भाई-भाव बचाइए

भाई-भाव बचाइए

चित्र श्री हिमांशु व्यास जी ने लिए हैं

मनुष्य इस संसार का एक भाग है और वह सदा अपने को विकसित करना चाहता है। अपने को बड़े दायरे में पहुंचाना चाहता है। इसके लिए अनेक तरह के कारणों को खोजता है, अनेक तरह के सम्बंधों को बनाता है और मित्र बनाता है, सहयोगी बनाता है, कुछ लोगों को पिता का दर्जा देता है, कुछ लोगों को बराबरी का दर्जा देता है। कुछ लोगों को सखा बनाता है। उसे आगे बढऩे के लिए बहुत सारे सम्बंधों की आवश्यकता पड़ती है, बहुत सारे संसाधनों की जरूरत पड़ती है। सम्बंध को विकसित किए बिना कोई बड़ा नहीं हो सकता। सम्बंध जरूर विकसित होने चाहिए। किन्तु सम्बंध जितने भी हों, कम हैं, बाकी सम्बंधों से भातृत्व की बराबरी का कोई प्रश्न नहीं है। अन्य सम्बंध तो बनाए जा सकते हैं, जन्म लेने के बाद, आवश्यकता के अनुसार, अपनी समझ के अनुसार, मनुष्य सम्बंधों का निर्माण करता है, सम्बंधों को चित्त में रखता है, किन्तु भातृत्व तो स्वयं बनता है, बनाया नहीं जाता। एक माता-पिता से जब हम जन्म को प्राप्त करते हैं, एक ही मां के गर्भ में रहकर जब हम अस्तित्व में आते हैं। कोई हमारे पहले आता है, तो बड़ा भाई हो जाता है, हम बाद में आते हैं, छोटे भाई हो जाते हैं, हमारे बाद जो आता है, वह हमारा छोटा भाई हो जाता है। यह सम्बंध अकृत्रिम है। बाकी सम्बंधों को कृत्रिम कहा जा सकता है, जो बाद में बनते हैं। इस सम्बंध का मूल समान माता-पिता से पैदा होना है, माता-पिता की समानता है। जिनके माता-पिता एक हैं, उन बच्चों में भातृत्व होता है। इस सम्बंध को इतना महत्व इसलिए पूरे संसार में मिला, क्योंकि यह कृत्रिम नहीं है। कहा जाता है और सभी लोग स्वीकार करते होंगे, भारत भर में यह बात तो बहुत जोर-शोर से कही जाती है कि पुत्र भले ही कुपुत्र हो सकता है, दूसरे सम्बंध भी बिगड़ सकते हैं। बाकी सम्बंध सहयोगी दृष्टि खो सकते हैं, किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती। दूसरे सम्बंध, स्वजन, परिजन तमाम तरह की वाहियात बातों से जुड़ जाते हैं, दुर्गुणों और दोषों से ग्रस्त हो जाते हैं, किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती, उसका स्तर नहीं गिरता। वह हमेशा ही अपने बच्चों के लिए बहुत उदार और बहुत समर्पित और एक मालिक जैसी महान, समुद्र के जैसी गहरे आत्मीय भाव से युक्त होती है। यही आधार है भातृत्व सम्बंध का। भाई किसी को इसलिए मानते हैं, क्योंकि जिस मां से मैंने जीवन प्राप्त किया, जिस मां के गर्भ में रहकर मैंने बाल रूप को प्राप्त किया, जिस मां के साथ रहकर मैंने अपनी अबोध अवस्था को बड़े रूप में परिवर्तित किया, उसी तरह से किसी और ने कभी किया, जिससे हमारा भातृत्व सम्बंध बना। भातृत्व का भी कारण मातृत्व ही है। मां आधार है, जो कभी भी कुमाता नहीं हो सकती। जब कारण मजबूत है, तो कार्य मजबूत होगा ही। यह नियम है कि कारण में जो गुण होते हैं, वही कार्य में आते हैं। यह दर्शन शास्त्र की पुरानी युक्ति है। तो माता में जैसे श्रेष्ठ भाव हैं, समर्पित भाव हैं, कभी भी उसमें संकुचित भाव अपने संतति के लिए नहीं आता, वह भाव स्वाभाविक रूप से भाइयों में प्रेषित होता है। भाव हैं, वासनाएं हैं, उसके लिए संस्कार हैं, जो तौर-तरीके हैं, मेरे भाई में भी आए हैं और निश्चित रूप से भाई में भी मां के जैसा ही विचार होगा, मां के जैसा ही समर्पित भाव होगा। भाई भी मां के जैसा ही दुर्गुणों से दूर होगा।
इसलिए भातृत्व को महत्व देने की पुरानी परंपरा है। यह सर्वश्रेष्ठ आधार है, अन्य सम्बंधों का आधार उतना मजबूत नहीं है, इतना बड़ा नहीं है, इतना व्यवस्थित और समर्पित नहीं है। भातृत्व का आधार संसार में सबसे सशक्त होता है। भगवान की दया से, माता के सारे संस्कार पुत्रों में आते हैं, संतति में आते हैं, तो आदमी सोचता है कि जैसी मेरी मां है, वैसे ही मेरे भाई हैं। मां जैसे जीवन भर सम्बंध का निर्वाह करती है निश्छल भाव से समर्पित होकर, वैसे ही मेरा भाई भी करेगा। मेरे लोक और परलोक दोनों का ही साधक होगा, विशेष सम्बंध वाला होगा।  

