शक्ति का दुरुपयोग न हो

सनातन धर्म में शक्ति पूजन की समृद्ध परंपरा है। अपने-अपने कल्याण के अनुरूप विविध प्रकार के उत्सवों, अनुष्ठानों की परंपरा है। यहां इस परंपरा को अनादि रूप से स्वीकार किया जाता है। यह शास्त्रों द्वारा प्रवर्तित है। मेरा मानना है कि पूरे संसार में शक्ति का सम्मान है, इसे ही हम ऊर्जा कहते हैं, अंग्रेजी में एनर्जी कहते हैं। सम्पूर्ण समाज में उत्पादन का जो संकल्प और प्रयास है, वह शक्ति उत्पादन का ही प्रयास है। किसी भी तरह की शक्ति हो, शरीर की शक्ति हो, मशीन की शक्ति हो, संसाधन की शक्ति हो, धन की शक्ति हो, विविध प्रकार की शक्तियां हैं, शक्तियों के बिना साधना भी नहीं होती। किसी भोगी को भी शक्ति चाहिए और साधक को भी शक्ति चाहिए।
जैसे शरीर में खुजली होती है, तो हम वहां हाथ ले जाते हैं, उस जगह हम खुजलाते हैं, खुजलाने से वहां भी शक्ति उत्पन्न होती है और खुजलाहट दूर हो जाती है। सुनने और बोलने के लिए भी शक्ति होती है, हम हमेशा नहीं सुन सकते, हम हमेशा नहीं बोलते रह सकते। खाने के लिए भी शक्ति होनी चाहिए और पचाने के लिए भी शक्ति होनी चाहिए। सम्पूर्ण संसार शक्ति को जानता है, शक्ति के लिए ही प्रयास करता है, जीवन जीता है। जो लोग धार्मिक नहीं हैं, वे भी शक्ति का सम्मान करते हैं। जो शक्ति की पूजा नहीं करते, उन्हें भी शक्ति चाहिए।
शक्ति की ही पूजा देवी दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली व अन्य शक्ति रूपों में होती है। वास्तव में शक्ति एक ही है, उसके नाम अलग-अलग हैं। जो अग्नि पेट में खाए हुए पदार्थ को पचा रही है, वह भी शक्ति है, समुद्र में जो ताप है, वह भी शक्ति है। वायु में शक्ति है। जैसे एक ही नाक से शरीर के अंदर गए हुए वायु के भिन्न-भिन्न नाम हो जाते हैं जैसे – प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान। वैसे ही शक्ति के भी भिन्न-भिन्न नाम हैं।
शक्ति और शक्तिमान, दोनों की पूजा अपने देश में लंबे समय से हो रही है।
हम लोग अक्सर महाकवि महर्षि वाल्मीकि जी की बात करते रहते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने कहा, मैं राम जी को भी बहुत महत्व देता हूं, किन्तु मैं जानकी जी का चरित्र ही लिखूंगा, क्योंकि वही शक्ति हैं, उनके बिना राम जी कुछ नहीं हैं।
संसार में जब सबसे पहले गं्रथ लिखा गया लौकिक भाषा में, वैदिक संस्कृत में, दुनिया में दूसरी भाषाओं का जन्म भी नहीं हुआ था, वैदिक ज्ञान गंगा जब लोक में अवतरित हुई, बहुत ग्रंथ नाटक, काव्य के  रूप में लिखे गए, अभी भी लिखे जा रहे हैं, किन्तु भाषा में सबसे पहले ग्रंथ के रूप में वाल्मीकि रामायण की रचना हुई, महर्षि वाल्मीकि ने स्पष्ट कहा, मैं सीता जी का स्वरूप लिखंूगा, वह शक्तिस्वरूपा हैं। राम राज्य में कोई छोटा-सा अंश भी उनके बिना अधूरा है।
तो अनादि काल से शक्ति पूजा चल रही है, शक्ति के बिना किसी का काम नहीं चलता। लोक-परलोक, दोनों जगह शक्ति चाहिए। ज्ञान के लिए भी शक्ति चाहिए, विज्ञान के लिए भी शक्ति चाहिए। इंजीनियरिंग की विद्या के लिए भी शक्ति चाहिए, ब्रह्म विद्या के लिए भी शक्ति चाहिए।
