आनंद की खोज !
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं, ‘आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है।
एक व्यक्ति ने अपने समस्त परिवार से विद्रोह करके एक अत्यंत सुन्दर कन्या से विवाह किया। रात-दिन पत्नी को खुश करने में जुट गया। एक बार वह पत्नी के साथ गंगा में नौका विहार कर रहा था, तभी आकस्मिक तूफान आने से नाव डूबने लगी। भयभीत पत्नी बोल पड़ी, ‘मुझे तैरना नहीं आता, मेरी कैसे रक्षा होगी।’ पति ने उत्तर दिया, ‘नाव भले डूब जाए, मैं तुम्हें पार ले जाऊंगा।’ वह पत्नी को कंधे पर बिठाकर तैरने लगा। तैरते-तैरते बहुत देर हो गई, किनारा न आया। पति बुरी तरह थक चुका था, उसे स्वयं के प्राण की चिंता सताने लगी। उसके हृदय में स्वार्थ जाग उठा। उसने पत्नी से कहा, ‘जितनी देर संभव था, मैंने तुम्हारी रक्षा का प्रयास किया, परन्तु अब यदि मैं तुम्हें लेकर तैरता रहूंगा, तो तुम्हारे साथ मैं भी डूब जाऊंगा, अत: तुम मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हें मझधार में छोडक़र अपने प्राणों की रक्षा करूंगा, क्योंकि प्राण रक्षा होने पर तो मैं पुन: किसी स्त्री से विवाह कर लूंगा।’
यह कथा उदाहरण है कि संसार के प्रत्येक व्यक्ति को स्व-प्राण व स्व-सुख ही सर्वाधिक प्रिय है, इसकी तुलना में न पुत्र प्रिय होता है, न पत्नी, न धन, किन्तु यह उचित नहीं है। वस्तुत: व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि सच्चा आनंद तो अपनी आत्मा में ही छिपा होता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार, इस आनंद को खोजने के साधन हैं कर्म, ज्ञान और भक्ति।