भाई-भाव बचाइए, भाग – 2

भातृत्व तो पुराना सम्बंध हो गया। माता-पिता को यदि छोड़ दिया जाए, तो दुनिया में जितने भी हमारे सम्बंधी बनते हैं, वे भातृत्व के बाद ही होते हैं, चाहे पत्नी के साथ सम्बंध हो, बच्चों के साथ सम्बंध हो या सखा या मित्र के साथ सम्बंध हो। ये सम्बंध तो सयाने होने पर बनते हैं, किन्तु भाई से सम्बंध तो जन्म के बाद ही बन जाता है। अत: यह सम्बंध बहुत सशक्त है। यह इतना प्रशस्त सम्बंध रहा है कि दुनिया में सभी लोग मिल सकते हैं, किन्तु भाई नहीं मिल सकता। बड़े और उपयोगी सम्बंध के रूप में इसकी मान्यता रही है। अभी जो बाधित हो रहा है, तमाम कुसंस्कारों से ग्रसित हो रहा है। तमाम तरह के जो समाज, व्यक्ति, परिवार को लांछित करने वाली परिस्थितियां हैं, वो भातृत्व को लांछित कर रही हैं, तो इसका मुख्य कारण है कि हमारा जीवन भोग और काम प्रधान हो गया है। अर्थ और काम के लिए ही हम सम्बंधों का निर्वाह करने लगे हैं। धन और काम की प्रधानता होने के कारण भातृत्व बाधित हो रहा है। लांछित होता जा रहा है। सम्बंध निर्वाहकों में, सम्बंध संस्थापकों में दुनिया के सबसे श्रेष्ठ प्राणी मनुष्य के रूप में राम जी अपने सम्पूर्ण जीवन में उन सभी सम्बंधों को जो सकारात्मक हैं, जो समाज की मांग हैं, जो समाज को बढ़ाने वाले हैं, उन सभी को राम जी ने चरम पर पहुंचाया। भावों की ऊंचाई तक सम्बंधों को ले गए। सम्बंधों के मामले में राम जी का चरित्र अनुकरणीय हो गया। राम जी ने जैसे अपने भातृत्व का निर्वाह किया, वह तो अद्भुत है। भातृत्व को कभी लांछित नहीं होने दिया, तो इसका सबसे पहला कारण है कि भगवान राम ने धन और काम को महत्व नहीं दिया। यदि धन और अपनी इच्छा को महत्व देते, तो लड़ाई करनी चाहिए थी, भरत के लिए राजगद्दी छोडक़र जंगल जाने की आवश्यकता नहीं थी। हम लोग कहा करते हैं, अयोध्या उसे कहते हैं, जहां अर्थ और काम के लिए लड़ाई नहीं होती है। अयोध्या का मतलब – जहां युद्ध नहीं होते, धन के लिए या भोग के लिए। संसार में लड़ाई का मूल क्या है? कहा जाता है कि धर्म के लिए भी लड़ाई होती है, किन्तु मेरा मानना है और दूसरे चिंतकों का भी मानना है कि लड़ाइयों का मूल धन और भोग है। यहां तक कि जंगली जानवर भी खाने के लिए और भोग के लिए ही लड़ते हैं, हाथी भी लड़ते हैं, बाघ और कुत्ते बिल्ली भी।