शक्ति के रूप में लक्ष्मी हैं, धन देंगी, पुस्तक बनाइए, बम बनाइए, कृषि के लिए औजार बनाइए, अस्त्र-शस्त्र बनाइए, अंतरिक्ष में जाइए, मन हो, तो यज्ञ करिए, दान करिए परिवार पालिए, यह सब शक्ति से ही तो संभव होता है। शक्ति से धन उत्पन्न होता है और धन की शक्ति से नानाविध कार्य संपन्न होते हैं।
जीवन के लिए आवश्यक हिंसा के लिए या दंड देने के लिए भी शक्ति चाहिए। एक व्यक्ति अपनी संतान को दुलारता है, गलती करने पर डराता है और जब कभी संतान पूरी तरह से बिगड़ जाती है, तो उसे समाप्त भी कर देता है। हिंसक प्रवृत्ति के बिना या हिंसा के बिना भी दुनिया नहीं चल सकती। मान लीजिए, किसी के शरीर में बड़ा फोड़ा हो जाए, तो क्या किया जाएगा, उसे जीवन रक्षा के लिए फोडऩा ही पड़ेगा, कोई अंग खराब हो जाए, तो उसे काटना ही पड़ता है। जब कोई समाज, देश, संविधान की मर्यादा में चलता है, तो उसे लाड़-प्यार मिलता है, किन्तु यदि कोई मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है, तो उसे सुधारने या दंड देने के लिए शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। शक्ति से नानाविध कार्य होते हैं, जैसे बिजली से पंखा भी चलता है और रोशनी भी मिलती है और अन्य कई तरह के काम भी होते हैं।
तो हमारे यहां पूजन की परंपरा, शक्ति के सम्मान की परंपरा प्रारंभ से थी। शक्ति के बिना भोग नहीं होगा, मनुष्य का जीवन व्यर्थ हो जाएगा। जो प्रजनन क्षमता है, वहां भी शक्ति चाहिए। शक्ति से ही परम विकास संभव है। किन्तु यहां ध्यान रखने की बात यह है कि सम्पूर्ण शक्ति यदि भोग में ही लग जाए, तो खेती कैसे होगी, जीवनयापन कैसे होगा। जीविका कैसे अर्जित होगी?
संसार में कोई भी व्यक्ति बहुत दिनों तक अपनी सम्पूर्ण शक्ति को भोग में नहीं लगा सकता। यदि ऐसा किया जाए, तो जीवन व्यर्थ और समाप्त हो जाएगा। शक्ति को स्वनिर्माण में लगाना चाहिए। परिवार, देश, समाज के निर्माण में लगाना चाहिएपहले के समय में शक्ति की सच्ची अराधना होती थी, उसका लाभ मिलता था। जो जीवन को सही स्वरूप देने वाला शक्ति का उपयोग है, वह होता था। श्रीमद्भागवत में लिखा है, कमाई का एक भाग अपने में लगाना चाहिए, एक भाग परिजनों में अर्थात भाई-बहनों-सम्बंधियों में, एक भाग राष्ट्र में, एक भाग धर्म में और एक भाग व्यवसाय में लगाना चाहिए।
एक भाग परिजनों को भी देना पड़ता है, जैसे संपत्ति बंटी, तो मुकेश अंबानी की बहनों को भी हिस्सा मिला, कहते हैं कि दस-दस फीसद धन उन्हें मिला, उनकी माता कोकिला बेन को भी मिला। अब तो कानून बन गया है कि बहनों को भी बराबर का हिस्सा मिलेगा। बहनों की शक्ति बढ़ गई। राष्ट्र को भी कमाई का एक भाग देना चाहिए, जब सीमा पर लड़ाई छिड़ेगी, तो क्या आप लडऩे जाएंगे? तो राष्ट्र को भी आपकी कमाई का हिस्सा मिलना चाहिए, ताकि विकास हो, मूलभूत सुविधाएं बढ़ें। एक भाग धर्म में भी लगना चाहिए। व्यापार में भी एक भाग लगे, तभी तो व्यापार बढ़ेगा, धन आएगा।
