये, दिल धड़कने लगा । सबके देखते-देखते ही शंखध्वनि के मध्य स्वामी जी अदृश्य हो गये ।” स्वामी जी के अन्तर्धान होने के पश्चात् “श्रीमठ” के सम्प्रदायाचार्य के पद पर स्वामी जी के समस्त अनुयायियों ने मिलकर प्रधान शिष्य स्वामी अनन्तानन्द जी को प्रतिष्ठित किया । स्वामी जी के लीलाकाल में भी अनन्तानन्द जी महाराज ही श्रीमठ के सभी व्यावहारिक कामों की जिम्मेदारी सँभालते थे । आध्यात्मिक समृद्धि भी इनके शिष्यों में सर्वश्रेष्ठ थी । साधना के बल से अपने गुरुदेव के समस्त भावों को जानकर आप श्रीमठ का अनुपम संचालन करते थे । परन्तु गुरुवियोग से कातर आपका मन एक वर्ष में ही श्रीमठ की सेवा से भागने लगा । आचार्य प्रवर के साकेतवास के एक वर्ष बाद वर्षीय महोत्सव का दिव्य समायोजन हुआ । सभी सन्त तथा भक्त श्रीमठ में समुपस्थित हुये । धूमधाम के साथ महोत्सव की समाप्ति हुयी । जगद्‌गुरु रामानन्दचार्य स्वामी अनन्तानन्दाचार्य की गुरुवियोग से जन्य खिन्नता एवं उपरामता से सभी लोग धीरे-धीरे परिचित हो गये । उस खित्रता के मार्जन के लिये कई प्रयास किये गये परन्तु सफलता नहीं मिली । अनन्तोगत्वा सर्वसम्मति से आचार्यपीठ पर आपके ही वरिष्ठ शिष्य परमसिद्ध श्रीकृष्णदासपयोहारी जी महाराज को अभिषिक्त कर दिया गया । स्वामी अनन्तानन्दाचार्य जी महाराज उन्मुक्त भाव से श्रीराघव का चिन्तन करते हुये देशाटन में निकल पड़े । पीठ की आध्यात्मिक समृद्धि पयोहारी जी के निपुणतम संचालन में अनुपम रीति से बढ़ने लगी ।

रामभक्ति धारा के प्रसार के लिये जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य पयोहारी जी महाराज अपने शिष्यों की मण्डली के साथ प्रत्येक दिशा में जाया करते थे । इसी क्रम में उन्होंने राजस्थान की यात्रा की । उस समय में वहाँ नाथ पंथ का बहुत ही जोर था । श्री पयोहारी जी के तेज से हतप्रभ होकर तत्कालीन जयपुर नरेश के गुरु नाथ सन्त ने इनको तंग करने का असफल प्रयास प्रारम्भ किया । श्री पयोहारी जी ने अपनी आध्यात्मिक ज्योति से उसे घर्षित किया तथा वहाँ रामभक्ति के मुख्य केन्द्र की स्थापना की । अपने शिष्यों के साथ नाथसन्त श्रीपयोहारी जी का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया । उसका विशेष आश्रम अब श्रीमठ की शाखा के रूप में परिणत हो गया । जो अभी भी ‘गलता पीठ’ के रूप में विश्वविख्यात है । यहाँ पर महर्षि गालव ने तय किया था कि जिनके प्रभाव से परम शुष्क पर्वत से भी गंगा का प्राकाट्य हुआ था । जिसमें आज भी लाखों लोग स्नान कर अपने जीवन को धन्य बनाते हैं । पंच संस्कारों से संस्कृत जयपुर नरेश नाथगुरु को कील्हदास के रूप में वही परमकलयाणमयी रामभक्ति के प्रचार-प्रसार के लिए प्रतिष्ठित कर दिया तथा स्वयं श्रीमठ में लौट आये । कभी-कभी वहाँ भी यहीं से जाया करते थे । पयोहारी जी के ही शिष्य अग्रदेवाचार्य जी महाराज ने गुरुआज्ञा से रैवासा में पीठ स्थापित किया । वह वैष्णव समाज का गौरव-वर्धक है । वैष्णव समाज के ५२ द्वारों में से १० द्वारों का वह मूल स्थान है । वहीं पर उनके शिष्य श्री नाभादास जी के द्वारा अपूर्वग्रन्थ ‘भक्तमाल’ की रचना हुयी थी । जिसके माध्यम से लाखों को आध्यात्मिक ज्योति प्राप्त हुयी है ।

जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य कृष्णदास पयोहारी जी महाराज के साकेतवास के बाद इस पीठ की परम्परा अबाधित रीति से मुगल बादशाह औरंगजेब के काल तक चलती रही तथा संसार के कोने-कोने में इसका प्रभाव छा गया । इस बीच में पीठ को आचार्य के रूप में निम्नांकित विभूतियों ने अलंकृत किया तथा रामभक्ति धारा के प्रसार में अपने-अपने जीवन को पूर्णतः समर्पित किया ।

वे विभूतियाँ ये हैं- जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य, श्री टीलाराम दास जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य, श्री अंगदपरमानन्द जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य, श्री गोदावरी दास जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य श्री भगीरथ दास जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य क्षेमदास जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य श्री रामदास जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य श्री छबीलेदास जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य श्री जानकीदास जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य श्री सहजाराम जी महाराज, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य श्री मंगलदास जी महाराज ।

विस्तार के भय से इन आचार्य देवों की विस्तृत चर्चा नहीं की जा रही है । श्रीमठ के प्रभाव से मर्माहत होकर परम संकीर्ण, बर्बर, सनातन धर्म के महान् विध्वंसक औरंगजेब ने विश्वनाथ मन्दिर के साथ ही “श्रीमठ” एवं “विन्दुमाधव” मन्दिर को भी नष्ट कर दिया । सम्पूर्ण समाज में इस क्षति से शोक के बादल छा गये । सभी सन्त महापुरुष भी दुराचारियों के राक्षसी व्यवहार से तंग आकर सुशान्त स्थानों में चले गये । इस परम कुकृत्य के फलस्वरूप मुगलवंश का पतन हुआ तथा पुनः सभी धर्मानुरागियों ने अपने-अपने इष्टदेव तथा आचार्य देवों की तपः स्थली को व्यवस्थित रूप दिया । श्रीमठ का भी आंशिक जीर्णोद्धार हुआ । दुराचारियों की दृष्टि से सौभाग्यवश बची हुई “आचार्य चरणपादुका” की सेवा-पूजा प्रारम्भ हुई । रामभक्ति धारा का ढका हुआ स्त्रोत पुनः खुला तथा लोगों में शान्ति एवं प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी । वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण जिस अहिल्याबाई ने करवाया था उन्हीं के द्वारा निर्मित “हजारा” आज भी श्रीमठ की गौरवगाथा कहते हुए उसकी ऐतिहासिकता को भी प्रमाणित करता है ।

श्रीमठ का यह क्रम यद्यपि मन्दगति से संचालित हो रहा था फिर भी सम्पूर्ण रामानन्दसम्प्रदाय की मूल प्रेरणा का स्रोत परमश्रद्धास्पद था । इतिहासकारों की दृष्टि में यहीं से सम्पूर्ण सम्प्रदाय का नियंत्रण होता था । धीरे-धीरे इस क्रम में और भी शिथिलता आयी । पीठ के तत्कालीन संचालक श्री सरयूदास जी इस परम पुनीत रामानन्द सम्प्रदाय गौरवपूर्ण धन को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति मानने लगे । दिनों-दिन इसकी छवि गिरती गयी । विकास की धारा सर्वथा रुक गयी । सम्प्रदाय के कर्णधारों के मन में अपने परमपुनीत पीठ के उद्धार का संकल्प पुनः पुनः जागृत होने लगा । जिसमें सर्वप्रमुख रूप से श्री सम्प्रदाय के कर्मवीर, सजग प्रहरी, वेदोपनिषद् भाष्यकार श्री भगवदाचार्य जी थे ।

सन् १९४८ ई. में आपने श्रीमठ के उद्धारार्थ श्रावण मास में श्रीमद्भागवत महापुराण का अनुष्ठान आचार्य चरणों में प्रारम्भ किया । जिसके श्रोता तात्कालिक सम्प्रदायनिष्ठ योगिराज, परमार्थरत्न श्री रणछोर दास जी महाराज हुए । कथा समापन पर श्री परमहंस जी ने आचार्य को दक्षिणा स्वरूप कुछ देना चाहा । स्वामी भगवदाचार्य जी ने उनसे कहा, “मेरी दक्षिणा यदि आप देना ही चाहते हैं तो श्रीमठ का पूर्णरूपेण जीर्णोद्धार कराने का वचन दें । आचार्यनिष्ठ श्री रणछोर दास जी महाराज ने सहर्ष स्वामी जी का प्रस्ताव स्वीकार किया और दैवयोग से सन् १९७७ में ही कुम्भमहापर्व पर सम्प्रदायनिष्ठ द्वाराचार्यों एवं अखाड़ों के लब्ध-प्रतिष्ठ सन्तों ने जिसमें दिगम्बर अखाड़े के नासिक बैठक के म. हरिदास आदि का नाम उल्लेखनीय है, विचार-विमर्श पूर्वक सैकड़ों वर्ष से टूटी हुई आचार्य श्रृंखला को पुनः जोड़ने का भगीरथ प्रयास किया और वे पंडित राज श्री स्वामी भगवदाचार्य जी महाराज को विधिवत् सर्वसम्मति से त्रिवेणी तट पर श्री सम्प्रदायाचार्य के पद पर अभिषिक्त किया । वयोवृद्ध आचार्य के अन्तःकरण में बार-बार श्रीमठ के जीर्णोद्धार की प्रेरणा होती रही ।