राम का भातृत्व अत्यंत उदात्त है, कैसा अतुलनीय उन्होंने अपना जीवन बनाया, कैसे अनुपम ढंग से उन्होंने उसका पालन किया, इसका मुख्य कारण है कि उन्होंने कभी धन और भोग को महत्व नहीं दिया। धन को महत्व देते, तो उन्हें कहना चाहिए था कि यह हमारे पिताजी की आज्ञा नहीं है, उनके अनुकूल भावना नहीं है, दशरथ जी तो राम जी के जंगल जाने की बात पर डांवाडोल हो गए हैं, वे अपने धर्म से अलग होना चाहते हैं। सभी रामायणों में यह बात लिखित है। दशरथ जी ने कई बार दोहराया कि मैं भले नरक चला जाऊं, मेरी जो भी दुर्गति हो, किन्तु मेरा राम मेरी आंखों से ओझल न हो। किन्तु राम जी अपने पिता दशरथ जी से कहते हैं कि जब आपने माता कैकेयी को दो वरदान मांगने के लिए संकल्प किया था कि आप कभी भी मांग लेना, तो अभी यदि वे मांगती हैं, तो उनका मांगना उचित है, जब आप उनको देंगे, तो हमें पिता-पुत्र की भावना का निर्वाह करते हुए, पिता के लिए सम्पूर्ण समर्पित होते हुए वरदान के परिपालन के लिए मुझे जंगल जाना ही चाहिए और भरत को राजा होना चाहिए, इसमें अधर्म कहां से आ गया। इसमें मैं नहीं जाऊं, यह बात कहां से आ गई, यदि आप वरदान नहीं देते हैं, तो आपका धर्म जाता है और मैं नहीं जाता हूं जंगल, तो मेरा पुत्रत्व लांछित होता है।
शास्त्र में लिखा है कि अपने पिता को ‘पुम्Ó नामक नरक में नहीं जाने दे, वही पुत्र होता है। यदि धन को महत्व देते श्री राम, भोग को महत्व देते, तो जंगल कभी नहीं जाते। अयोध्या में तो धन, ऐश्वर्य सबकुछ प्राप्त था, जंगल में ये सब प्राप्त नहीं था। ऐसी समृद्धशाली-खुशहाल अयोध्या को छोडक़र, जिसे लेकर कुबेर भी लज्जित होते हैं, इन्द्र भी सिहरन को प्राप्त करते हैं, उस राज्य को छोडक़र जंगल जाने की बात नहीं होती। संसार में जबसे धन और भोग को लोग ज्यादा महत्व देने लगे हैं, तबसे भातृत्व लांछित होने लगा है। राम जी ने धन और भोग को महत्व नहीं दिया, वे जंगल में चले गए, उन्होंने कभी मन में भी नहीं आने दिया कि यह षड्यंत्र है और इस षड्यंत्र में भरत की भागीदारी है। अपनी सम्पूर्ण चर्चा में चाहे सामने हुई हो या पीछे हुई हो, कभी उन्होंने यह नहीं कहा कि कैकेयी दोषी हैं, मैं बड़ा लडक़ा हूं, मुझे राजा होना चाहिए। भरत को कोई अधिकार नहीं है। किन्तु राम जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा।
आज भातृत्व का स्वरूप गंदा होता जा रहा है, इसका अर्थ है कि हमारे जो दूसरे सम्बंधी हैं, वो सभी लोग धर्म और मोक्ष को या राष्ट्र को, विकास को या परिवार विकास को, अपने व्यक्तित्व के दूसरे सकारात्मक विकास को महत्व नहीं देकर सम्बंध को महत्व नहीं देकर, केवल भोग और अर्थ को महत्व देने लगे हैं। इसलिए ये सम्बंध लंाछित हो रहा है।