शक्ति के छोटे-छोटे अनेक क्रम हैं, लेकिन जो सर्वोच्च शक्ति है, उसके रूप में देवी पूजन इत्यादि होता है। शक्ति या कमाई का सदुपयोग होना ही चाहिए। शक्ति जो अर्जित होती है अराधना से, उसका छोटा-छोटा सदुपयोग भी होता था और बड़ा-बड़ा सदुपयोग भी।
हमारे राष्ट्र में शक्ति पूजन का इतना लंबा क्रम चल रहा था, इसलिए चल रहा था कि शक्ति के अर्जन और उपयोग की प्रक्रिया नियंत्रित व संतुलित थी, हमारे पूर्वज शक्ति का बहुत विवेक के साथ उपयोग करते थे, अब सब गड़बड़ा रहा है। समाज में पहले भी ऐसी घटनाएं होती थीं शक्ति के अपमान की, बलात्कार या हत्या की, लेकिन बहुत कम होती थीं, किन्तु अब बहुत बढ़ गई हैं, क्योंकि शक्ति के प्रति सम्मान और सदुपयोग का भाव कम हो गया है। प्राचीन काल में भी बहुत अत्याचार हुए हैं, जब जानकी जी का ही अपहरण हो सकता है, तो क्या कहा जाए? राजाओं की बहुत-सी पत्नियां थीं। राम जी के पिता राजा दशरथ जी की भी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के अतिरिक्त साढ़े तीन सौ पत्नियां थीं। राम जी जब वनवास को जाने लगे, तब सारी माताएं अपने यथास्थान खड़ी थीं। हर किसी का अपना स्थान होता है, कौन कहां खड़ा होगा, कहां बैठेगा, इसकी भी अपनी एक परंपरा रही है। राजघरानों में भी यह व्यवस्था होती है। हालांकि अब तो चपरासी भी आगे बढक़र साहब के साथ खड़ा हो जाता है, छोटा भाई अपने बड़े भाई को पीछे करके आगे खड़ा हो जाता है। लोग अपने पिता से आगे खड़े हो जाते हैं। संत-महात्माओं के दरबार में भी गड़बड़ हुई है, पुराने संत चेले सेवा करके घिस जाते हैं, गुरुजी के सामने बैठने का अवसर नहीं मिलता, किन्तु कोई धनवान नया चेला भी आ जाए, तो गुरुजी उसे एकदम पास बिठाते हैं।
तो अध्यात्म रामायण में लिखा है, राम जी जब चलने लगे, तो अपनी उन सभी ३५० माताओं से कहा, ‘आप सभी को प्रणाम करता हूं, यदि मुझसे कोई भी अपराध हो गया हो, तो क्षमा करें, जैसे मां कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा माताएं हैं, वैसे ही आप भी माता हैं, मैंने आपसे कोई भेद नहीं किया, आप मेरे पिता को सुख देने वाली हैं, मैं आपका सम्मान करता हूं।
पौराणिक काल में भी गलत काम हुए थे। गाड़ी चलाने में पहले भी दुर्घटनाएं होती थीं, आज भी हो रही हैं, जब कोई ध्यान से गाड़ी नहीं चलाएगा, जब इधर-उधर देखकर चलाएगा, मोबाइल में बात करते हुए चलाएगा, तो दुर्घटना तो होगी ही। अच्छे-अच्छे वाहन आ गए हैं, किन्तु जब उन्हें ठीक से चलाया नहीं जाता है, तो दुर्घटनाएं होती हैं। पहले शक्ति, औजारों, रथों का जो सम्मान था, पूजन का जो सही प्रतीक था, वह आज कहां है? जो धन मिला, बल मिला, प्रचण्डता मिली, जो विद्या मिली, उसका उपयोग कहां हो रहा है, कैसे हो रहा है? व्यवस्थाएं निरंतर क्यों बिगड़ रही हैं? कामाख्या हों, विंध्याचल हों, वैष्णो देवी हों, हर देवी-शक्ति के स्थान पर भीड़ बढ़ रही है, सजावट बढ़ी रही है। पहले दुर्गा पूजा केवल बंगाल में होती थी, अब लगभग हर स्थान