सन् १९७७ ई. में अहमदाबाद स्थित श्रीजगन्नाथ मन्दिर के प्रांगण में सम्प्रदाय के कर्णधार महामण्डलेश्वरों के मध्य अखिल भारतीय श्रीरामानन्द पीठ समिति के मंत्री पद पर आचार्य श्री के आदेशानुसार मेरा चयन हुआ । जब मैं चलने लगा तो स्वामी जी मुझे पास बुलाकर बड़े स्नेह भरे स्वर में बोले, ‘भैया तुम यहाँ से सीधे काशी जाओ और वहाँ श्री परमहंस रामहृदयदास जी से मिलकर श्रीमठ पर समिति का अधिकार कर लो, हमें उस श्रीमठ का जीर्णोद्धार कराना है । वहाँ किसी अन्य का अधिकार न होने पावे क्योंकि वह इस विशाल सम्प्रदाय का उद्गम स्थल है । स्वामी जी के निर्देशानुसार मैं काशी गया और आचार्यश्री की कृपा से उस दिशा में कार्यरत हुआ । अनेक कठिनाइयों के बावजूद श्रीमठ का भू-भाग सम्प्रदाय के पक्ष में विधिवत् हो सका । तत्पश्चात् श्री रणछोर दास जी महाराज की प्रेरणा से उनके कृपापात्र शिष्य धर्मप्राण सेठ श्री ‘अरविन्द भाई मफतलाल’ ने श्रीमठ का पूर्णरूपेण जीर्णोद्धार कराकर सम्प्रदाय एवं सद्‌गुरु का आशीर्वाद प्राप्त किया ।

सर्वशास्त्र निष्णात वयोवृद्ध आचार्यचरण स्वामी भगवदाचार्य जी महाराज के जिस सत्संकल्प ने लुप्त प्राय श्रीमठ, के. २२/९९ पंचगंगा का पुनः उत्कर्ष बढ़ाकर जिस प्रकार से सम्प्रदाय का गौरव बढ़ाया है, हम समस्त श्री सम्प्रदाय के अनुयायी वर्तमान समय के विद्वान् संप्रदायाचार्य श्री रामनरेशाचार्य जी महाराज से यह आशा करते हैं कि भविष्य में आपश्री द्वारा सम्प्रदाय में अधिक चेतना का उदय होगा और वर्तमान समय में सम्प्रदाय अपने अतीत के गौरव की ओर अग्रसर होकर राष्ट्र निर्माण में उपयोगी सिद्ध होगा ।

इस पावन स्थली के संरक्षण-संवर्धन में कतिपय महानुभावों का मैं हृदय से स्मरण करता हूँ जैसे- श्री महन्त रामलखन दास जी हरतीर्थविश्वेश्वरगंज वाराणसी, उनके उत्तराधिकारी महान्त सरयूदास जी, परमहंस श्री रामहृदय दास जी महाराज बद्रिकाश्रम कर्णघण्टा वाराणसी, महान्त श्री रामसुभगदास जी शास्त्री राम महल कटरा अयोध्या, श्री स्वामी वासुदेवाचार्य वेदान्ताचार्य वाराणसी, श्री रामभक्त बलरामदास जी महाराज लोदरा तथा अग्रदेव पीठाचार्य श्री शालिग्रामाचार्य जी आदि महानुभावों का मैं हृदय से आभार मानता हूँ जिन्होंने श्री सम्प्रदायाचार्य की इस पावन स्थली में अपना हर प्रकार का योगदान दिया है ।

३४/श्रीमठ प्रकाश

जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।जाति पाँति पूछै ना कोई । हरि को भजै सो हरि का होई ।।