भाई भाव बचाइए – भाग : ३

वनवास के लिए जाते हुए जब इलाहाबाद में राम पहुंचे, जानकी जी और लक्ष्मण के साथ, तो रात्रि विश्राम कर कर रहे हैं, तो वहां कान लगाकर महर्षि भरद्वाज ने सुना कि क्या बात करते हैं, उन्हें पता था कि राम राजा बनते-बनते जंगल को जा रहे हैं, तो उन्हें शंका थी कि राम के मन में भरत के लिए रोष होगा, शिकायत होगी, कैकेयी के लिए गलत भावना होगी, किन्तु ऐसा कुछ नहीं था।
राम जी को मनाने के क्रम में वन के लिए निकले भरत जी महर्षि भरद्वाज जी के पास आए, तब भरत जी को बहुत पीडि़त और चिंतित देखकर, महर्षि भरद्वाज ने भरत जी को समझाने के लिए कई तरह के प्रयास किए, भरत की शंकाओं के निवारण के प्रयास किए। कई तरह के प्रश्न किए महर्षि भरद्वाज ने, कई तरह की बात की। राम जी के बारे में भरत जी के मन में बन रही भावना को दूर किया। महर्षि भरद्वाज ने समझाया, ‘मैं ऋषि हूं, हम उदासीन जीवन जीते हैं, हम गलत ढंग से किसी के पक्षधर नहीं होते, हम सबको अपना मानते हैं, हम सबकी भलाई का प्रयास करते हैं। मैं आपको एक ऐसी बात बतलाने जा रहा हूं, जिसे सुनकर आपको महान आश्चर्य होगा।
भरत जी ने कहा, ‘बतलाइए।
भरद्वाज जी ने उत्तर दिया, ‘जो कार्य व्यक्ति को नहीं करना चाहिए, वह मैंने किया। पति-पत्नी सो रहे हैं और कोई ऋषि जीवन का व्यक्ति कान लगाकर रात्रि में उनकी बात सुने, तो इससे गिरा हुआ कर्म क्या होगा, किन्तु राज्य-राष्ट्र के चरित्र को ध्यान में रखकर मैंने यह कार्य किया। जैसे ऋषि केवल दाढ़ी नहीं बढ़ाता, केवल माला ही नहीं पहनता, वह राष्ट्रहित के लिए जागता भी है, इसलिए मैंने सोचा कि राष्ट्र प्रधान है, व्यक्ति नहीं, इसलिए मैंने कान लगाकर सुना कि राम जी जानकी जी और लक्ष्मण जी के साथ बात क्या करते हैं? लिखा है तुलसीदास जी ने कि सम्पूर्ण रात्रि में भरत ही चर्चा का विषय रहे, चर्चा में एक बार भी भरत के लिए भत्र्सना का भाव नहीं आया, एक बार भी भरत की निंदा नहीं हुई, एक बार भी कोई गलत बात नहीं हुई, भरत की प्रशंसा में ही सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत हो गई।
इसका अभिप्राय है कि भरत के लिए राज्य विच्छेद काल में और उसके बाद और सम्पूर्ण १४ वर्षों के वनवास काल में और वहां से लौट के आने के बाद भी हजारों वर्षों तक राम जी ने राज्य किया। इतने वर्षों में न जाने कितनी वार्ताएं हुई हैं, कितने लोगों से वनवास की चर्चा हुई होगी, किन्तु राम जी ने कभी नहीं कहा कि भरत गलत हैं। सारा कुछ जो हो रहा था, भरत के लिए ही हो रहा था, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा। राम मानते हैं कि पुत्र का पहला कत्र्तव्य है कि पिता की भावना के लिए अपने को समर्पित करे, इसमें कहीं से कोई विकृति नहीं है, मैं राजा बनता हूं या भरत बनते हैं, क्या अंतर है?
इस सम्बंध में मैं भाव प्रकट करना चाह रहा हूं, जैसे हम अपने लिए कोई बुराई नहीं सोचते, हम अपने लिए कभी षड्यंत्र नहीं करते, हम स्वयं को कभी धोखा नहीं देते, हम स्वयं के लिए खलनायक नहीं होते, वैसे ही भाई को अभेद की भावना से सम्भालना चाहिए। भ्राता जो मेरा है, मेरे समान है, मुझमें और उसमें अभिन्नता है, मैं और वो, दोनों एक हैं। जैसे हम अपने लिए सदा असली भाव रखते हैं, कभी नकली नहीं रखते, खाने में, पढऩे में, लिखने में, जितने भी व्यवहार दुनिया में हैं, हम अपने लिए बहुत सम्भल कर व्यवहार करते हैं, मंशा के साथ व्यवहार करते हैं, वैसे ही भाई के लिए भी व्यवहार होना चाहिए। यदि इसी भावना से भाई के साथ व्यवहार करें, अभेद की भावना से, तो भगवान की दया से भातृत्व कभी भी लांछित नहीं होगा। कभी भी वह खलनायक नहीं होगा। निकृष्ट पृष्ठभूमि का नहीं होगा।