पर होने लगी है। दुर्गा पूजा की भव्यता बढ़ी है, किन्तु पूजा की आध्यात्मिक प्रेरणा, दबाव, सुगन्ध, ऊर्जा से लोग लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। जो आयोजक हैं, वे उस वातावरण को पैदा नहीं कर रहे हैं, जो देवी पूजन का वातावरण होना चाहिए। वैसे बड़े-बड़े पंडाल बन रहे हैं, प्रसाद वितरण चल रहा है, लेकिन पूजा और आध्यात्मिक वातावरण गौण होता जा रहा है। आध्यात्मिक वातावरण पहले मुख्य था। वातानुकूलन की मशीन बहुत बड़ी हो और वह ठीक से काम नहीं करेगी, तो कमरे में बैठे लोगों को शीतलता कहां से मिलेगी? जो बड़ी ऊर्जा पहले प्रेरित करती थी, आकृष्ट करती थी कि शक्ति की मूल स्रोत मां से जो शक्ति मिलेगी, उसका सही सामाजिक, राष्ट्रीय, आध्यात्मिक उपयोग होगा, वह आज कम हुई है। पहले प्रेरणा मिलती थी, ये जो मां हैं, शक्ति का मूल स्रोत हैं, उसका हम सही-सही स्थानों पर प्रयोग करेंगे, जहां शक्ति की आवश्यकता है, वहीं उसका उपयोग करेंगे। किन्तु अब भव्य पूजा आयोजन, गरबा, डांडिया इत्यादि में काफी विकृतियां आ गई हैं, कार्यक्रम का स्वरूप तो बढ़ा, किन्तु विकृतियों ने अध्यात्म का गला घोंट दिया है। इस काल में लोग बेटियों को लेकर चिंतित हो जाते हैं कि क्या होगा। इस काल में धन और चरित्र, दोनों का खूब भ्रष्टाचार होता है। क्षणिक आनंद लेने के प्रयास में युवा परंपरा और शास्त्र से दूर हो जाते हैं। पूजन करने वालों में ही नहीं, अब पूजा करवाने वालों में भी कमी आई है। घर में भी पूजन सुधरना चाहिए। पूजन परंपरा से परे होने लगा है। अब पूजन के समय कोई ब्राह्मण नहीं कह रहा है कि आप धोती पहनें, आप ध्यान लगाइए, पूजन पर ध्यान दीजिए, पूजन के समय मोबाइल मत उठाइए, अब तो ब्राह्मणों का जोर भी केवल दक्षिणा पर है, उन्हें कोई मतलब नहीं कि यजमान या पूजा करवाने वाले नहाकर आए हैं या नहीं। शुद्धता समाप्त हो चुकी है। सच्ची पूजा में लोग शक्ति नहीं लगा रहे हैं।
पहले समाज की जो मर्यादाएं थीं, अंकुश थे, जाति-परिवार-समाज के जो अंकुश थे, वो भी ढीले हुए हैं, इससे भी महिला शोषण बढ़ा है। पूजन बिगड़ा, समाज पर धर्मगुरु, विद्वानों का, जाति का, समाजसेवकों का और राष्ट्र के प्रमुख लोगों का जो अंकुश था, वह कमजोर हो गया है। स्थितियां इतना बिगड़ी हैं कि अब तो कन्याओं को परिजनों और जान-पहचान वालों से ही खतरा होने लगा है। प्रशासन और पुलिस की बात छोड़ दीजिए, समाज और परिवार का अंकुश ही कमजोर पड़ गया है। किसी को यदि कोई छेड़ रहा है, तो वहां तीसरे व्यक्ति की भी बड़ी भूमिका होती है। पहले व्यक्ति-व्यक्ति पर दृष्टि रहती थी, किन्तु अब नहीं रहती। सब लोग दृष्टि रखें, तो कोई गड़बड़ नहीं हो।
लोग बच्चों को जरूरत से ज्यादा छूट दे रहे हैं, लडक़े को भी और लडक़ी को भी, साथी चुनने की भी छूट बढ़ी है, इस छूट का लाभ लेकर ज्यादातर युवा भटकने लगे हैं। हमारी एक संभ्रान्त शिष्या हैं, कह रही थीं कि समय इतना बिगड़ा है कि बहनों को अब भाइयों से ही खतरा होने लगा है, दूसरों की क्या बात करें?