भाई-भाव बचाइए – भाग : 4

विवाह तो बाद में होता है। २५-३० वर्ष का होने के बाद होता है। विवाह का असली स्वरूप तो धर्म का संस्थापन है। अपने यहां माना गया है कि धर्म की संस्थापना में पत्नी की अहम भूमिका है। लक्ष्मी के रूप में कन्या को लाया जाता है। ब्राह्मण लोग संकल्प करवाते हैं, लक्ष्मीस्वरूपा कन्या को हम विष्णुस्वरूप वर को दे रहे हैं। लक्ष्मी छली नहीं हैं, वह सबका पोषण करती हैं, क्षमता के अनुसार पोषण करती हैं, भेदभाव नहीं करतीं। किन्तु आज जो पत्नी की भावना है, वह भोग प्रधान भावना है। पत्नी आएगी वासना की संतुष्टि का माध्यम बनेगी, उससे हमें संतति की प्राप्ति होगी, वह संतति बुढ़ापे में हमारी सहयोगी होगी। पत्नी और पुत्र-पुत्री से सम्बंध के मूल में धर्म का भाव समाप्त होकर भोग और धन का भाव आ गया है। लडक़ा होगा, तो राज्य संभालेगा, कमाएगा, तो परिवार समृद्ध होगा, बुढ़ापे का सहारा बनेगा। लोग सोचते हैं – पत्नी के बिना हमारा समय कैसे बीतेगा, भोग की जो भावना है, उसकी संतुष्टि कैसे होगी। पहले जो सर्वश्रेष्ठ भाव थे कि पत्नी लोक और परलोक, दोनों को सुधारने के लिए कारण बनेगी, धर्म ही लोक को ठीक करता है और परलोक को भी ठीक करता है, किन्तु यह भाव ओझल हो रहा है और भोग का भाव बढ़ रहा है। इन सम्बंधियों की अपेक्षा भातृत्व घटता जा रहा है। शादी हो जाती है, तो आदमी का माता-पिता से प्रेम, भाई, बहन से प्रेम, अन्य स्वाभाविक सम्बंधियों से प्रेम दबने लग जाता है। आज सम्बंध तो भोग और काम पर आधारित हो गया, अत: आवश्यक है कि इन सम्बंधों को महत्व धर्म के रूप में दिया जाए, उसी रूप में संवारा जाए, पुत्र को भी कहा जाए कि तुम मेरे धर्म पुत्र हो, आए हो, तो पितरों के लिए पिंडदान करोगे, बगीचा लगाया है, उसे बचाओगे, भातृत्व को भी समर्पित होगे, जैसे मेरे लिए भाव रखते हो, उसी तरह से मेरे भाई के लिए भी रखोगे, अपने भाई के लिए भी रखोगे, भले हम शरीर से अलग-अलग लगते हैं, किन्तु हम एक हैं।
भातृत्व पर आज जो खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, बहुत गलत हो रहा है। इच्छा तो यही होती है कि अर्थ और काम के झंझावात में भातृत्व सम्बंध कभी नहीं उड़ें, किन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि भातृत्व को धक्का पहुंचाने वाले जो सम्बंध हैं, उनमें पत्नी से सम्बंध की ज्यादा बड़ी भूमिका है। शादी हुई नहीं कि भातृत्व कमजोर पडऩे लगता है, पुत्र हुआ नहीं कि लगने लगता है कि ये हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण और उपयोगी सम्बंधी हैं, भातृत्व उतना उपयोगी नहीं है। जबकि भातृत्व तो प्राकृतिक रूप से मिला था, उसे कुंडली दिखलाकर बाजा-गाजा करके नहीं स्थापित किया गया। जीवन में २५ साल बाद जो सम्बंध उत्पन्न हुआ है, वह पुराने सम्बंधों की रक्षा के लिए है, उन्हें बढ़ाने और सुन्दर बनाने और सशक्त बनाने के लिए है, किन्तु होता यह है कि बाद में होने वाला सम्बंध पुराने सम्बंध के लिए घातक बन जाता है। लडक़े-लड़कियां और पत्नी घातक बन गए।
जो भी सम्बंध दुनिया में हैं, उसमें ध्यान में रखा जाए कि माता-पिता के साथ जो सम्बंध है, भातृत्व का जो सम्बंध है, बहनों के साथ जो सम्बंध है, उसकी रक्षा में ही बाकी सम्बंधों का उपयोग है। यदि पत्नी इसमें साथ नहीं दे, तो पत्नी से सम्बंध घाटे का हुआ न। एक सम्बंध बचाने में कई सम्बंध बलि चढ़ गए।