सरकार की बात छोडि़ए, समाज भी अपनी भूमिका का सही निर्वहन नहीं कर रहा है, परिवार और पिता भी बच्चों पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे रहे हैं। कई अभिभावक कहते हैं कि अपना क्या है, बेटे या बेटी का जहां मन होगा, वहां शादी कर देंगे, वास्तव में ये अभिभावक अपने उत्तरदायित्व से बचना चाहते हैं, वे बच्चों के सम्बंध के लिए उतना समय नहीं दे रहे हैं, जितना उन्हें देना चाहिए। यह भाव भी आने लगा है कि बेटी खुद चुन लेगी, तो धन बचेगा। समाज के भरोसे और मनमानी पर ही यदि बेटी को छोड़ देना था, तो फिर क्यों जन्म दिया? अभिभावक मेहनत से बचने लगे हैं। पालन-पोषण को समय नहीं दे रहे हैं। अभिभावक अच्छी शिक्षा का परिवेश देने की बजाय बच्चों को देर रात तक पार्टी मनाने की छूट देने लगे हैं। यह शक्ति का अपव्यय है।अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा –
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।
अर्थात हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरंतर चिन्तन करता हुआ आपको जानूं और आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं?
इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने बहुत-सी बातें बताईं, उन्होंने यह भी कहा कि मैं हिमालय हूं, हिमालय का ध्यान करो, नदियों में गंगा हूं, समासों में द्वंद्व हूं, शब्दों में अक्षर हूं अर्थात ‘úÓ हूं, अक्षरों में अकार हूं, जो सबमें होता है। उसी तरह से भगवान ने कहा मैं काम हूं। काम माने भोग, जिसे ठीक से न समझने के कारण संसार में विकृतियां आ रही हैं। भोग की भावना सबमें है, जैसे सबमें बड़ा बनने या यश अर्जित करने की भावना है। वेदों में स्पष्ट लिखा है, हर व्यक्ति तीन ऐषणाओं के साथ आता है, पुत्र की ऐषणा, धन की ऐषणा और लोक की ऐषणा। संसार में हर किसी में ये तीन इच्छाएं होती हैं। हर कोई चाहता है कि उसके पास धन हो, समाज में यश मिले, वंश आगे चले, पुत्र हो। सिर्फ भोग ही काम की चरम परिणति नहीं है। केवल हम आनंदाभूति करें, यह चरम परिणति नहीं है। काम की चरम परिणति पुत्रोत्पत्ति है और पुत्र भी ऐसा उत्पन्न होना चाहिए, जो संस्कारी, सबल, धार्मिक, विद्वान हो, जो परिवार, समाज, राष्ट्र व मानवता को बल दे सके, समृद्ध कर सके, इतिहास रच सके। ऐसे अच्छे पुत्रों की ही उत्पत्ति हो, तभी सबका कल्याण होगा। तो भगवान ने कहा कि मैं धर्म से अवरुद्ध काम हूं। भगवान ने यह भी कहा कि प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: . . शास्त्र की रीति से सन्तान की उत्पत्ति हेतु काम हूं।
काम किसमें नहीं होता, काम किसमें नहीं था, जितने महात्मा महापुरुष संसार में जन्मे हैं, सबमें काम रहा है। भूख हर किसी को लगती है। संन्यासियों को भी खाने की इच्छा होती है, किन्तु कैसे, क्या, कहां खाना चाहिए, बनाने की प्रक्रिया कैसी है भोग लगा कि नहीं यह सब देखना चाहिए। खाते हैं, कपड़ा पहनते हैं, चलते हैं, घूमते हैं, इसी का तो नाम भोग है। देखना चाहिए कि आपके हिस्से का है या नहीं, खाने योग्य है या नहीं, उपयोग योग्य है या नहीं। धर्म के नियंत्रण में जो व्यक्ति चलते हैं, उनका भोग भी योग हो जाता है। सबके कल्याण का कारण बन जाता है।