भाई-भाव बचाइए – भाग : 5

राम जी ने अपने काल में न जाने कितने लोगों को सखा बनाया, मैं बार-बार यह कहा करता हूं। सुग्रीव उनको अपना स्वामी मानते हैं, विभीषण उनको स्वामी मानते हैं, लेकिन भगवान ने हनुमान जी को भी सखा कहा। हनुमान जी तो दास भक्ति में सबसे बड़े माने जाते हैं, किन्तु जब अयोध्या में लौटे, तो भगवान ने गुरु वशिष्ठ जी से कहा :-ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।
मैं कहता हूं कि राम राज्य का जो संस्थापक सम्बंध है, वह सखा भाव है। सबको भगवान सखा कहते हैं और उसी तरह से व्यवहार करते हैं। सुग्रीव के साथ भी सखा भाव, जबकि सुग्रीव स्वयं को सेवक ही मानते हैं, जामवंत, नल, नील सब सखा। सखा सम्बंध को राम जी ने खूब फैलाया। राम जी निरंतर कहते हैं, ये सभी लोग हमारे सखा हैं। यदि इन सम्बंधों को इससे भी आगे महत्व देना हो और विकसित करना हो, और श्रेष्ठता के साथ प्रकट करना हो, तो राम जी कहते हैं :-
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।
ये सब सखा मेरे भरत भाई के समान हैं, लक्ष्मण भाई के समान हैं। सखा सम्बंध की संस्थापना के लिए रामजी ने खूब प्रयास किए। उनका सबसे प्रिय और हार्दिक आकर्षण का केन्द्र सम्बंध सखा भाव ही है। तभी वो अपने सभी सेवकों को भी सखा कह रहे हैं, लंका से अयोध्या में जाने पर, किन्तु उसे भी तुलना देनी हो, उपमान खड़ा करना हो, तो यही कहते हैं, ये हमें भरत के समान प्रिय हैं।
भरत जी के लिए एक जगह लिखा है, जब अयोध्या से गए राम जी को मनाने के लिए। देखिए, इसके लिए होने वाली वार्ता में कितना दम है। सभी लोगों ने भरत जी को मनाया कि आप राजा बन जाइए, राम जी भी नहीं हैं, पिताजी भी नहीं हैं, अयोध्या की बड़ी दुर्दशा है, सभी लोग विकल हैं राम विरह में। लगता नहीं है कि लोग रह पाएंगे, सारी अयोध्या, सारी प्रजा ही नष्ट हो जाएगी, तो भरत जी ने कहा, मैं नहीं रुक सकता, मेरे पूरे शरीर में जलन हो रही है, हृदय में जलन हो रही है, जबतक भाई को नहीं मिलूंगा, उनका दर्शन नहीं करूंगा, उनके भावों को नहीं पढ़ूंगा, तब तक मैं जीवन नहीं जी सकता, मैं जलकर राख हो जाऊंगा। आप भले ही कह रहे हैं, राजा बनिए, किन्तु मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि जिस आदमी के कारण राम जी जंगल चले गए, उस आदमी को राजा बनाकर आपको क्या मिलेगा, मैं लांछित हूं, चिंतित हूं, कहीं से मेरा जीवन सम्मानजनक नहीं है, श्रेष्ठ नहीं है, कहीं से भी मेरा जीवन प्रशस्त नहीं है।
लिखा है तुलसीदास जी ने : भरत जी बोल रहे हैं :-
कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज।।
किन्तु भरत जी के साथ राम जी ने ऐसा व्यवहार किया कि उनके मन में जो संदेह की ज्वाला थी, जो उनके मन में विभ्रम की भावना थी, मन में जो कुत्सित विचार आ रहे थे कि भाई राम मेरे बारे में ऐसा सोचते होंगे, वैसा सोचते होंगे। राम जी ने भरत जी को इतना संतुष्ट किया कि जहां भरत जी राजा बनने के नाम पर चिढ़ रहे थे, भाग खड़े हो रहे थे, झुंझला रहे थे, वहां उन्होंने चरण पादुका जी देकर उन्हें राजा बनने के लिए तैयार कर लिया। लिखा है रामायण में, जब भरत जी वन में राम जी के पास गए, तो राम जी को दूर से ही यह कहकर कि त्राहिमाम-त्राहिमाम-त्राहिमाम, मेरी रक्षा करें, मेरी रक्षा करें,… दूर से ही प्रणाम करते हुए निकट आए और राम जी के चरणों में गिर गए, तब राम जी ने भरत को बरबस उठाया और गले से लगा लिया। जो मिलन हुआ, तुलसीदास जी ने लिखा है कि उस मिलन को देखकर जितने भी संस्कारी जीव थे, उनको तो समाधि लग ही गई, वे संसार को भूल ही गए, समाधिस्थ हो गए, किन्तु जो अपान थे, वे भी समाधिस्थ हो गए। उनका गलत चित्त भी समाधि में बाधक नहीं बना।
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।
अपवित्र जीवन वाले भी समाधिस्थ हो गए। अरे ऐसा मिलन! जिस व्यक्ति के कारण राम जी को जंगल आना पड़ा, उस व्यक्ति से ऐसे मिल रहे हैं! जैसे सागर के समान सागर ही है, हिमालय के समान हिमालय ही है, ठीक उसी तरह से भरत और राम मिलन के समान केवल राम और भरत का मिलन ही है, दूसरा हो ही नहीं सकता।

भाई-भाव बचाइए भाग : 6

आज सम्बंध निर्वाह के लिए बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। बहुत बड़ा मन होना चाहिए। अत्यंत उदार मन होना चाहिए, नहीं तो यदि भरत को कहते राम जी कि मैं तो राजा बनने वाला था, तुम्हारे कारण ही मुझे जंगल आना पड़ा, तो मेरा पूर्ण विश्वास है कि भरत जी जीते नहीं, वहीं तड़प-तड़प करके राम जी के सामने ही शरीर को स्वाहा कर देते, जीवन को राख बना देते। राम जी को पूर्ण विश्वास के साथ लगता है कि मेरा भरत गलत नहीं है, यदि वैसा है, तो भी मेरा भाई ही है।
एक ऐसा उदाहरण मैं देना चाहता हूं, जिससे आपको लगेगा, वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि राम जी जब लंका विजय से लौटे, तो प्रयाग-इलाहाबाद से हनुमान जी को भेजा कि जाओ, भरत जी को सूचित करो कि मैं आ रहा हूं। लंका से मैं प्रयाग आ गया हूं, अब अयोध्या आना है मुझे।
बड़ी मनोवैज्ञानिक और स्वाभाविक बात का उल्लेख किया है महर्षि वाल्मीकि ने, राम जी ने क्या खूब कहा हनुमान जी को, पता करो पहले जाकर कि भरत १४ वर्षों से राज भार संभाल रहे हैं, कहीं उनके मन में राज्य-आसक्ति तो नहीं उत्पन्न हो गई कि मैं ही राजा रहता, तो बहुत अच्छा होता। किसी को राज्य देने की क्या जरूरत है, दूसरे रामायण में यह नहीं लिखा है, लेकिन वाल्मीकि बहुत स्वाभाविक बात कहते हैं, गद्दी मिल जाने के बाद क्या उसे छोडऩे की इच्छा होती है? प्रभुता पाकर किसमें मद नहीं आता। किस में यह भाव नहीं आता कि मैं ही भोग करूं, यह भाव हर आदमी में आ जाता है। तो राम जी ने कहा कि पता कर लेना, यदि भरत का मन हो गया हो, तो अपना भाई ही तो है, मैं राजा रहूं या भरत रहें, इसमें क्या समस्या है। अपने १४ साल जंगल में रहे, अपने जीवन भर जंगल में रहेंगे, किन्तु राजा तो भरत रहें, हमें कोई समस्या नहीं है। हम धीरे से यहीं से लौट जाएंगे, मुझे भरत से लडऩा नहीं है। कोई अपनों से लड़ता है क्या, लड़ाई तो दूसरों से होती है अपने अधिकार के लिए। जो मैं हूं, वही भरत हैं।
तो जाकर हनुमान जी ने पता किया, भरत जी की भावनाओं को देखा। भरत जी तो एक-एक क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जैसे बस जीवन इसी के लिए टिका हुआ हूं, निर्धारित समय पर यदि राम नहीं आते हैं, तो भरत का जीवन अत्यंत कठिन है। भरत का जो समर्पण है, जो राम जी के लिए अगाध श्रद्धा का भाव है, विश्वास का भाव है। वह अतुलनीय है।
हनुमान जी भरत जी से मिलकर लौट गए और राम जी से कहा, चलिए, आप जल्दी चलिए अयोध्या। अब देर मत कीजिए।
एक और प्रकरण सुनाना चाहूंगा। जब भगवान ने बाली को मारा, तो बाली ने पूछा कि आपने हमें क्यों मारा, आप कौन होते हैं मारने वाले, राम जी ने उत्तर दिया कि तुम अपने भाई की पत्नी को ही रख लिए हो, ऐसा रघुवंश के विधान में या राज्य में नहीं होता। राम जी को कोई संकोच नहीं लगा, इसलिए वे कहते हैं कि हमारे भाई भरत राजा हैं अभी, रघुवंश शिरोमणि है हमारे भरत, मैं उन्हीं के अनुसार जंगल में रघुवंशियों के नियम-कानून, रक्षा, उसका परिपालन और जो उसका विरोध करता है, उसको दंड देने के लिए अधिकृत हूं।
अर्थात बड़ा भाई, राम जैसा महान व्यक्ति, अपने छोटे भाई का अनुचर बनकर उसकी आज्ञा का पालक बनकर जीवन बिता रहा है, क्या बात है! ऐसे ही भातृत्व बनता है।
आजकल तो आदमी भाई की बड़ाई सुन ले, तो खून खौलने लगता है, ईष्र्या की भावना पनपने लगती है, राम जी ने कहा, मैं भरत की आज्ञा के अनुसार रघुवंश के नियमों का परिपालक हूं, राजा मेरा भाई भरत है और मैं भरत की ओर से नियुक्त हूं जंगल में। यह पिता जी ने कहा था, किन्तु अब भरत राजा हैं। जो रघुवंशियों के संविधान की अवमानना करेगा, जो उसको नहीं मानेगा, जो परिपालन नहीं करेगा, उसको जो दंड रधुवंश के संविधान में है, वह मैं दूंगा। हमारे यहां कोई नियम नहीं है कि भाई जीवित हो और उसकी पत्नी को बड़ा भाई अपनी पत्नी बना ले, इसलिए मैंने आपको मारा, कहीं से कोई गलत काम नहीं किया। यह गहराई से चिंतन की बात है, भरत का आज्ञापालक राम जी स्वयं को मान रहे हैं। जैसे राजा का आज्ञाकारी सेवक होता है, उस तरह से स्वयं को मान रहे हैं।
यहां तक लिखा है कि अयोध्या जी में चरण पादुका को रखकर भरत जी राज्य का संचालन करते हैं। नंदीग्राम में व्रत, नियम, संयम के साथ रहते हैं, कोई आज्ञा लेनी हो, तो चरण पादुका जी से लेते हैं, उसका पूजन भी करते हैं और वैसा जीवन व्यतीत करते हैं, जैसा राम जी वन में जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तपस्वी जीवन, वनवासी जीवन, उदासीन जीवन