भोग की भावना जवानों में होना स्वाभाविक है, किन्तु चिंता यह कि वे अनियंत्रित हो रहे हैं, जब ड्राइवर में ‘ट्रैफिक सेंसÓ नहीं है, गाड़ी चलाने में परिपक्व नहीं है, तो अनियंत्रित गाड़ी चलाता है, दुर्घटना कर देता है। समाज में कन्या या देवी का पूजन हो रहा है, किन्तु उस पूजन का आधार क्या है या उस पूजन का ध्येय क्या है, पूजन को हमें किस रूप में ग्रहण करना है, यह वैसे ही नहीं बतलाया जा रहा है, जैसे किसी को यह नहीं बताया जाए कि संपत्ति आने के बाद उसका व्यय कैसे किया जाए। व्यय करना नहीं आएगा, तो समस्या तो होगी ही। पांच करोड़ रुपए किसी को दे दीजिए, यदि वह बच्चा हो, तो संभव है, सारे रुपए की टॉफी खरीदने बाजार दौड़ पड़े। हममें खाने की भावना है, किन्तु हम सबकुछ नहीं खाते, हममें पहनने की भावना है, किन्तु हम अपने सारे धन का कपड़ा नहीं खरीद लेते हैं, तो हम विवेक से खाते हैं, विवेक से पहनते हैं। मकान बनाने की भी भावना होती है, किन्तु अपनी शक्ति का संतुलन करके ही अपने अनुकूल मकान बनाते हैं। बड़ी गाड़ी की इच्छा होती है, किन्तु हम संतुलन बनाते हैं कि कितनी बड़ी गाड़ी से काम चल जाएगा। ठीक इसी तरह से स्त्रियों से जुडऩे की भावना में भी संतुलन होना चाहिए। शक्ति का विनियोग यदि विवेक के साथ किया जाए, तभी सुख होता है। वेदों ने यह नहीं कहा कि आप केवल आनंदाभूति के लिए विवाह करें, कहा गया कि पुत्र की इच्छा से ही भोग करना है। वेदों ने यह नहीं कहा कि काम ऐषणा होनी चाहिए, वेदों ने कहा कि पुत्र ऐषणा स्वाभाविक है।
इसी तरह मठाधीशी की चरम परिणति इसमें नहीं है कि जो दान में धन आया है, उसका उपयोग रोज गुलाब जामुन, जलेबी खाने, रोज छप्पन भोग खाने में किया जाए। भोग के कारण कई महंत भी बदनाम हुए हैं। महंत जी बन गए, मोटे हो गए हैं, चला नहीं जा रहा है, दूसरों को बता रहे हैं कि ऐ दाल रोटी खाने वाले, मैं छप्पन भोग खाता हूं। वास्तव में यह मठाधीशी नहीं है, यह तो शक्ति का दुरुपयोग हो गया। संत का जीवन तो समाज के कल्याण में है, स्वयं छप्पन भोग, बड़ी गाड़ी, बड़े भवन के भोग में लग जाने में नहीं।
शक्ति हमें तभी सम्पूर्ण सुख देगी, जब हम सही मार्ग पर चलेंगे। शक्ति तभी सार्थक होती है, जब हम सही मार्ग पर चलते हैं। भोग बुरा नहीं है, किन्तु भोग धर्म के अनुकूल होना चाहिए। पूजन से जो शक्ति मिलेगी, उसका विनियोग सही समय पर, सही माध्यम से सही चीजों में होना चाहिए। आज शक्ति का विनियोग धर्मस्थलों पर भी सही ढंग से नहीं हो रहा है। जब यह कहा जाता है कि लोकतंत्र लोगों द्वारा, लोगों का, लोगों के लिए है, तो आप भी उत्तरदायित्व हैं। अच्छी व्यवस्था बनाने का उत्तरदायित्व आप पर भी है। किन्तु जान से किसी को न मारा जाए, जैसे आजकल लोग परंपरा, धर्म, समाज इत्यादि के नाम पर मार भी देते हैं। गलत लोगों को भयभीत जरूर करना चाहिए, बार-बार कहना चाहिए कि खबरदार, अगर कुछ गलत किया। धार्मिक, सात्विक और अच्छे परिवेश के निर्माण का उत्तरदायित्व सभी पर है। यदि हमारे सामने कुछ गलत हो रहा है, उसे हमें ही रोकना पड़ेगा।