भाई-भाव बचाइए भाग : ७

तुलनात्मक अध्ययन की सनातन अनादि परंपरा है। राम जी ज्यादा समर्पित हैं या भरत जी। राम जी में ज्यादा पे्रम की भावना है या भरत जी में, कौन ज्यादा प्रेमी है, लोग तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। लोग तुलना करके निष्कर्ष निकालते हैं कि भरत जी की तपस्या राम जी से भी बड़ी है। राम जी पत्नी के साथ थे, भरत जी नंदीग्राम में अकेले रह रहे हैं। राजा और राज्य भावना का पालन करते हुए तपस्वी हैं, क्या बात है! अयोध्या से करीब १४ किलोमीटर दूर था नंदीग्राम। सभी दृष्टियों से, यहां तक लिखा है कि बड़े-बड़े ऋषियों के रोंगटे खड़े हो रहे हंै, वे भरत का तपस्वी जीवन देखकर लजा रहे हैं :-
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं।
देखि दसा मुनिराज लजाहीं।।
भरत का जो यह इतना बड़ा प्रेम है, उस प्रेम को जीवन देने वाले और खाद-पानी डालने वाले राम जी ही हैं। राम जी यदि भातृत्व के पोषक के रूप में हमेशा अपने को तैयार नहीं रखते, तो भरत का भातृत्व लुप्त हो जाता। इसके लिए लिखा है कि
भरत सरिस को राम सनेही। जग जपु रामु राम जपु जेही।
दुनिया में कौन भरत के समान राम का स्नेही होगा। संसार राम-राम जपता है और राम जी भरत-भरत जपते हैं। जब कोई भाई सम्बंधों को महत्व देकर, निर्वाह के लिए तत्पर होगा, तभी भातृत्व सम्बंध जीवित रहेगा और दूसरे सम्बंध उसी को मजबूत करने के लिए होंगे। यह नहीं कि उसको तोडऩे के लिए हो जाएं। बाप-बेटा का सम्बंध हो या पति-पत्नी का सम्बंध हो, चाहे कोई सम्बंध हो, उसे यह मानना होगा कि वह भातृत्व सम्बंध का पोषक बने, भातृत्व का संवद्र्धक बने, तभी भातृत्व बचेगा और उससे जो शक्ति मिलेगी, जो एक अच्छा वातावरण तैयार होगा, वह सारे सम्बंधों को आदर्श रूप बना देगा और उससे सम्पूर्ण वातावरण ही पवित्र हो जाएगा। जो सम्बंधों में खोटापन आया है, उसका निषेध किया जाए और राम जी का जो सम्बंध निर्वाहक स्वरूप है, जो भातृत्व निर्वाहक स्वरूप है, उसका अनुकरण किया जाए। राजा बनने के बाद भी भरत जी का जीवन देखिए, वह भी अनुकरणीय है। आज के राजाओं को भरत जी से अपनी तुलना करनी चाहिए।
राम जी का भी विवाह हुआ था, पुत्र हुए, उन्होंने अपने जीवन में न जाने कितने संपर्क बनाए, किन्तु कभी भी उन्होंने इन सम्बंधों को भातृत्व को तोडऩे वाला नहीं बनने दिया। राम-भरत के जैसे आदर्श भातृत्व में गुरु वशिष्ठ का भी बड़ा योगदान है। गुरु वशिष्ठ कहीं भी भातृत्व को तोडऩे के लिए नहीं, भातृत्व को बढ़ाने के लिए हैं। मैं फिर दोहरा रहा हूं, भातृत्व का आधार वो सम्बंध हैं, जिनके बारे में वेदों ने कहा – पितृ देवोभव, मातृ देवोभव। माता-पिता को वेदों ने ईश्वर तुल्य बता दिया। जो सम्बंध ईश्वर तुल्य है, वही आधार है भातृत्व का। इससे बड़ा और कौन सम्बंध होगा?
मैं इसको बहुत ही गहराई से अनुभव करते हुए प्रस्तुत करना चाह रहा हूं कि भातृत्व को संसार में पुन: बल मिलना चाहिए। उसको महत्व मिलना चाहिए। यदि कोई गलती भी हो गई हो भ्राता से, उसे क्षमा करके सम्बंध आगे चलाना चाहिए। गलती किससे नहीं होती? कौन दुनिया में सम्बंधी है, जो गलती नहीं करता? कौन दुनिया में सम्बंध है, जो कभी हानि नहीं पहुंचाता? कौन सम्बंध ऐसा है, जिससे कभी न कभी हमारा मन आहत नहीं होता? पुत्र से कई बार लोगों को कष्ट हो जाता है, पुत्र ही बड़ी हानि पहुंचा देता है, किन्तु पुत्र को कितने लोगों ने घर से बाहर कर दिया, पत्नी को कितने लोगों ने घर से बाहर कर दिया? जो लोग बाहर कर रहे हैं, अपनी वासना की लोलुपता के कारण कर रहे हैं, दूसरी औरत पर आकृष्ट हो गए, भोग और अर्थ से प्रभावित होने के कारण कर रहे हैं। इसी तरह कुछ गलतियों के आधार पर भाई के प्रति मन मैला नहीं करना चाहिए।
हम अपने जीवन में न जाने कितने लोगों से सम्बंध जोड़ते हैं व्यापार के लिए, जीविका के लिए, बड़ा बनने के लिए और तमाम तरह के जो उद्यम हैं जीवन के विकास के लिए, हम कितने सम्बंधों को निर्माण करते हैं, उन सम्बंधों की कोई औकात नहीं है भातृत्व के सामने। भातृत्व की रक्षा के लिए हमें बहुत सचेत होने, सहिष्णु होने, उदार होने की आवश्यकता है। यदि भातृत्व सशक्त हुआ, तो जीवन के सभी अंग पुष्ट हो जाएंगे और हमारा भरपूर विकास होगा। परिवार का होगा, अड़ोस-पड़ोस का होगा, राज्य का और देश और दुनिया का होगा।

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