देवी पूजन बढ़ रहा है, किन्तु जिस देवी पूजा के संस्कार ने स्त्रीत्व, मातृत्व और पुत्रित्व में भेद किया था, जो संयमित समाज बनाया था, वह अब कहां है? पहले तो मातृत्व भाव की पराकाष्ठा थी। भारत में मनुष्यता का चरम था, बताया जाता था कि अपनी पत्नी के अतिरिक्त जो भी है, उसे माता के स्वरूप में देखो। शक्ति के रूप में मां का स्वरूप सर्वोत्तम है। सबसे बड़ी शक्ति का स्रोत देवी ही हैं, जो संसार को चलाती हैं।
बड़े-बड़े प्रबंधन संस्थानों में यह समाजोपयोगी पढ़ाई नहीं हो रही है। जितनी भी ऊर्जा हो, उसका लाभ तभी है, जब मेरा जीवन संयम के साथ समाज में चले और दूसरों का भी चले। हमने जो अर्जित किया है राम भाव, जो ज्ञान अर्जित किया है, जो संयम अर्जित किया है, हमने जो विश्वास अर्जित किया है, हम सुख प्राप्त कर रहे हैं, यह हमारे लोक कल्याण के लक्ष्य के कारण ही संभव होता है। मठाधीशी से जो ऊर्जा उत्पन्न हो, तो सम्पूर्ण समाज को मार्ग दिखाएं, सबके कल्याण के लिए प्रयास करें।
लिखा गया है कि रघुवंशी लोग अपने लिए नहीं, बल्कि प्रजा के हित के लिए ही शादी करते थे। पत्नी से जो सुख मिलता है, उससे भी बहुत बड़े-बड़े सुख संसार में मिलते हैं। आज कोई पत्नी के साथ कितनी देर रहता है और कितनी देर ड्यूटी करता है? पत्नी को कम समय दिया जाता है, कार्य में ज्यादा ध्यान लगाया जाता है, तभी पत्नी का भी कल्याण होता है। पत्नी के प्रेम में जो सुख मिलता है, वह बहुत छोटा-सा सुख है। पुत्र का उत्पादन तो प्रजा के लिए है, वह हो गया, तो अब आपको कार्य पर ध्यान लगाना पड़ेगा, कृषि में शक्ति लगानी पड़ेगी, व्यवसाय में लगानी पड़ेगी, शक्ति अध्ययन-मनन में लगानी पड़ेगी, परिवार-समाज का शुभ सोचने और करने में लगानी पड़ेगी। यह बात लोगों को बताने की आवश्यकता है। शक्ति के विनियोग की बुद्धि के अभाव में न परिवार में बुद्धि दी जा रही है, न धर्म के अनुष्ठान में दी जा रही है, न राष्ट्र में दी जा रही है, न शिक्षण संस्थानों में दी जा रही है।
मेरे पास जो ऊर्जा है, मैं संन्यासी हूं, यदि सारी ऊर्जा मैं सडक़ पर दौडऩे में ही लगा दूं, तो कैसे होगा? कई बार लोग समझाते हैं कि महाराज, सुबह चार बजे उठकर घूमिए। मैं सुबह-सुबह टहलने निकल जाऊं, तो फिर राम नाम कौन जपेगा? ठीक इसी तरह मैं सारी ऊर्जा खाने में ही लगा दूं, शरीर और भुजाओं को सशक्त करने में ही लगा दूं, तो कैसे चलेगा? जितनी मेरी ऊर्जा है, उस ऊर्जा का लाभ यह होना चाहिए कि जैसे मेरा जीवन संयम के साथ समाज में चल रहा है, दूसरों का भी चले।
घंटों बीत जाते हैं खाना खाए हुए, कपड़ा बदले हुए, विश्राम किए हुए। इलाहाबाद में मैं जहां प्रवचन करता था, वहीं भंडारा भी बनता था, वहीं लोग भी मिलते थे, वहीं लोग रहते थे, लेकिन एक दिन भी मैंने अभाव के चिंतन में बर्बाद नहीं किया, कभी नहीं रोए कि ऐसी व्यवस्था में कैसे काम चलेगा। जब मैं जन्म लिया था, …जन्म लेने के पहले की अवस्था तो और भी खराब थी, उससे तो अब बहुत बढिय़ा है, गंगा के तट पर हैं, जन्म लिया, तो नंगे बदन, न मल-मुत्र का पता था, न बोलने की क्षमता थी, उससे तो बहुत अच्छा है अब। थोड़े अभाव में ही सही, लगा हूं रामकाज में, संभवत: इसलिए मुझे लोग सम्मान देते हैं।